सदी के महानायक की महागाथा
दिलीप कुमार पाठक
फ़िल्म समीक्षक /लेखक /पत्रकार
नई दिल्ली
सदी के महानायक की महागाथा
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प्रकाश मेहरा ज़ंजीर बना रहे थे, उन्हें तलाश थी एक दमदार अभिनेता की जो महानतम उस्ताद अजीत साहब और प्राण साहब के सामने टिक सके. प्राण साहब, अजीत जैसे उस्तादों के सामने एक ही फ़्रेम में अभिनय करना किसी भी ऐक्टर के लिए आसान नहीं था. अतः प्रकाश मेहरा 'देवानंद साहब', 'दिलीप साहब', 'राजकुमार' हीमैन 'धर्मेद्र' से फिल्म में काम करने के लिए पूछते हैं, तब ये सारे के सारे महानतम अदाकारा ज़ंजीर में इंस्पेक्टर विजय बनने के लिए राजी नहीं हुए, सारे के सारे उस्ताद मना कर देते हैं. ज़ंजीर कहानी है अंदर ही अंदर ग़ुस्से और विद्रोह से भरे एक ईमानदार युवा पुलिस ऑफ़िसर विजय की जिसे न जाने किसी ज़ंजीर ने जकड़ा हुआ है. प्रकाश मेहरा ने 'बॉम्बे टू गोआ' देखी हुई थी जिसमें अमिताभ बच्चन ने भी एक भूमिका निभाई थी. पहली बार ज़ंजीर फिल्म में पैसा लगा रहे प्रकाश मेहरा ने मन बना लिया था कि इस फ़िल्म में 'अमिताभ बच्चन' को ही लेना है. चर्चा के दौरान रायटर सलीम - जावेद अख्तर ने प्रकाश मेहरा पूछा - "फ़िल्म में ऐक्टर कौन होगा"? क्योंकि उन्होंने सोचा था शायद धर्मेंद्र होंगे. 'प्रकाश मेहरा' ने कहा- "अमिताभ बच्चन' होंगे" तब सलीम - जावेद अख्तर ने कहा - "आपने हमारे दिल की बात कह दी इस फिल्म के लिए अमिताभ बच्चन से अच्छा कोई अभिनेता हो ही नहीं सकता.. जब प्राण साहब को पता चला कि इस फ़िल्म में कोई फ्लॉप नया ऐक्टर है तो उन्होंने शूटिंग होने से जस्ट पहले प्रकाश मेहरा को तलब किया और कहा
-"प्राण नाम है मेरा मेरे सामने कोई दमदार ऐक्टर लेकर आओ" प्रकाश मेहरा ने मनाया कि पहले आपके साथ ही एक सीन कर लेते हैं अगर पसंद नहीं आया तो मैं फिल्म ही बंद कर दूँगा. लेकिन मुझे उम्मीद है कि यह नया अदाकार अपनी एक कभी न भूलने वाली कहानी लिखेगा.. प्राण और अमिताभ बच्चन के बीच के शुरुआती टकराव के उसी सीन को देखकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
ये वही सीन है जब प्राण कहते हैं- इलाके में नए आए हो साहेब, वरना शेरखां को कौन नहीं जानता. और अमिताभ जवाब देते हैं -जब तक बैठने का ना कहा जाए शराफत से खड़े रहो, ये पुलिस स्टेशन है, तुम्हारे बाप का घर नहीं. अमिताभ बच्चन ने अब तक मिले रिजेक्शन आदि की कोफ़्त एक ही सीन में निकाल दी थी.. वो सीन कल्ट बन गई थी.
फिल्म में विजय की तासीर फ़िल्म के शुरुआती सीन में ही समझ में आ जाती है जब सीनियर अधिकारी (इफ़्तेख़ार) इंस्पेक्टर विजय से कहते हैं: - “पुलिस सर्विस में आपको पाँच बरस हो गए जनाब और इन पाँच बरसों में आपके 11 ट्रांसफ़र हुए. मुझे मालूम हुआ है कि आप एक ईमानदार और मेहनती ऑफ़िसर हैं लेकिन आप में एक कमज़ोरी भी है. आप हर मुजरिम को अपना ज़ाती दुश्मन समझने लगते हैं और क़ानून की हिफ़ाज़त करने के लिए कभी-कभी क़ानून के दायरे से बाहर भी निकल जाते हैं.”
