समाज की आत्मा है कल्ट क्लासिक फ़िल्म शोले

*समाज की आत्मा है कल्ट क्लासिक फ़िल्म शोले *

हिन्दी सिनेमा की एक अद्वितीय कल्ट क्लासिक फ़िल्म शोले जिसका एक - एक किरदार, डायलॉग, संवाद, सीन, गीत, संगीत सब कुछ आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में अंकित है. शोले फ़िल्म में इतनी बड़ी स्टारकास्ट जिसमें एक से बढ़कर एक सुपरस्टार, एक से बढ़कर एक सभी किरदार अमर हैं. कास्टिंग के वक़्त सभी सितारे एक - दूसरे के रोल बदलना चाहते थे, लेकिन अडिग रमेश सिप्पी ने वैसे ही किरदार गढ़े जैसे चाहते थे. फिल्म में अभिनय के महान उस्ताद संजीव कुमार, हरफ़नमौला धर्मेद्र, अमजद खान, एंग्रीमैन अमिताभ बच्चन, ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी, जया बच्चन, आदि के दमदार रोल के बाद भी स्क्रीन शेयर करने के बाद छोटे छोटे मोहरे भी बाज़ी जीत कर ले गए.. जेलर के रूप में असरानी, हरिराम नाई के रूप में केश्टो मुखर्जी, कालिया के रूप में विजु खोटे, सांभा के रूप में मैकमोहन.. ये सारे अमर किरदार आज भी सिने जगत में या सिने प्रेमियों में बच्चा - बच्चा एक - एक किरदार से ऐसे परिचित है, जैसे रामायण, महाभारत के किरदारों से परिचित है. सिप्पी पिता-पुत्र की जोड़ी अपनी एक फिल्म शोले के लिए आजीवन याद किए जाएंगे. 

शोले फ़िल्म की कहानी कोई बहुत बौध्दिक नहीं है, बस आम जनजीवन को स्पर्श करती हुए दर्शकों को जोड़ती है. पिता - पुत्र सिप्पी की जोड़ी ने जब शोले बनाने की सोची तो उन्होंने यह नहीं सोचा था कि शोले हिन्दुस्तानी सिनेमा की धड़कन बन जाएगी. दरअसल कोई भी फ़िल्मकार एक अच्छी फिल्म बनाने का प्रयास करता है, कल्ट फिल्म तो उसका प्रभाव बनाता है. शोले हिन्दी सिनेमा की पहली फिल्म थी जो 70 एमएम में बनी थी और पहली फिल्म जिसमें ‘स्टीरियो फोनिक साउंड’ का इस्तेमाल किया गया था..

एक कहावत है 'शोले को देखते हुए दिमाग लगाने की बजाय दिल से देखना चाहिए' , शोले एक शुद्ध मसाला एंटरटेनमेंट का कॉकटेल है. फिल्म को रिलीज हुए कई दशक हो गए लेकिन शोले का जादू आज भी बरकरार है. आज तीन पीढ़ी के लोगों में शोले की दीवानगी देखी जा सकती है, बहुतेरे लोगों को यह भी पता नहीं है कि शोले कितनी बार देख ली, लेकिन आज भी शोले देखने की परंपरा जवान हो रही है. शोले का प्रभाव बहुत ज्यादा हुआ. पक्के दोस्तों को जय-वीरू कहा जाने लगा तो बक-बक करने वाली लड़कियों को बसंती कहा जाने लगा. मांओं ने अपने छोटे बच्चों को गब्बर का डर दिखाकर सुलाया. भारतीय जनमानस पर इस फिल्म का गहरा असर हुआ.. यहां तक कि फिल्म में घोड़ी धन्नो इतनी प्रसिद्ध हुई कि आज भी किसी की गाड़ी, बाईक चलते हुए अचानक रुक जाए तो लोग... धन्नो कहकर संबोधित करते हुए दिख जाते हैं. 

शोले का कथानक शानदार है, बदले की भावना में जल रहा एक रिटायर्ड पुलिस इंस्पेक्टर ठाकुर (संजीव कुमार) अपनी जेल के दो बहादुर ठगों को याद करता है और इन्हें अपने पास बुला लेता है.. वीरू - जय (धर्मेद्र - अमिताभ) दोनों चतुर, बहादुर ठगों की बदोलत खुंखार डाकू गब्बर (अमजद खान) के खात्मे की योजना बनाता है. 

