'वीके मूर्ति हिन्दी सिनेमा की आँखे'
'वीके मूर्ति हिन्दी सिनेमा की आँखे'
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हिन्दी सिनेमा में हमेशा हम नायक, नायिकाओं, गायक, गीतकारों, संगीतकारों, आदि का जिक्र करते हैं, लेकिन हम फिल्मी हस्तियों के बीच हमेशा तकनीकी लोगों को भूल जाते हैं. ऐसे ही हिन्दी सिनेमा के एक नायाब कैमरामैन 'वीके मूर्ति' हुए हैं, जो गुरुदत्त साहब की टीम का अभिन्न हिस्सा थे. गुरुदत्त साहब ने एक से बढ़कर एक नगीने हिन्दी सिनेमा के मुकुट में जड़ें हैं, हालांकि हिन्दी के प्रारंभिक दौर को गोल्डन एरा कहा जाता है ,और उसी को हिन्दी सिनेमा का आदर्शकाल कहा जाता है. आदर्श दौर कहने का कारण यह भी है कि आज सोशल मीडिया के दौर में भले ही प्रमुख तकनीकी लोग गुमनाम हों, लेकिन उस दौर में कैमरामैन वी.के. मूर्ति जैसे प्रतिभाशाली लोग खूब मकबूलियत हासिल करते हुए पहिचाने जाते थे. सभी का अपना - अपना मुकाम होता था.
अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए 'वीके मूर्ति' महान फ़िल्में जैसे 'जाल', 'प्यासा'. 'काग़ज़ के फूल', 'साहिब, बीबी और ग़ुलाम', 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' और 'सीआईडी' आदि फ़िल्मों में कैमरे का प्रदर्शन किया जिसके लिए उनको खूब सराहा गया था. स्वतंत्र कैमरामैन के रूप में वी. के. मूर्ति को अपनी पहली फ़िल्म 1952 में गुरुदत्त साहब के साथ 'जाल' में काम मिला था. अधिकांश' वीके मूर्ति साहब' को गुरुदत्त साहब के साथ याद किया जाता है. वेंकटरामा पंडित कृष्णमूर्ति उर्फ 'वीके मूर्ति' का 26 नवम्बर, 1923 को मैसूर, कर्नाटक हुआ था. आम तौर पर कोई भी सिने जगत में जाता है तो अव्वल सभी का एक ही ख्वाब होता है, कि हीरो बनूँगा. हालाँकि नियति भी होती है. उदाहरणार्थ प्राण साहब पहले सिनेमेटोग्राफर बनना चाहते थे, लेकिन नियति ने उनको अदाकार बना दिया था, ऐसे ही 'वीके मूर्ति' भी ठीक हीरो बनना चाहते थे, लेकिन नियति ने उनको सिनेमेटोग्राफर बना दिया. असल जीवन में सभी को संघर्ष करना पड़ता है. अतः 'वीके मूर्ति' ने भी अपनी ज़िन्दगी के हिस्से का संघर्ष किया. जैसा कि आम तौर पर होता है, उन्हें किसी भी तरह का कोई उत्साहवर्धन नहीं मिला. 'वीके मूर्ति' ने भी अथक प्रयास किया था, और वे वापस घर आ गये. बाद में 'वीके मूर्ति' मैसूर के दीवान, विश्वेश्वरैया द्वारा स्थापित 'बैंगलोर इंस्टीट्यूट' से जुड़ गये. यहाँ इन्होंने सिनेमाटोग्राफी की शिक्षा ली, एवं कैमरे की बारीकियों को सीखा, और डिप्लोमा लिया.
बाद में विश्वेश्वरैया का इंस्टीट्यूट छोड देने के बाद भी वायलिन वादक की उनकी ट्रेनिंग ने मूर्ति को फ़िल्मों में काम दिलाने में मदद की. एक कैमरामैन के रूप में उन्हें पहला मौका सिनेमाटोग्राफर द्रोणाचार्य के सहायक की तरह काम करते हुये मिला. हॉलीवुड की फ़िल्मों में लाइट और छाया के कलात्मक प्रयोगों से प्रेरणा लेते हुये वी. के. मूर्ति ने भारतीय फ़िल्मों में भी कई प्रयोग किए थे. वी. के. मूर्ति फली मिस्त्री की कला से भी ख़ासे प्रभावित हुए थे. लाइट के सोर्सिंग का निश्चित फ़्रेमों ओर जीवंत प्रारूपों में प्रयोग और इन पर ख़ास फ़ोकस भारतीय सिनेमा को मिस्त्री की अनमोल देन है. इन्होंने 'आरजू' और 'उडऩ खटोला' जैसी फ़िल्मों में मिस्त्री के सहायक की तरह काम किया और लाइट -बिंबों के साथ नए - नए सफल प्रयोग किए थे.