पहली ही सीन करने के बाद प्राण प्रकाश मेहरा का हाथ पकड़कर किनारे ले जाते हैं, और कह्ते हैं -"प्रकाश ये लड़का हिन्दी सिनेमा का आने वाला सुपरस्टार है, इसे संभालकर रखो यह तुम्हारे पास एक विरासत है... और वो दिन है और आज का दिन है... पांच दशक से ज़्यादा बीत गया है अमिताभ बच्चन जहां से खड़े हो जाते हैं लाइन वहीँ से शुरू होती है. कहा जाता है कि हिन्दी सिनेमा में एक से दस तक सिर्फ़ और सिर्फ़ अमिताभ बच्चन हैं. 1973 से शुरू हुआ अमिताभ बच्चन के सुपरस्टारडम का वो दौर अब भी कायम है. हिन्दी सिनेमा में स्टारडम के कई दौर आए और गए लेकिन अमिताभ बच्चन का नाम आज भी टॉप पर है. हिन्दी सिनेमा में अमिताभ बच्चन के नाम, शोहरत को देखते हुए दुनिया उन्हें सदी के महानायक के रूप में जानती है. आज भी हिन्दी सिनेमा में
उनके क़द के सामने कोई नहीं है. आज भी वे सिनेमा के सबसे व्यस्त अभिनेताओं में गिने जाते है. शुरुआत में जिस आवाज़ के कारण निर्देशकों ने अमिताभ को अपनी फ़िल्मों से लेने को मना कर दिया था, वही आवाज़ आगे चलकर उनकी विशिष्टता बन गयी. आज अमिताभ बच्चन मिलेनियम ऑफ सुपरस्टार भी कहे जाते हैं. 82 साल के उम्र के इस दौर में उनकी दीवानगी किसी नए रॉकस्टार की तरह मालूम होती है. लगता है अमिताभ बच्चन कोई सिद्ध पुरुष हैं जो सारी की सारी बाध्यताओं को जीत चुके हैं.
हालांकि ज़ंजीर के बाद से सफ़लता की आँधी तो हर किसी ने देखा लेकिन दुनिया अमिताभ बच्चन के उस संघर्ष को उतना नहीं जानती जिसे जानना चाहिए. अमिताभ बच्चन एक नकार दिए गए आर्टिस्ट के संघर्ष से सफ़लता तक के उस दौर की कहानी है. अमिताभ बच्चन देश के प्रसिद्ध कवि श्री हरिवंशराय बच्चन के पुत्र हैं, उन्हें पता था एक वटवृक्ष के नीचे कोई दूसरा वृक्ष पनप ही नहीं सकता. अतः अमिताभ बच्चन ने पिता से हटकर अपना नया रास्ता अख्तियार कर लिया. 20 साल की उम्र में अभिनय की दुनिया में अपना कैरियर आजमाने के लिए कोलकता की एक शिपिंग फर्म 'बर्ड एंड कंपनी' में किराया ब्रोकर की नौकरी छोड़ दी. मुंबई जाने से पहले अमिताभ बच्चन ने 1963 और 1968 के बीच साढ़े पाँच साल कलकत्ता आदि में काफ़ी संघर्ष किया. इसी बीच उन्होंने प्राइवेट कंपनियों में एक़्ज़ीक्यूटिव के रूप में काम किया नौकरी वे दिल लगाकर करते थे, लेकिन साथ ही थिएटर, सिनेमा की दीवानगी भी परवान चढती रही. अमिताभ का कलकत्ता प्रवास नियति ने शायद उनकी अभिनय प्रतिभा निखारने के लिए ही रचा था, वैसे भी कोलकाता तो अभिनय, रंगमंच के लिए कमाल की जगह है.
