' सिनेमा के सबसे सफल पटकथा लेखक' सचिन भौमिक'
'हिन्दी सिनेमा के सबसे सफल पटकथा लेखक'
'सचिन भौमिक'
हिन्दी सिनेमा में फ़िल्मों के निर्माण में कई विधा के पारंगत लोगों की विविधतापूर्ण प्रतिभा का समर्पण एवं योगदान होता है. फिर भी सिनेमा में निर्देशक, गायक, गीतकार, अदाकार से ज्यादा कोई पहिचाना नहीं गया. हालाँकि रूमानी गीतकार साहिर लुधियानवी की बगावत उनकी आवाज़ उठाने के बाद गीतकारों का उल्लेख भी होने लगा. अफ़सोस फ़िल्मों की ज़मीन जो तैयार करते हैं, पटकथा लेखक उनका कोई जिक्र ही नहीं है, आज बड़े से बड़े फिल्म समीक्षकों से भी हिन्दी सिनेमा के पटकथा लेखकों का नाम पूछे तो वो सलीम-जावेद को सबसे सफल जोड़ी कहकर बात खत्म कर देते हैं, लेकिन हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे लेखक हुए हैं, 'सचिन भौमिक' जिन्होंने जो हिन्दी सिनेमा में 50 साल से ज्यादा सक्रिय रहे, एवं 100 से ज्यादा फ़िल्में लिखीं. 'सचिन भौमिक' कभी भी अप्रासंगिक नहीं हुए, हमेशा उनकी मांग रही है, लेकिन दुःखद यह भी है कि आज शायद ही कोई उन्हें जानता हो, इसमे दोष भी तो लेखकों का ही है, क्योंकि लेखक कभी अपनी महत्वाकांक्षा खुलकर जाहिर ही नहीं कर सके. या यूं कहें, सलीम - जावेद बहुत बाद में आए. सलीम - जावेद के बाद ही हिन्दी सिनेमा में लेखकों का जिक्र होना शुरू हुआ है.
17 जुलाई 1930 को कोलकाता में जन्मे सचिन भौमिक ग्रेजुएशन कर रहे थे. तब ही उन्होंने अपना पहला बांगला उपन्यास प्रकाशित करा दिया था. साहित्य एवं लेखन की दुनिया में थोड़ा पहिचान बनी, कोलकाता उस दौर में सांस्कृतिक, कलात्मक नाटक, सिनेमा आदि की राजधानी थी. उस दौर में कोई भी प्रतिभाशाली युवा फ़िल्मों में जाना चाहता था, वहाँ लोगों की समझ भी सिनेमा के लिहाज से बढ़िया रही है. कोई भी रचनात्मक युवकों को फ़िल्मों के लिए प्रेरित करते थे. सचिन भौमिक के रिश्तेदारों ने उन्हें फ़िल्मों में कहानियां लिखने के लिए प्रेरित किया. 1957 में बॉम्बे टाकीज़ के मालिक ज्ञान मुखर्जी के नाम एक पत्र लेकर जब सचिन भौमिक उनसे मिलने पहुंचे तो ज्ञान मुखर्जी की पत्नी सचिन का ही एक उपन्यास पढ़ रही थीं. वो सचिन की लेखनी की फैन बन चुकी थीं, उन्होंने जिक्र किया कि सचिन कितना उम्दा लिखते हैं. यही कारण रहा कि सचिन को बॉम्बे टाकीज़ में लेखन के लिए नौकरी मिल गयी. सचिन भौमिक बंगाली पृष्टभूमि से आते थे, अतः जब बम्बई पहुंचे तो उन्हे हिन्दी नहीं आती थी. अब सचिन भौमिक हिन्दी सिनेमा में लिखने आए थे, लेकिन हिन्दी नहीं आती थी. फिर भी उन्होंने अपने हिन्दी लेखक मित्रों से हिन्दी सीखकर कई भाषाओं में पारंगत हो गए थे. फिर वे फ़िल्मकारों की पहली पसंद बन गए थे.