फिल्म में अपने एक अलग ही ताब में रिटायर्ड इंस्पेक्टर ठाकुर (संजीव कुमार) जिनकी अदाकारी से किसी भी फिल्म की पटकथा में एक वजन आ जाता है, जिनके सामने अदाकारी करते हुए कोई भी असरहीन हो जाता है. संजीव कुमार ने परिपक्व अदाकारी करते हुए.. जैसे कोई सयाना व्यक्ति पूरे घर को थाम लेता है, वैसे ही संजीव कुमार ने पूरी फ़िल्म को कांधे पर उठा लिया था. संजीव कुमार उपयोगी जगह पर ही दिखाए जाते हैं.. और फिल्म को थामे हुए से महसूस होते हैं. उनकी अदाकारी का क्लास देखते ही बनता है. जब कालिया से कहते हैं "गब्बर से कहना रामगढ़ वालों ने पागल कुत्तों के सामने रोटी डालना बंद कर दिया है. बंदूक को हाथ लगाने से पहले ऊपर देखो... चले जाओ... बिना हाथों के हथियार बंद डकैतों के सामने अपने ताब में गुस्से में बोलते हुए संजीव कुमार पर रश्क आता है... फिर चाहे जय - वीरू से ठाकुर का कहना हो" तुम गब्बर को नहीं मारोगे, वायदा करो".. बदले की आग में जल रहे ठाकुर कमाल का आत्मविश्वास दिखाते हैं,.. "लोहा गरम है, मार दो हथौड़ा" ... ऐसे लगता है जैसे पूरी की पूरी स्क्रिप्ट ग्रेट संजीव कुमार के लिए लिखी गई थी. 

खुंखार विलेन गब्बर (अमजद खान) ने कॉमिक, एक्शन, कैरेक्टर रोल तक किए, लेकिन अमजद खान गब्बर बनकर आज भी खौफ का पर्याय बने हुए हैं. गंदे दांत, हाथ में पट्टा, मुँह से निकलती गंदी गालियों की बजाय थोड़ा नफासत, मुँह ढकने की बजाय मुँह खुला, कोई सर पर पगड़ी नहीं कोई माथे पर टीका नहीं, कुर्ता की बजाय कमीज़ कुलमिलाकर खुंखार डाकू का अब तक का सबसे आधुनिक गेटअप हाथो से तंबाकू मलता हुआ गब्बर उसकी संदिग्ध हँसी फिल्म में कब क्या मोड़ लेगी कोई भी नहीं बता सकता था. -"जब तक तेरे पैर चलेंगे, तब तक उसकी साँस चलेगी, "कितने आदमी थे", "सांभा सरकार ने हम पर कितने का इनाम रखे हैं " तेरा क्या होगा कालिया.." तुम सब को गब्बर के खौफ़ से ग़र कोई बचा सकता है तो सिर्फ गब्बर"..." बहुत याराना लगता है", गब्बर के एक एक डायलॉग मुँह जुबानी याद हैं. एक डायलॉग तो आज भी लोगों को प्रेरित करता है 'जो डर गया समझो अम गया'. अमजद खान ने रियल के एक डाकू का किरदार निभाया था, जो सचमुच लोगों के हाथ काट लेता था.. सिल्वर स्क्रीन पर गब्बर का निभाया गया किरदार अब तक का न भूतो न भविष्यति है. 

धर्मेद्र अपनी अदाकारी में हरफ़नमौला हैं, उन्होंने जो कुछ भी सिल्वर स्क्रीन पर जिया वो कालजयी हो गया... कालजयी शोले फिल्म में खिलंदड़, बेपरवाह युवक, जो ठग है, जो अपनी मस्ती में रहता है, जो दिलफेंक है, न जाने कितनों से शादी करने का ख्वाब देखता है.. आख़िरकार वीरू का दिल बसंती के लिए धड़कता है.. गब्बर, ठाकुर के कैरेक्टर रोल के बाद सबसे सशक्त रोल वीरू का ही है, जो असल में कहानी का नायक सिद्द होता है. उनका किरदार हिन्दी सिनेमा की एक महान धरोहर है. सत्यकाम, अनुपमा, बंदिनी, जैसी दार्शनिक फ़िल्मों के बाद शोले का किरदार उनकी जिंदगी का माइलस्टोन हैै. वीरू के डायलॉग खूब प्रसिद्ध हुए हैं. 'कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊँगा', बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना' धर्मेंद्र की कॉमिक टाइमिंग, उनका बेफ़िक्र अंदाज़.. वीरू की ज़िंदगी में कुछ भी स्थायी नहीं है.. अपने दोस्त जय से खूब प्यार करता है, वहीँ खूब शराब पीता है.. सिर्फ़ इतना ही स्थायी है. ख़ासकर पानी की टंकी पर किया गया उनका अभिनय हिन्दी सिनेमा की यादगार स्मृति है. वो किरदार कॉमेडी से भरपूर है, जो संज़ीदा भी हो जाता है. एक ही फ़िल्म में अपनी भूमिका के साथ कितने बदलाव करने पड़ते हैं, वीरू की भूमिका अभिनय सीख रहे बच्चों के लिए सबक है. 