नौकरी छोड़ने के बाद अभिनय में अमिताभ के रुझान को देखते हुए उनके छोटे भाई अजिताभ ने उनकी एक तस्वीर 'फ़िल्मफ़ेयर- माधुरी टेलेन्ट कॉन्टेस्ट' में भेज दी.. इस प्रतियोगिता के विजेता को 2500 रुपए और हिंदी फ़िल्म में काम करने का मौक़ा मिलना था, लेकिन तब तक अमिताभ का समय नहीं आया था, इसलिए उनको नहीं चुना गया. उस साल संजय और फ़िरोज़ ख़ान के भाई समीर ने वो कॉन्टेस्ट जीता. इससे पहले यह कॉन्टेस्ट राजेश खन्ना, धर्मेंद्र जीत चुके थे, इसको भी एक विडंबना ही कहा जाएगा कि अपनी आवाज़ का लोहा मनवाने वाले अमिताभ को आकाशवाणी ने 'स्वर परीक्षा' में फ़ेल कर दिया गया था. आज भले ही अमिताभ बच्चन एकवट वृक्ष की भांति दिखते हों लेकिन उनके संघर्ष की जड़ें काफी गहरी हैं. हालांकि तब आसान नहीं रहा होगा. अमिताभ बच्चन को अपनी फिल्म तो मिली जो सावन कुमार मिर्ज़ा ग़ालिब पर बनाना चाहते थे, अमिताभ का नाम भी तय हो गया था, लेकिन अमिताभ बच्चन की लम्बाई के कारण उन्हें फ़िल्म से हाथ धोना पड़ा क्योंकि मिर्ज़ा ग़ालिब का कद छोटा था. ऑल इंडिया रेडियो से रिजेक्शन झेलने के बाद मुंबई में अथक संघर्ष के बाद कई फ़िल्में हाथ से निकलती जा रहीं थीं. दूर के रिश्तेदार सुनील दत्त की सिफारिश पर निर्देशक बी आर चोपड़ा अमिताभ का स्क्रीन टेस्ट टेस्ट लेने के लिए राजी हो गए, तब अमिताभ की लाइन कुछ इस तरह थीं... "तुम जब भी मुझे यूँ देखती हो मैं सब भूल जाता हूँ, क्या हूँ कहाँ हूँ कुछ समझ में नहीं आता". लेकिन अमिताभ को बुलावा फिर भी नहीं आया. हाँ, 'ज़ंजीर' फ़िल्म रिलीज़ हो जाने के बाद ज़रूर उन्होंने अमिताभ को अपनी फ़िल्म 'ज़मीर' में साइन किया. उन्हीं दिनों अमिताभ मशहूर फ़िल्म निर्माता ताराचंद बड़जात्या से भी मिलने गए. लेकिन वहाँ भी बात बनी नहीं. बड़जात्या ने उनसे कहा, "तुम बहुत लंबे हो. तुम्हें अपने पिता का पेशा अपनाना चाहिए. तुम उनकी तरह एक अच्छे कवि बन सकते हो. कुछ सालों बाद इन्हीं बड़जात्या ने अमिताभ को अपनी फ़िल्म 'सौदागर' में बतौर हीरो साइन किया. शुरुआत में अमिताभ बच्चन की फ़िल्में नहीं चलीं लेकिन उनकी प्रतिभा, अदाकारी प्रभावित कर रही थी, अन्यथा 12 फ्लॉप फ़िल्मों के बाद फ़िल्में मिलती .. हो ही नहीं सकता था.
