"सुरों के दुनिया की मल्लिका "शमशाद बेगम"

"सुरों के दुनिया की मल्लिका "शमशाद बेगम"


क दौर था, जब  बहुत कम महिलाएं अपने ख्वाबों की ताबीर मुकम्मल कर पाती थीं. भारत की आज़ादी के दौर में ल़डकियों के लिए भविष्य निर्माण जैसा कुछ नहीं होता था. केवल और केवल एक ही सपना ज़बर्दस्ती दिखाया जाता था, घर संभालना!! शमशाद बेगम आज़ादी के साल ही पार्श्वगायन की दुनिया में आईं थीं, यकीनन उनके लिए यह सफ़र आसान नहीं रहा होगा.गाने गाना, गुनगुनाना, शमशाद को बहुत पसंद था. शमशाद के अंदर एक गायिका छिपी हुई है, उनकी गायिकी की प्रतिभा को सबसे पहले उनके स्कूल क अध्यापक ने पहचाना और उन्हें कक्षा की प्रार्थना के लिए मुख्य गायिका बना दिया. 
 लेकिन पुरानी सोच वाले अपने परिवार की वजह से उन्हें अपनी ख्वाहिशें मन में ही दबाए रखनी पड़ीं. दरअसल पुरानी सोच कहना थोड़ा अटपटा है, क्योंकि यह वाक्या आज़दी
 से पहले के भारत की है, जहां अधिकांश लोगों की सोच ऐसी थी. शमशाद का सितारा बुलन्द होना था, अतः उनके चाचा जिन्होंने उनके पिता को उन्हें गाने देने के लिए मना लिया, लेकिन एक शर्त के साथ कि वह बुर्क पहन कर गाएंगी और अपनी तस्वीर नहीं खिंचवाएंगी. रिकार्डिंग कंपनी जेनोफोन के साथ करार होने पर 6 दिसंबर 1947 को पहली बार लाहौर के पेशावर रेडियो पर उन्होंने अपनी आवाज का जादू बिखेरा. बाद में उन्होंने 'दिल्लीज क्राउन इंपीरियल थियेट्रिकल कंपनी ऑफ परर्फामिंग आर्ट्स' के तहत ऑल इंडिया रेडियो के लिए भी गीत गाए. 

शमशाद बेगम का जन्म आज ही के दिन 14 अप्रैल, सन 1919 को पंजाब राज्य के अमृतसर में हुआ था. शमशाद बेगम की आवाज़ गायिका के रूप में लाहौर के पेशावर रेडियो के ज़रिए 16 दिसम्बर, 1947 को पहली बार दुनिया के सामने आई. उनकी आवाज़ में अलग ही इकहरापन का जादू था. शमशाद बेगम की आवाज़ में अलग ही कसक ने गीतों - गायिकी की दुनिया में अपनी आवाज़ के लिए पहिचानी गईं. शमशाद बेगम अपने समय में सबसे ज्यादा फीस पाने वाली गायिका थीं. उस समय में शमशाद बेगम को हर गीत गाने पर पन्द्रह रुपए मिलते थे. शमशाद बेगम, की गायिकी कभी पुरानी नहीं होगी. उनके द्वारा गाए गीत आज भी लोग गुनगुनाते हैं. शमशाद बेगम हिन्दी सिनेमा में महिला गायिकी की अग्रदूदूतों में से एक रही हैं. उनके समकालीन, सुरैया, गीता दत्त, नूरजहां आदि महान गायिका - गायिकी की दुनिया में प्रमुख थीं. लता मंगेशकर, आशा भोसले आदि बहुत बाद में आईं. शमशाद बेगम लता, आशा के दौर में भी अपने चरण पर थीं, क्योंकि शमशाद जिस शैली की गायिका थीं, दूसरा कोई भी नहीं था. हालाँकि आज के दौर में उनसे प्रेरित होकर  उनकी ही स्टाइल में गाने वाली बहुत सारी गायिकाओं को देखा जा सकता है. 

पार्श्वगायन में शमशाद बेगम को प्रतिभा प्रदर्शन के लिए मौका देने वाले महान संगीतकार ओ.पी नैय्यर उन्हें ‘टेंपल बेल’ कहकर संबोधित करते थे. नैय्यर शमशाद की आवाज़ की तुलना मंदिर में बजने वाली घंटियों की आवाज़ से करते थे. शमशाद की गायन शैली पूरी तरह मौलिक थी. कहते हैं कि उस दौर में प्रत्येक अदाकार केएल सहगल बनना चाहता था. प्रत्येक गायक केएल सहगल बनना चाहता था. सहगल साहब की दीवानगी सिर चढ़कर बोलती थी. शमशाद बेगम भी केएल सहगल की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं. फ़िल्में देखना और गीत सुनना उन्हें बहुत पसन्द था. सहगल साहब का इतना असर था, कि उन्होंने फ़िल्म 'देवदास' चौदह बार देखी थी. 