हिन्दी सिनेमा के गोल्डन एरा में विमल रॉय , गुरूदत्त साहब, राज कपूर साहब, सबसे ज्यादा प्रयोग करने वाले फ़िल्मकार थे, उस दौर में इनके साथ जुड़ने का मतलब सफलता की कुंजी है. एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो चक्कर लगाया, बड़े मुुश्किल से उन दिग्गजों से मुलाकात की, अपनी प्रतिभा से अवगत कराया, लेकिन उन्हें काम नहीं मिल सका. उस दौर में महान ऋषिकेश मुखर्जी, विमल दादा के सहायक एवं एडिटर थे, उन्होंने 'सचिन भौमिक' की प्रतिभा को पहिचान कर साराहते हुए वायदा किया, कि 'मैं जब निर्माता /निर्देशक बन जाऊँगा तो आपसे फिल्म की कहानी ज़रूर लिखवाऊँगा, फिर ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशक बने तो उन्होंने अनुराधा फिल्म की कहानी सचिन भौमिक से लिखवाकर अपना प्रॉमिस पूरा किया था. फ़िल्म 'अनुराधा' को बॉक्स ऑफिस में सफलता तो नहीं मिली, लेकिन इस फिल्म को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला. कांस फिल्म फेस्टिवल में आमंत्रित की गयी. ज़्यादा से ज़्यादा भारतीय और विदेशी फ़िल्में देखने का जुनून, साहित्य में गहरी दिलचस्पी होने के कारण किसी भी देखी हुई फिल्मों की कहानी, सीन सचिन भौमिक हमेशा के लिए दिमाग में अंकित कर लेते थे. हमेशा सचिन भौमिक की कहानियां प्रासंगिक रहीं, हमेशा तत्कालीन परिस्थितियों का समावेश, सामजिक बुराईयों, कठिनाईयों आदि पर जबरदस्त समझ थी. सचिन बोलने के अंदाज़ के लिए जाने जाते थे, कहानी नरेशन की कला भी शानदार थी. हमेशा फ़िल्मकार सचिन के स्टोरी नरेशन से उनके प्रति प्रतिबद्ध हो जाते थे.
हिंदी सिनेमा के इतिहास में सर्वाधिक सफ़ल लेखक सचिन भौमिक रहे हैं. जिन्होंने सबसे ज्यादा सफल फ़िल्मों को लिखा. सलीम - जावेद से भी ज्यादा फ़िल्मों को अकेले ही लिख डाला. अदाकारा नरगिस के कालजयी अभिनय के लिए फिल्म 'लाजवंती1958' आज भी याद की जाती है. यह क्लासिकल कल्ट फिल्म बतौर लेखक उनकी पहली फिल्म थी. सुभाष घई की 'युवराज2008' अंतिम फिल्म थी. पांच दशकों में सचिन भौमिक ने 100 से ज़्यादा फ़िल्में लिखीं वहीँ, 25 से अधिक फ़िल्मों के वे सह लेखक रहे. अभिनेत्री कल्पना मोहन पचास के दशक में उभरती हुई अदाकार थीं. देवानंद साहब की सुपरहिट फिल्म तीन देवियाँ से उन्हें पहिचान मिली थी. ख़ूबसूरती के कारण कल्पना की तुलना मधुबाला के साथ होती थी. कल्पना मोहन एवं सचिन भौमिक ने प्रेम विवाह कर लिया था . कल्पना ने फिल्म प्रोफेसर में शम्मी कपूर के साथ काम किया था. शम्मी कपूर के साथ उनकी जोड़ी खूब फबी थी, लेकिन शम्मी कपूर ने उन्हें मानसिक रूप से बीमार कहते हुए उनके साथ फ़िल्मों में काम करने से मना कर दिया था, जिससे कल्पना मोहन हिन्दी सिनेमा से दरकिनार कर दी गईं थीं. सचिन ने निर्देशक बनने का फ़ैसला किया. उन्होंने राजेश खन्ना और शर्मीला टैगोर को साथ लेकर 1973 में 'राजा रानी' फिल्म निर्देशित की थी, जिसकी पटकथा भी उन्होंने ही लिखी थी. हालाँकि फ़िल्म नहीं चली. सचिन भौमिक अपनी लेखन की दुनिया में ही खुद को व्यस्त रखना उचित समझा. जब आपकी कहानियो को सिल्वर स्क्रीन पर खुद ही फ़िल्मकार उतार रहे हैं, तो जोखिम लेना उचित नहीं है.
फ़िल्म के हिट होने पर कलाकार, निर्देशक, संगीतकार, गायक और गीतकार सभी की लोकप्रियता बढ़ जाती थी. फिर भी लेखक का को कोई जानता भी नहीं था. हालाँकि साहिर लुधियानवी ने गीतकारों के नाम का भी उल्लेख किया जाए, इस क्रांतिक बदलाव के कारण गीतकारों को पहिचान मिलने लगी थी. वहीँ सलीम खान जावेद अख्तर की सुपरहिट फ़िल्मों के कारण लेखको के नाम का भी उल्लेख होने लगा था. हांलाकी सचिन भौमिक सलीम खान जावेद अख्तर से पहले ही फ़िल्मों में काम करते थे, अतः उन्होंने लगभग 25 सुपरहिट फ़िल्मों का लेखन कर चुके थे. वैसे भी उन्होंने जितनी हिट फ़िल्में दीं उतनी फ़िल्में कोई लेखक नहीं दे सका. हालाँकि सलीम - जावेद की जोड़ी के बाद एक्शन फ़िल्मों का युग