आनन्द फिल्म में अमिताभ बच्चन की अदाकारी अपने आप में नायाब रही है, लेकिन उनकी अदाकारी राजेश खन्ना के सामने दब गई थी. उन्हें फ़िल्म में वो मुकाम नहीं मिला जो राजेश खन्ना को मिला हालांकि इस फिल्म के बाद अमिताभ की चर्चाएं हिन्दी सिनेमा में आम हो गईं थीं. वहीँ ज़ंजीर के बाद तो अमिताभ बच्चन ने हिन्दी को उलट- पलट कर रख दिया. कहा जाता है कि उस दौर में अमिताभ बच्चन के सामने कोई भी टिक नहीं सका. आज़ादी के बाद भारत के सपने कुछ और थे, जब वे पूरे नहीं हुए, न्याय आम आदमी से बहुत दूर हो चला था तब अमिताभ बच्चन आम लोगों की आवाज़ बनकर उभरे. अमिताभ बदला लेते हुए दिखते थे, आज भले ही उन कमर्शियल फ़िल्मों की आलोचना की जाए लेकिन वे फ़िल्में आम आदमी के अंदर की तड़प, उस शोषण के विरुद्ध एक आवाज़ थी, जिसे हिन्दुस्तान के सिने प्रेमियों ने हाथो हाथ लिया.
अमिताभ बच्चन की तुलना हमेशा विनोद खन्ना से होती रही है, लेकिन यह सच है कि विनोद खन्ना कभी भी अमिताभ बच्चन की तरह हरफ़नमौला अदाकार नहीं थे. कुछ फ़िल्मों में शत्रुघ्न सिन्हा भी अमिताभ के साथ दमदार अदाकारी कर चुके हैं, लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, जितेन्द्र,.. आदि अमिताभ बच्चन की तरह हर जॉनर की फ़िल्में करने पर सहज नहीं थे.
विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, चुपके - चुपके, सत्ते पे सत्ता, एंथनी, अभिमान, वाला रोल नहीं कर सकते थे, हालांकि विनोद खन्ना वाली अमर जैसी भूमिका निभाने में अमिताभ बच्चन का कोई सानी नहीं है. अमिताभ बच्चन अपने शुरुआती दौर में एंग्री यंगमैन ज़रूर कहे गए हैं, लेकिन अमिताभ उस दौर में भी विविधतापूर्ण अदाकारी करते थे.. कालिया जैसी फिल्म में पहले गांव के सीधे सादे लड़के के किरदार में जब अचानक किरदार परिवर्तित होता तो अमिताभ जेल में कहते हैं -"हम वो हैं जो कभी किसी के पीछे नहीं खड़े होते, जहां से खड़े होते हैं लाइन वहीँ से शुरू होती है".... इस तरह से रोल में बदलाव और खुद को फिट करना अमिताभ बच्चन के अलावा हर किसी के बस की बात नहीं थी. वहीँ दमदार ऐक्टर प्राण साहब से कहते हैं - "आपने जेल की दीवारों और जंजीरों का लोहा देखा है, जेलर साहब...कालिया की हिम्मत का फौलाद नहीं देखा है. ये संवाद अमिताभ बच्चन की दमदार अदाकारी की गवाही देते हैं. प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, रमेश सिप्पी, जैसे विशुद्ध व्यपारिक फ़िल्में बनाने वालों के पसंदीदा ऐक्टर
"डाॅन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है", "डॉन को भला कौन भूल सकता है"..‘डाॅन जख्मी है, तो क्या...? फिर भी डाॅन है"..." रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं, नाम है शहंशाह" ," तुम लोग मुझे वहां ढूंढ रहे थे, और मैं तुम्हारा यहां इंतजार कर रहा हूं"..."मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता". "जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे बाप को चोर कहा था..पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ, जिसने मेरी मां को गाली देकर नौकरी से निकाल दिया था. पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पर ये लिख दिया था. उसके बाद, मेरे भाई, तुम जहां कहोगे, मैं वहां साइन कर दूंगा". "ये मेरा उसूल है मैं हमेशा घर में घुसकर मारता हूं". अपनी संवाद अदायगी से आग बरसाने वाले अमिताभ बच्चन हृषीकेश मुखर्जी जैसे क्लासिकल फ़िल्मकार के भी पसंदीदा ऐक्टर रहे हैं. अन्यथा ऐसे ऐक्टर बिरले होते हैं जो हर तरह की फ़िल्में करें. एंग्री यंग मैन 'की छवि के बीज ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'नमकहराम' के दौरान ही बोए गए थे. ऋषिकेश मुखर्जी का मानना था कि उन्होंने 'आनंद' में अमिताभ को निर्देशित करने के दौरान ही उनकी ऑन स्क्रीन प्रेज़ेन्स को भाँप लिया था. उन्होंने एक बार कहा था, "मुझे अंदाज़ा हो गया था कि उनमें सिर्फ़ एक निगाह और अपनी आवाज़ भर से अपनी भूमिका को ताकतवर बना देने की ग़ज़ब की क्षमता थी. यही वजह थी कि मैंने उन्हें 'नमकहराम' में एंग्री यंगमैन की भूमिका दी थी."