आज के दौर में 'वीके मूर्ति' को कम ही लोग जानते होंगे, लेकिन मूर्ति साहब सिने जगत में एक जाना-पहचाना नाम है. कुछ तो आज के सिने प्रेमी भी उनके नाम से वाकिफ होंगे. 'वीके मूर्ति' हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध सिनेमेटोग्राफ़र रहे हैं. एक कैमरामैन के रूप में 'वीके मूर्ति' ने बहुत नाम कमाया है. उनकी ख्याति भी खूब है . उनके कैमरे का जादू मुस्कुराते होठों की उदासी, आँखों के काले घेरों की स्याह नमी, गुलाबी सर्दियों की गुनगुनाती गर्माहट और किताबों में छुपी चिठ्ठियों से उठती प्रेम की खुशबू आदि सब कुछ कैद करते थे. 'वीके मूर्ति' कला और तकनीक के अद्वितीय, सम्मिश्रण हिन्दी सिनेमा में प्रकाश और छाया के अतुलनीय प्रयोगों का नाम 'वीके मूर्ति' है. वे अभिनेता -निर्देशक, निर्माता, एडिटर, लेखक गुरुदत्त साहब की टीम के साथ जुड़े थे. 'प्यासा', 'काग़ज़ के फूल', 'चौंदहवीं का चांद' और 'साहब बीबी और ग़ुलाम' जैसी गुरुदत्त की ब्लैक ऐंड वाइट फ़िल्मों में उन्होंने लाइट और कैमरे से चमत्कार उत्पन्न करके दर्शकों का मन मोह लिया था. बहुत कम लोगों को सिनेमा का सबसे बड़ा सम्मान दादा साहब फाल्के अवॉर्ड मिलता है.' वीके मूर्ति' देश के पहले सिनेमेटोग्राफ़र थे, जिन्हें यह इस सम्मान से सम्मानित किया गया था.
सिनेमाटोग्राफर के रूप में 'वीके मूर्ति' की पहली फ़िल्म 1952 में गुरुदत्त साहब के साथ 'जाल' रही थी. गुरुदत्त साहब बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म 'बाजी' बना रहे थे, 'वीके मूर्ति' मुंबई के प्रसिद्ध स्टूडियो में सहयोगी थे. 'वीके मूर्ति' ने उन्हें कई शॉट्स के दौरान सुझाव दिए तो गुरुदत्त साहब ने उनसे शॉट लेने के लिए कहा, इस तरह मूर्ति को गुरुदत्त साहब की पहली फ़िल्म में मौका मिला. उनकी कलात्मकता, तकनीकी गुणवत्ता और प्रभावी प्रयोगों की क्षमता ने गुरुदत्त साहब का दिल जीत लिया. इसके बाद मूर्ति ने गुरुदत्त साहब की लगभग सभी फ़िल्मों में काम किया, एवं गुरुदत्त साहब की टीम का हिस्सा बन गए थे. अंत तक दोनों लोगो का साथ बना रहा. 'काग़ज़ के फूल' और 'साहिब, बीबी और ग़ुलाम' जैसी कल्ट फ़िल्में विस्तृत फ़्रेमों एवं लाइट के बहुप्रयोगों के साथ अद्वितीय सिद्ध हुईं. जिनमें लाइट एवं छाया के प्रयोग कहानी का हिस्सा समझ आते हैं. दोनों फ़िल्मों ने 1959 और 1962 में वी के मूर्ति को 'सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफ़र' का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' दिलवाया था.
प्रयोगवादी सिनेमाटोग्राफ़र हमेशा नए प्रयोग वाले मूर्ति साहब ने भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म 'काग़ज़ के फूल' में काम किया था. अपनी एक योजना के तहत उन्होंने स्टूडियो की छत के एक हिस्से को हटा दिया, जिससे नेचुरल लाइट अंदर आ सके. इस तरह फ़िल्म का गाना 'वक्त ने किया क्या हंसी सितम....' शूट हुआ. 'चौहदवी का चांद' में रंगों के विभिन्न प्रयोगों का सफल प्रयास 'वीके मूर्ति' ने किया. यहाँ भी मूर्ति ने लाइट एवं रंगों का विभिन्न तापक्रम पर उपयोग किया. इनकी अन्य ध्यान आकर्षण करने वाली फ़िल्मों में शामिल हैं- राज खोसला की थ्रीलर फ़िल्म 'सीआईडी' और श्याम बेनेगल की फ़िल्में 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' एवं 'तमस' फ़िल्म इंडस्ट्री के पहले ऐसे कैमरामैन, जिन्हें 2008 में पहली बार जब 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' देने की घोषणा की गई तो 'वीके मूर्ति' की आँखें बरबस भीगी हुई थीं, क्योंकि पहली बार किसी कैमरामैन के रचनात्मक योगदान का सही अर्थों में मूल्यांकन किया गया था. सिनेमा सृजन में निर्माण, लेखन, निर्देशन, अभिनय, संपादन और संगीत आदि को ही शायद ही असल में माना जाता रहा, लेकिन सिनेमेटोग्राफ़ी की अद्भुत कला को 'वीके मूर्ति' के माध्यम से सम्मान दिया गया.