हेमा  मालिनी अभिनेत्रियों में सभी तरह के रोल जी चुकी हैं, लेकिन गांव की एक सीधी सादी लड़की जो ज़रूरत से ज्यादा बोलने पर अपना नाम बता देती है, फिर भी अपना नाम नहीं बताऊंगी टाइप अभिनय तिस पर जय का पूछना "तुम्हारा नाम क्या है बसंती".. यह डायलॉग बसंती के गंवई अंदाज़ को सत्यापित करता है कि उन्होंने रोल कितना बेहरीन निभाया है.. गांव के अपने अंदाज़ में 'जय राम जी की' बोलना यादगार है. बार - बार क्योंकि बोलना उनके अभिनय में विशेष गहराई ले आता है. 

सवाल उठा था, कि संजीव कुमार, धर्मेंद्र, अमजद खान के बाद अमिताभ बच्चन के रोल की क्या आवश्यकता थी? अमिताभ के रोल की वही ज़रूरत थी, जैसे शरीर में आत्मा की होती है. वीरू के सामने जय का रोल सपोर्टिंग है, लेकिन जय ने अपनी अदाकारी से अपने रोल की सार्थकता सिद्ध की. कई जगह अमिताभ बिना बोले ही अपनी खास भाव - भंगिमाओं से संजीदा मगर कालजयी अभिनय कर दिया.. जय अपने दोस्त वीरू के लिए मौसी से बसंती का हाथ मांगने जाता है, वो रोल आज भी गुदगुदाता है, सपोर्टिंग रोल होते हुए भी अमिताभ बच्चन इस रोल को अपने जीवन की उपलब्धि मानते हैं. पूरी फिल्म में संज़ीदा अभिनय करते हुए अमिताभ की भूमिका में कॉमिक टच भी था.. वो सिनेमैटिक लोग समझते हैं.
जया बच्चन अपनी अदाकारी के लिए ही जानी जाती है, वहीँ शोले में निभाया गया राधा नाम की चंचल लड़की से लेकर विधवा राधा तक का किरदार जय के साथ समाज की संकीर्ण लकीरों को क्रॉस करते हुए प्रेम की भावना सिल्वर स्क्रीन पर जवां होती रही.. एक ही फिल्म में चंचल लड़की से लेकर एक संज़ीदा विधवा महिला के किरदार में जया की अदाकारी नायाब है. फिल्म में जय तो राधा को छोड़कर चला गया, लेकिन समाज में एकाकी जीवन गुज़ार रहीं राधाओ के लिए एक रास्ता खोल दिया. 

फिल्म की कहानी जबरदस्त कॉमिक टाइमिंग, एक्शन मेलोड्रामा है. मौसी की चतुर टिप्पणियों, सूरमा भोपाली के त्रुटिहीन भोपाली लहजे और अंग्रेजो के ज़माने का एक हास्य जेलर के साथ , शोले खूब हंसाती है.. असरानी का छोटा सा मगर बहुत प्रभावी किरदार हिटलर, चार्ली चैप्लिन का साझा मिला जुला कॉकटेल था.. असरानी ने अपनी ज़िन्दगी में एक से बढ़कर एक प्रभावी किरदार किए, लेकिन आलसी, जेलर का किरदार असरानी को हिन्दी सिनेमा में हमेशा याद रखेगा. दरअसल ऐसे सुस्त जेलर रहे होंगे, जो आम लोगों के साथ किरदार जुड़ता चला गया. इनका प्रमुख संवाद 'हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं' , इन्हीं की तर्ज़ पर हिन्दी सिनेमा में खूब रिपीट किया गया, लेकिन वो तिलिस्म ही पैदा नहीं हुआ. जो असरानी ने कमाल कर दिखाया. 