शमशाद बेगम ने महान संगीतकार नौशाद अली एवं ओपी नैय्यर का ध्यान अपनी ओर खींच लिया था. इन्होंने फ़िल्मों में पार्श्वगायिका के रूप में इन्हें गायन का मौका दिया. इसके बाद तो शमशाद बेगम ने अपनी गायिकी से खुद को स्थापित कर दिया था. 1947 - से 1970 तक के दशक तक  शमशाद बेगम संगीतकारों की पहली पसंद बनी रहीं. शमशाद बेगम की सुरीली आवाज़ ने सारंगी के उस्ताद हुसैन बख्शवाले साहेब का ध्यान भी अपनी ओर खींचा. उन्होंने शमशाद बेगम को अपनी शिष्या बना लिया. लाहौर के संगीतकार ग़ुलाम हैदर ने शमशाद की आवाज़ का इस्तेमाल फ़िल्म 'खजांची'1941 और 'खानदान'1942 में किया. सन 1944 में शमशाद बेगम ग़ुलाम हैदर की टीम के साथ मुंबई आ गई थीं. यहां इन्होंने कई फ़िल्मों के लिए गाया. सन 1947 तक हिन्दी सिनेमा में पार्श्वगायन में आला मुकाम हासिल कर लिया था. 

शमशाद बेगम को कैमरे के सामने आना पसंद नहीं था. लोगों का मानना है कि शमशाद खुद को ख़ूबसूरत नहीं मानती थीं इसलिए वो फोटो नहीं खिंचवाती थीं. हालाँकि कमसिन शमशाद बेगम को फ़िल्मों में अभिनय करने के लिए भी मौके मिले, अब वो सुन्दर नहीं थी, यह कहना उचित नहीं है. हालांकि बतौर गायिका के रूप में यूँ भी तो उनकी शख्सियत करिश्माई रही है. वहीं कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने अपने पिता से कभी कैमरे के सामने न आने का वादा किया था. यही वजह है कि शमशाद बेगम की बहुत कम तस्वीरें उपलब्ध हैं. क्योंकि वो कैमरे के सामने आने से परहेज़ करतीं थीं, इस बात से भी समझा जा सकता है, कि शमशाद बेगम का गायिका बनने का निर्णय उनके घर परिवार वालों के लिए कितना विद्रोही रहा होगा. 

शमशाद बेगम के कुछ गीत जो हमेशा सुने जा सकते हैं.
ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे', 'छोड़ बाबुल का घर' एवं 'होली आई रे कन्हाई' मदर इंडिया फिल्म का गीत है, जो खासा लोकप्रिय हुआ था. इस गीत की खास बात यह है कि इसमे सारे के सारे कलाकार मुस्लिम थे. नौशाद अली ने इसमें संगीत दिया. शकील बदायूंनी ने लिखा, शमशाद बेगम ने अपनी आवाज़ दी, वहीँ अभिनेत्री नर्गिस पर फ़िल्माया गया था. मदर इन्डिया का गीत - संगीत, अदाकारी, निर्देशन सभी अमर हैं. 
'तेरी महफ़िल में क़िस्मत आज़मा कर हम भी देखेंगे' मुग़ल-ए-आज़म का यह गीत यूँ लगता है जैसे, अदाकारा खुद ही गा रहीं हैं. 

'मेरे पिया गए रंगून' 
'कभी आर कभी पार' 
'लेके पहला पहला प्यार' 
'कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना' 
'बूझ मेरा क्या नाम रे, नदी किनारे गाँव रे' 
'मिलते ही आँखेंं दिल हुआ दीवाना किसी का'
'बचपन के दिन भुला न देना' 
'दूर कोई गाए' 
'सैया दिल में आना रे' 
'मोहन की मुरलिया बाजे' 
'कजरा मुहब्बत वाला' आदि अमर गीत आज भी लोकप्रियता के चरम पर हैं. वर्ष 2009 में भारत सरकार ने शमशाद बेगम को कला के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान के लिए 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया था 



हिन्दी सिनेमा एवं गायिकी की दुनिया में अपनी सुरीली आवाज़ से लोगों का दिल जीत लेने वाली, महान गायिका शमशाद बेगम लंबी बीमारी के कारण  23 अप्रैल, 2013 को इस फानी दुनिया से रुख़सत कर गईं.  शमशान बेगम ने हिन्दी फ़िल्म जगत से भले ही कई वर्ष पहले दूरियां बना ली थीं, लेकिन ऐसी शख्सियतें कभी मरा नहीं करतीं, वो अपनी रची गई दुनिया के लिए कभी भुलाई नहीं जा सकतीं, याद आने का सवाल ही कहाँ होता है. ऐसी शख्सियतो कीं जीवन यात्रा हमारे लिए धरोहर है. अपने पूरे कैरियर में बेशुमार और प्रसिद्ध गानों को अपनी आवाज़ से अमर कर दिया. सिनेमा में गायिकी के ज़रिए हमेशा-हमेशा के लिए खुद को अमर कर दिया. 

शमशाद बेगम की बेटी का कहना था कि- "मेरी माँ हमेशा यही कहती थीं की मेरी मौत के बाद मेरे अंतिम संस्कार के बाद ही किसी को बताना कि मैं अब इस दुनिया में नहीं हूं. इस दुनिया से कभी न आने की यात्रा पर चली गई हूं, और मैं कहीं नहीं जाउंगी जहां से आई थी, वहीं वापस जा रही हूं, मैं सदा सबके साथ हूं. अपनी आवाज़ एवं अपनी जीवन यात्रा के जरिए जुड़ी रहूंगी. गीतों की रची गई दुनिया यूँ भी बहुत खूबसूरत है, टूटे हुए दिलों के लिए मरहम का काम करती है. शमशाद बेगम की खनकती आवाज़ हमेशा ही कर्णप्रिय बनी रहेगी. मल्लिका ए तरन्नुम शमशाद बेगम को मेरा सलाम. 

दिलीप कुमार 

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