फिल्म ‘आनंद’, ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’ में भी अमिताभ एक क्लासिकल अदाकार के रूप में दिखते हैं. खुद अमिताभ बच्चन भी मानते हैं कि बतौर अभिनेता जो संतुष्टि हृषीकेश दा के साथ हुई वो व्यापारिक फ़िल्मों में नहीं हुई. बतौर अभिनेता हृषीकेश मुखर्जी के साथ जुड़ना मेरे लिए वरदान सिद्ध हुआ, जो मैं सरोकार, क्लासिकल सिनेमा के साथ जुड़ पाया. आज यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आनंद’, ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’ में भी अमिताभ ही थे, जो एंग्री यंग मैन के रूप में विख्यात थे.
ये क्लासिकल फिल्में उथल-पुथल से भरे सत्तर के दशक में बन रही थी. हालांकि खुद मुखर्जी अमिताभ की ‘स्टारडम’ की छवि से खुश नहीं थे. वे कहते थे - "मसाला फिल्मों के निर्देशकों ने अमिताभ को ‘स्टंटमैन’ बना दिया है. जबकि इसके पास अदाकारी का वो हर रंग मौजूद है, जो पर्दे पर आना बांकी है".
असल में, साफ-सुथरी और सहज शैली उनके फिल्मों की विशेषता थी, जो मारधाड़, हिंसा से कोसो दूर रही. परिवार और घर इन फिल्मों के केंद्र में है. ये ऋषिकेश मुखर्जी ही थे जो अमिताभ को शास्त्रीय संगीत प्रेमी के रूप में परदे पर लाने का हौसला रखते थे. 70 के दशक में बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में मध्यवर्ग को संबोधित करती है. ‘चुपके-चुपके’, ‘गोल माल’, में हास्य के साथ मध्यवर्गीय ताने-बाने, ड्रामा को जिस खूबसूरती से उन्होंने रचा है, वह पचास वर्ष बाद भी विभिन्न उम्र से दर्शकों का मनोरंजन करती है. बिना ताम-झाम के कहानी कहने की सहज शैली, सामाजिकता और नैतिकता का ताना-बाना उन्हें समकालीन अभिनेताओं से अलग करता है.
कहा जाता है कि अमिताभ बच्चन दिमाग के व्यक्ति हैं. हमेशा उन्होंने दिमाग से निर्णय लिए कभी भी भावुकता में कोई कदम नहीं उठाया, यही कारण है कि उनकी सफ़लता अपने आप में बेमिसाल है. अमिताभ की सिनेमाई यात्रा उनके अथक मेहनत, समर्पण, के कारण है. अमिताभ बच्चन ने जब अपनी पहली पारी विविध - विविध फ़िल्मों की लाइन लगा दी थी. दिलीप साहब , देवानंद साहब, राज कपूर साहब, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र जैसी लीक पर खड़े हुए थे, और अपनी पीढ़ी के सारे के सारे अभिनेताओं से बहुत दूर जा चुके थे. जब अमिताभ बच्चन को आभास हुआ कि अब यह दौर मेरा नहीं है, तब अमिताभ बच्चन ने स्वीकार कर लिया था कि यह दौर मिथुन चक्रवर्ती, अनिल कपूर जैसे नए अभिनेताओं का है. तब ही अमिताभ बच्चन ने बिजनैस में हाथ आजमाया और दिवालिया हो गए. अमिताभ बच्चन ने जिस परिस्थिति में वापसी की वहाँ से लौटने के लिए हिम्मत चाहिए. बिजनैस में असफल होने के बाद अमिताभ ने अपनी ताकत अभिनय पर हाथ आज़माया, खुद ही पहुंच गए यश चोपड़ा के पास... कि मुझे फिल्म में काम दीजिए...यश चोपड़ा ने अमिताभ बच्चन को मुहब्बतें में कैरेक्टर रोल दे दिया, और अमिताभ बच्चन ने उस फिल्म से ऐसा कमबैक किया कि अमिताभ बच्चन की बतौर हीरो दूसरी पारी पूरी हिन्दी सिनेमा के लिए एक उदहारण है, कि कभी भी हार नहीं मानना चाहिए. एक फ़िल्म समीक्षक के नजरिये से देखा जाए तो अमिताभ बच्चन की दूसरी पारी पहली पारी की अपेक्षा ज़्यादा प्रभावी है. 60 - 70 की उम्र के बाद अधिकांश अदाकार या फ़िल्मों से दूरी बना लेते हैं, या घर बैठ जाते हैं.