शुरू हुआ था, एक्शन फ़िल्मों के फिल्मकारों का अपना एक व्यापारिक हित भी होता है. कई पीढ़ियों के लेखक आए और गए, लेकिन सचिन भौमिक हमेशा प्रासंगिक रहे हैं. कहते हैं सिनेमा में जो समय के साथ खुद को ढाले रहता है, वो चलता रहता, अन्यथा साइड कर दिया जाता है. सचिन की समय के साथ ढलने के कारण समय के मुताबिक कहानियां लिखते रहे. गीतकारों में मजरुह सुल्तानपुरी कभी पुराने नहीं हुए, ऐसे ही सचिन कभी भी हिन्दी सिनेमा में पुराने नहीं हुए, और न ही उनकी कलम की स्याही फीकी पडी. सचिन भौमिक की सिनेमाई यात्रा के दौरान राही मासूम रज़ा, अली रज़ा, कमलेश्वर, गुलज़ार, और सलीम जावेद उभरे, हिट हुए, और समय के साथ खुद को बदल नहीं सके, जिससे साइड हो गए. फिर फ़िल्म की दूसरी विधाओं में जैसे निर्देशन, गीत लेखन जैसी ज़िम्मेदारियां संभालने लगे. सचिन भौमिक पचास साल तक अनवरत फ़िल्मों की कहानियां लिखते रहे. 'आन मिलो सजना' और 'आराधना' जैसी फ़िल्में लिखने वाले सचिन भौमिक 'करन-अर्जुन','तू खिलाड़ी मैं अनाड़ी', 'सोल्जर' और 'कोई मिल गया' जैसी फ़िल्में भी लिखने लगे थे. सचिन भौमिक की अंतिम फ़िल्मों में 'कृष', 'किसना' और 'युवराज2008 थी. इससे काम करने के प्रति उनका समर्पण समझा जा सकता है. सचिन भौमिक खुद को तो बदलते ही थे, साथ ही नए लेखको के साथ काम करने के लिए भी उत्सुक रहते थे. नए लेखकों को खूब उत्साहित करते थे.
सचिन भौमिक सादा जीवन उच्च विचार पर यकीन रखते थे. उनके जीवन में शानो शौकत के लिए ज्यादा स्पेश नहीं था. हिन्दी सिनेमा में अपना खास मुकाम हासिल करने वाले सचिन भौमिक का केवल फ़िल्मों में लेखन के अलावा शर्मिला टैगोर को फ़िल्मों में लाने का श्रेय दिया जाता है. शर्मिला टैगोर की माँ के संबधी होने के नाते सचिन भौमिक के कहने पर ही शर्मिला को फ़िल्मों में काम मिला था, हालाँकि सचिन भौमिक अगर नहीं होते तो शायद शर्मिला टैगोर की माँ शर्मिला टैगोर को फ़िल्मों में काम करने नहीं देतीं. 70 के दशक में एक्शन फ़िल्में ही चल रहीं थीं, वहीँ अमिताभ बच्चन - राजेश खन्ना के दौर में साधारण शक्ल वाले अभिनेता अमोल पालेकर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता बनाने के पीछे गोलमाल फिल्म का खासा योगदान है. गोलमाल, शोले, दीवार, जैसे दौर में लिखी गई थी. महान फुटबॉलर पेले का गोलमाल फिल्म में जिक्र भी निजी अनुभव के आधार पर उन्होंने किया था, दरअसल फ़ुटबॉल के लिए कोलकाता में दिवानगी अपने चरम पर होती थी, तब ही पेले आए थे... जिनकी दीवानगी उन्होंने अपने आँखों से देखी थी.
सचिन भौमिक ने हिन्दी सिनेमा के लिए नायाब तोहफ़ा थे. जिन्होंने सिनेमा के लिए एक से बढ़कर एक सौ से अधिक फ़िल्मों में अपनी प्रतिभा से अभूतपूर्व योगदान दिया. दुर्भाग्य रहा, कि हिन्दी सिनेमा सहित भारत सरकार ने इस महान लेखक को किसी सम्मान लायक समझा ही नहीं. हिन्दी सिनेमा में जब तक ऐक्टिव रहे तब तक तो प्रासंगिक रहे, बाद में उन्हें कोई भी ज्यादा जानता नहीं था. आज भी शायद अधिकांश लोगों को यह पता नहीं होगा... कि सचिन भौमिक कौन है... देर सबेर जब सिनेमा के रहबरों एवं भारत सरकार की आँखे खुलें तब इस महान लेखक को उनके कद अनुसार सम्मानित किया जाना चाहिए. हमारे मुल्क में कलाकारों, साहित्यकारों को गुमनामी में जब तक न मरें तब तक महान समझा ही नहीं जाता. दुर्भाग्य है कि सचिन भौमिक जैसे महान कलाकारों को लोग जानते नहीं है.. सचिन भौमिक 12 अप्रैल 2011 को इस फानी दुनिया से रुखसत कर गए. इस नामी लेखक की मौत से हिन्दी सिनेमा बेख़बर थी, किसी को पता ही नहीं चला. बाद में खबर मिली कि सचिन नहीं रहे.. सिनेमा पर लिखते हुए इसको शापित, क्रूर दुनिया कहता रहूँगा. चूंकि इसकी यही सच्चाई है. सचिन भौमिक जैसे लोग कभी मरा नहीं करते वो अपनी रचनात्मक सृजन के लिए याद रहेंगे. सिनेमा के महान कलमकार को मेरा सलाम...
दिलीप कुमार
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