शोले फिल्म का एक - एक संवाद लोगों को मुँह जुबानी याद हैं, लेकिन इसका प्रभाव भी आम जनमानस पर खूब हुआ, कि हमारी लाइफ स्टाइल का हिस्सा बन गई ... शोले फिल्म के बाद यह डायलॉग हर किसी ने बोला होगा जिसके मुँह में जुबान है,  जो डर गया समझो मर गया " सभी कलाकारों की अदाकारी उनका माइलस्टोन है. देखकर ऐसे लगता है जैसे सभी ने अपनी - अपनी ज़िन्दगी का सबसे यादगार रोल किया है. छोटे से किरदार जिससे कालिया और सांभा की भूमिकाएँ भी फिल्म का केंद्र बन गईं.. फिल्म में खलनायक की भूमिका के बाद लोकप्रियता हासिल करने वाले अमजद खान ने साहसी गब्बर सिंह का उपयुक्त किरदार निभाया है. जब भी कभी किसी को भयभीत करना हो, चाहे स्कूल में छोटा सा बच्चा ही क्यों न हो तब हमारे मास्साब के कहने के मुताबिक हम अनुशासित नहीं होते थे, तो मास्साब हमें कहते थे "तेरा क्या होगा कालिया".. कालिया तो शोले का किरदार था, लेकिन कालिया हमारे लाइफस्टाइल का अहम हिस्सा बन गया है. आज भी जब कोई किसी को मज़ाक में छेड़ता है या डर दिखाता है तो यही संवाद बोलता पाया जाता है. इमाम साहब (एके हंगल) फिल्म में भारतीय गंगा - जमुनी तहजीब का उदहारण पेश कर रहे थे... बेटे की मौत हो गई, गांव वालों से पूछते हैं "इतना सन्नाटा क्यों है भाई" ऐसे लगता है यह डायलॉग न होता तो हंगल साहब का रोल निरर्थक हो जाता.. हेलन का तड़का 70s- 80s में मशहूर था, जिस भी फिल्म में होती थोड़ा सा नृत्य करते हुए, पूरी फिल्म का क्रेडिट समेट ले जाती थीं.. शोले फिल्म का आइटम गीत 'महबूबा ओ महबूबा' गीत से हेलन छा गई थीं, इसका पूरा क्रेडिट तो नहीं ले सकीं, क्योंकि शोले सभी की ज़िंदगी का एक प्रसाद थी. 

शोले फिल्म का बजट तीन करोड़ था, लेकिन फिल्म में बहुतेरे प्रयोग किए गए, यहां तक कि क्लाईमैक्स बदला गया...पहले ठाकुर गब्बर को मार देते हैं, लेकिन गवर्नमेंट ने दखल दिया कि रिटायर्ड ही सही कोई भी इंस्पेक्टर किसी अपराधी को ऐसे मारेगा तो समाज में घटिया संदेश जाएगा.. फिर क्लाईमेक्स बदल दिया गया... शोले का एक-एक सीन अमर है. एक - एक सीन पर थीसिस लिखी जा सकती है. जिसमें राधा लालटेन जला रही हैं और जय माउथ आर्गन बजा रहे हैं.. बमुश्किल दो मिनट वाले इस सीन को फिल्माने में 20 दिन का समय लगा था. क्योंकि रोशनी शॉट के हिसाब से नहीं आती थी. 
ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे.. जैसा कालजयी गीत एक महीने में बनकर तैयार हुआ था.. धर्मेंद्र एवं हेमा मालिनी पर फिल्माया गीत "कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है.." देखते सुनते ही बनता है. होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों से रंग मिल जाते हैं'. इस गीत के बिना अब होली ही नहीं होती, बल्कि अब तो ये गीत आम लोगों को याद भी हो गया है. 70s में पंचम दा के संगीत का सिक्का चलता था. एक से बढ़कर एक गीत-संगीत रचा गया. सलीम - जावेद की जोड़ी ने हिन्दी सिनेमा के लिए शोले जैसा महाकाव्य लिख डाला था, जो बहुत हद तक पूरा का पूरा असल ज़िन्दगी का अनुभव था.. पिता-पुत्र सिप्पी फ़िल्मकार की जोड़ी ने कभी यह नहीं सोचा था, कि वो एक कल्ट क्लासिक फ़िल्म बना रहे हैं. सच बोला जाए तो कोई शोले बना भी नहीं सकता.. बस शोले बन जाती हैं...शोले फिल्म हिन्दुस्तानी सिनेमा की आत्मा है.. शोले के फ्रेम से जुड़ा एक एक नाम -सीन, गांव, घोड़ी, नायक, खलनायक, नायिका, मौसी, ठाकुर, सभी अमर है.. जब जब हिन्दी सिनेमा की महानतम फ़िल्मों का शुमार होगा... शोले फिल्म का नाम बड़े आदर सहित लिया जाएगा.. फिल्म मेकिंग में शोले आज मुक्कमल सिलेबस है.. आजतक भी जिसने शोले नहीं देखा तो और वो सिल्वर स्क्रीन से जुड़ा हुआ है तो समझिए उसका सिनेमैटिक जन्म हुआ ही नहीं है.... या यूं कहिए धरती में रहते हुए सूर्य की रोशनी, चाँद की शीतलता, से महरूम है... 

दिलीप कुमार पाठक 


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