लेकिन अमिताभ बच्चन ने सन 2000 के बाद कभी न भुलाया जाने वाला अध्याय लिख डाला. 2000 के बाद कैरेक्टर रोल करते हुए अमिताभ बच्चन ने कई फिल्मफेयर, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते.. पा, पीकू, पिंक, बदला, ब्लैक, कभी अलविदा न कहना, चीनीकम, खाकी, भूतनाथ, आरक्षण, सत्याग्रह, बोल बच्चन, चेहरे, झुंड, रनवे, घूमर, ब्रह्मास्त्र, 102 नॉटऑउट जैसी कालजयी फ़िल्में हिन्दुस्तानी सिनेमा का हासिल है. अभी 82 साल की उम्र में कल्कि फिल्म में अमिताभ अपनी अदाकारी से नए दौर के सारे अदाकरों पर भारी पड़े हैं.. अमिताभ बच्चन के अन्दर काम करने की भूख अद्भुत है, बढ़ती हुई उम्र के साथ उनके सीखने प्रयोग करने की ललक अपने आप में एक क्लास है. अमिताभ बच्चन किसी भी तुलना, किसी भी अदाकारी, किसी भी लकीर से उस पार खड़े दिखाई देते हैं.. अमिताभ बच्चन की सिनेमाई यात्रा सिनेमैटिक दुनिया से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लिए एक सबक है. अमिताभ बच्चन के अंदर अदाकारी के सारे वो रंग मौजूद हैं, जो उन्हें दुनिया का महानतम अदाकार सिद्ध करते हैं. अमिताभ बच्चन की निजी ज़िन्दगी में बहुत कुछ लिखा जाता है, लिखा जाना चाहिए या नहीं यह तो लिखने वाले ही बता सकते हैं, लेकिन यह तय है कि जब हिन्दुस्तानी सिनेमा का इतिहास लिखा जाएगा तो अमिताभ बच्चन अपनी तरह के अद्वितीय अदाकार अपनी लीक पर अलग खड़े दिखाई देंगे. अमिताभ बच्चन की ज़िन्दगी एक खुली किताब है, उनकी निजी ज़िन्दगी भी पब्लिक डोमेन है. ज़्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है, लेकिन अमिताभ बच्चन के जन्म पर उनके पिता प्रसिद्ध कवि श्री हरिवंशराय बच्चन की लिखी गई पंक्तियाँ आज भी अमिताभ बच्चन की शख्सियत की गवाही देती हैं..
फुल्ल कमल,
गोद नवल,
मोद नवल,
गेहूं में विनोद नवल
बाल नवल,
लाल नवल,
दीपक में ज्वाल नवल।
दूध नवल,
पूत नवल,
वंश में विभूति नवल।
नवल दृश्य,
नवल दृष्टि,
जीवन का नव भविष्य,
जीवन की नवल सृष्टि
आज पीछे मुड़कर देखें तो उस दौरान लिखी गईं पंक्तियाँ दर्पण की तरह स्पष्ट दिखाई दे रही हैं.
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