छह दशक तक अपनी कलात्मक तकनीकी प्रतिभा से हिन्दी सिनेमा को उर्वर बनाने वाले 'वीके मूर्ति' के अनुसार- "समय के साथ लोगों की पसंद और सिनेमा का स्तर भी बदल गया है. भारतीय सिनेमा के सौ बरस के सुनहरे सफर में तकनीशियनों की भूमिका धीरे-धीरे कम से कमतर होती जा रही है. अब फ़िल्मों में मेरे जैसे तकनीशियनों की जगह आधुनिक मशीनों ने ले ली है. जनरुचि बदल गई है और इसी के हिसाब से सिनेमा का सृजन हो रहा है".
दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित 'वीके मूर्ति' का 7 अप्रैल , 2014 को निधन हो गया. 'वी के मूर्ति' गुरुदत्त साहब की 'प्यासा' और 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' जैसी फ़िल्मों में कैमरे के काम के लिए प्रसिद्ध थे. वी. के. मूर्ति की भतीजी नलिनी वासुदेव के अनुसार, 'इनका बेंगलुरु अपने शंकरपुरम आवास पर सुबह निधन हो गया था . उन्हें केवल उम्र संबंधी परेशानियां थीं'. इस प्रसिद्ध सिनेमेटॉग्राफर के परिवार में उनकी बेटी छाया मूर्ति हैं. ख़ास बात यह है कि मूर्ति भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से पुरस्कृत पहले टेक्निशन थे. मूर्ति साहब को आज भी गुरुदत्त साहब के कारण जाना जाता है. उनसे गुरुदत्त साहब के बारे में पूछा तो वो कहते हैं -
मुझे जल्द कोई कलाकार प्रभावित नहीं करता, लेकिन आमिर काबिले तारीफ है, उनकी अदाकारी बहुमुखी है, लगान एवं "तारे जमी पर" जैसी फ़िल्मों को क्लासिकल कल्ट फिल्म कहा जा सकता है. बिना बॉलीवुड फॉर्मूले कड़ी मेहनत के दम पर फ़िल्में बनाने एवं किरदारों को जीने में सिनेमा में डूबते देखकर मुझे हमेशा गुरुदत्त साहब याद आते हैं. अगर गुरुदत्त साहब के जीवन पर फिल्म बनती है तो केवल और केवल आमिर खान ही उनकी शख्सियत के साथ न्याय कर सकते हैं. यूँ तो गुरुदत्त साहब एक प्रतिभा का समुन्दर थे, लेकिन उनके बहुत करीब रहा हूं, तो थोड़ा बहुत उनकी महान सिनेमैटिक समझ से वाकिफ़ हूं. गुरुदत्त साहब को पर्दे पर केवल और केवल आमिर उतार सकते हैं". गुरुदत्त साहब का मूर्ति के साथ इतना घनिष्ठ संबंध था, कि जब तक गुरुदत्त साहब जिवित थे, तब तक मूर्ति साहब ने गुरुदत्त साहब के अलावा किसी के साथ काम ही नहीं किया. अतः गुरुदत्त साहब के साथ खूब सराहे गए. मूर्ति ने कहा -
"गुरुदत्त साहब की सिनेमाई समझ एक गूढ़ आसमान है, जो दिखता तो है लेकिन इसका छोर समझ नहीं आता. उस समय के और आज के फ़िल्मकार गुरुदत्त साहब के नजदीक पहुंचना तो दूर है, उस स्तर को समझ ही नहीं सकते. उनकी सिनेमा की समझ कमाल, अद्वितीय थी. आज सिनेमा भले ही वैश्विक स्तर पर पहुंच गया हो, लेकिन गुरुदत्त साहब के स्तर तक आज भी कोई पहुंच नहीं सकता, न सिनेमा को दूसरा गुरुदत्त मिला है न मिलेगा. जैसे सूर्य एक है, प्रथ्वी एक है, ऐसे ही गुरुदत्त साहब भी एक ही थे. मैंने उनके निधन के बाद 35 साल बाद तक अनवरत काम किया, लेकिन मुझे आज भी उनकी फ़िल्मों के कारण जाना जाता है. कहते हैं प्रतिभा अपना मुकाम हासिल कर ही लेती है, भले ही देर से क्यों न हो. आज भले ही 'वीके मूर्ति' इस दुनिया में नहीं है, लेकिन वो अपनी महान कलाकारी, के साथ जीवित रहेंगे. अपने जीवन काल में ही अपनी विधा में किंवदन्ती बन चुके 'वीके मूर्ति' हमेशा से ही फोटोग्राफी सीखने वालों की प्रेरणा बने रहेंगे. वैसे भी आज के बच्चों के लिए उनका जीवन एक उदहारण है. हिन्दी सिनेमा की पारखी नज़र को मेरा सलाम.....
दिलीप कुमार पाठक
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