'जॉगर्स पार्क फिल्म'
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प्रेम का अपना संसार
हिन्दी सिनेमा का अपना एक तिलिस्म है, मेरे ऊपर भी है, जहां आज के दौर में कला फ़िल्में देखने का अपना एक मज़ा है. जॉगर्स पार्क एक ऐसी फिल्म जो समान्य तो नहीं है, अपितु थोड़ा अलग है. सुभाष घई बेहतरीन फ़िल्मों का निर्माण करने एवं बेहतरीन लेखन के लिए जाने जाते हैं. सुभाष घई ने हमेशा ही कुछ यादगार रचा है, जब भी कुछ रचा है, चर्चा का विषय ज़रूर रहा है. बुढ़ापे में एकाकी हो चुके सेवानिवृत्त न्यायाधीश के एकाकीपने को प्रेम की तरफ़ ले जाने वाली अनुभूति पर एक बेहतरीन फिल्म का निर्माण कर डाला. फिल्म का नाम "जॉगर्स पार्क" है. फिल्म में हम एक विवाहित, प्रसिद्ध, सेवानिवृत्त न्यायाधीश और एक स्वच्छन्द स्वभाव 30 -लड़की के बीच प्रेम की पनपता है,जो भावनापूर्वक तो उचित है, लेकिन समाज ने इसे अभी तक स्वीकृत नहीं किया
फिल्म में जेनी (पेरिज़ाद ज़ोरबियन) और जस्टिस जेपी चटर्जी
(विक्टर बनर्जी) दोनों ही अपनी भूमिकाओं में बेहतरीन लगे, खासकर विक्टर बनर्जी ने तो अपनी अदाकारी से फिल्म अपने नाम कर ली. कई लोग 'विक्टर बनर्जी' को जानते भी नहीं होंगे. यह सच है! विक्टर बनर्जी केवल भारत ही नहीं पूरी दुनिया के ख्याति प्राप्त बंगाली सिनेमा के साथ हिंदी सिनेमा के नायाब सितारे हैं. उनकी पर्सनैलिटी बहुत ही आकर्षक है. 'विक्टर बनर्जी' ने हिन्दी सिनेमा में कम ही काम किया है, लिहाज़ा उन्होंने हॉलीवुड में खूब काम किया, एवं फलस्वरुप खूब सारे अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार भी हासिल किए हैं. 'विक्टर बनर्जी' महान सत्यजीत रे की खोज हैं. विक्टर बनर्जी ने 'थिंकिंग ऑफ हिम' में गुरु टैगोर की अविस्मरणीय भूमिका निभाई थी. एक फिल्म जो अर्जेंटीना के लेखक विक्टोरिया ओकाम्पो के साथ कवि के संबंधों पर प्रकाश डालती है. 'विक्टर बनर्जी' भी नसरुद्दीन शाह, ओम पुरी, इरफ़ान, गिरीश कर्नाड, टॉम ऑल्टर, जैसे महान अदाकार हैं. मैं भी पहले ज्यादा जानता नहीं था, सत्यजीत रे के नाम के साथ यदा कदा जिक्र होता था. उनकी रबींद्रनाथ टैगोर की भूमिका में देखने के बाद मेरे जेहन से उनकी आकर्षक शख्सियत भूलना मुमकिन नहीं है. जॉगर्स पार्क फिल्म में उनकी अवॉर्ड विनेंग अदाकारी है. विक्टर बनर्जी भारत के पहले ऐसे अदाकार हैं जिनकी फ़िल्में कई बार ऑस्कर पुरस्कार के लिए मामूली के अन्तर से बाहर हो जाती थीं. पूरा विश्व सिनेमा उनकी अदाकारी का लोहा मानता है. फिल्म में (पेरिज़ाद) विशेष रूप से चुलबुली लड़की जेनी के रूप में बहुत उम्दा अदाकारी की है. प्रेम होना बहुत स्वाभाविक है. किसी के प्यार में होना बहुत अच्छी बात है क्योंकि यह आपको जिंदा होने का अहसास कराता है. जॉगर्स पार्क फ़िल्म कथन की पुष्टि करती है. यह मुंबई के बांद्रा पश्चिम में स्थित जॉगर्स पार्क के बारे में नहीं है. यह दो जॉगर्स के बारे में है जो वहां मिलने से एक-दूसरे को जानते हैं, और दोनों की जिंदगी बदल जाती है. जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल है, जिसका एक मतला है - न उमर की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन... प्रियतम का हृदय और जॉगर्स पार्क एक खूबसूरती से कही गई प्रेम कहानी है, जो इस कहावत को अत्यधिक सशक्त तरीके से पेश करती है.
एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश 'विक्टर बनर्जी' जो बहुत ही एकाकी रहते हैं, रिटायर्मेंट के बाद शरीर की सक्रियता बनी रहे, इसलिए बच्चों के कहने पर जॉगर्स पार्क जाने लगते हैं. मजे की बात यह है कि जस्टिस चटर्जी थोड़ा पुराने ख्याल के व्यक्ति हैं, लेकिन जॉगर्स पार्क में अपनी उम्र से आधी उम्र की कामकाजी लड़की से मिलते है, लड़की मुखर, प्यारी, आत्मविश्वासी और भावुक है. उसके साथ बातचीत करने से बुज़ुर्ग व्यक्ति, जो अपने परिवार में एक सख्त थोड़ा एकाकी हैं. लड़की के साथ पैराफिन के पिघलने का अहसास होता है. भावनाओं, बातचीत और सामाजिक जीवन की एक पूरी नई दुनिया उस वृद्ध सज्जन के सामने खुलती है, जिसने अदालत के कमरे, कानूनी फाइलों और अपने पारंपरिक संयुक्त परिवार के बाहर कभी कुछ नहीं देखा था. रोमांस, थोड़ा रोमांचित करने वाला अनुभव ही नहीं था, जैसे कोई कोरा काग़ज़, वो उस लड़की के साथ मिलकर एक नई दुनिया का अनुभव करते हैं. दूसरी ओर, लड़की भी परिपक्व और परोपकारी अच्छे व्यक्ति होने के कारण जस्टिस चटर्जी पर मोहित हो जाती है. जो कभी-कभी एक बच्चे की तरह उसके प्रति संवेदनशील हो जाता है. हालाँकि, दोनों को पता चलता है, कि यह रिश्ता, चाहे वह कितना भी संतोषजनक क्यों न हो, इसका कोई भविष्य नहीं है. अंततः समाज भी इसे सार्वजनिक करने की अनुमति नहीं देगा.. लड़की की तरफ, सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता उसके प्यार को और अधिक बढ़ा देती है. पुरुष की ओर से, अपने परिवार के प्रति उसकी जिम्मेदारी लड़की के प्रति उसकी गहरी और नाजुक भावनाओं पर हावी हो जाती है. लेकिन फिल्म का मार्मिक अंतिम दृश्य दर्शकों को याद दिलाता है कि प्यार करने वाले भले ही दूर हो जाएं, लेकिन किसी न किसी रूप में पुनः ज़रूर मिलते हैं.
पेरिजाद वास्तव में एक अविश्वसनीय कलाकार के रूप में सामने आईं उनका अभिनय यादकर है. मैंने फिल्म को दिल से देखा क्योंकि मैंने उसका भरपूर आनंद लिया. संगीत प्रेमियों के लिए, सहगल री-मिक्स और अदनान सामी और जगजीत सिंह के ट्रैक विशेष रूप से यादगार हैं. जगजीत सिंह की ग़ज़लें पूरी फिल्म में बार-बार स्लो ट्रैक में आकर चार चांद लगाती हैं. म्यूजिकल स्कोर काफी अच्छा है, हालांकि अदनान सामी के गाने को बैकग्राउंड में बार-बार दोहराना परेशान करता है. जगजीत सिंह की ग़ज़ल - बड़ी नजुक है ये मंजिल राग प्रेमियों के लिए किसी ट्रीट से कम नहीं है. सिनेमैटोग्राफी के लिहाज से फिल्म बनाने में, लिखने में सुभाष घई का कोई सानी नहीं है. वहीं निर्देशन के लिहाज से निर्देशक स्वर्गीय श्री अनंत बलानी ने बहुत उम्दा निर्देशन किया है. उन्होंने फिल्म के संवेदनशील और नाजुक विषय को पूरी परिपक्वता के साथ संभाला है. मेरी राय में फिल्म का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट यह है कि फिल्म में प्रमुख दोनों पात्रों को भरपूर स्क्रीन उपस्थिति देकर निर्देशक ने केंद्रीय पात्रों को अत्यधिक सम्मान दिया है. वहीँ सहायक पात्रों को भी बढ़िया जगह दी है, ख़ासकर दिव्या दत्ता भी बढ़िया लगी. फिल्म में प्यार करने वाले जोड़े को कई बार समुद्र के पास देखा जाता है जो उनके रिश्ते की गहराई का प्रतीक है. आज के दौर में उनको डेट पर ले जाने वाले दृश्य दिखाने से अनन्त बलानी ने खूब बारीकी को समझा है, उन्होंने फिल्म को दार्शनिक प्रेम की तरफ मोड़ा है, न कि एक रंग मिजाज़ प्रेम को लेकर.. अन्य तकनीकी पहलू भी निशान तक हैं.
यह फिल्म उपदेशात्मक नहीं थी क्योंकि यह एक ऐसे व्यक्ति के सामने आने वाली दुविधा को दिखाती है, जो अभी तक बहुत पॉपुलर न्यायधीश था, जो शादीशुदा है, एकाकी है, उसके बड़े बच्चे हैं. हालाँकि न्यायधीश अपनी छोटी बेटी के साथ थोड़ा मित्रवत हैं. एक दृष्टिकोण के लिहाज से जज के जीवन में जेनी जो ऊर्जा भरती है, वह यह सोचती है, कि उसे पारिवारिक सम्मान के लिए जेनी के प्यार को नहीं छोड़ना चाहिए. दूसरी ओर वह न केवल अपने परिवार को बल्कि जेनी को भी नुकसान पहुँचा रहा होगा, तो जॉगर्स पार्क देखें कि वह किसे चुनता है.... हो सकता है फिल्म देखने में थोड़ा बोरिंग लगे, क्योंकि दर्शक कला फ़िल्मों को बोरिंग कहकर खारिज कर देते हैं. यह फिल्म देखी जा सकती है, और बुजुर्गों के एकाकीपन को समझा जा सकता है, कि जीवन भर खूब काम किया एवं रिटायर्मेंट के बाद अचानक एक बिरक्त जीवन हो जाता है. व्यक्तिगत रूप से सीनियर रिटायर्ड लोगों के साथ हमेशा वक़्त बिताता हूं, बहुत सारे बुजुर्ग मेरे मित्र हैं, यह तो नहीं कह सकता, लेकिन मुझे उनकी संगति बहुत अच्छी लगती है, वो जाने - अनजाने अपने दिल की बातेँ कहना चाहते हैं, अफ़सोस उनकी कोई सुनता नहीं है. नए दौर का होते हुए भी बुजुर्गों से अत्यधिक लगाव है, जैसे ही शाम को घूमने जाता हूँ. बहुत सारे बुजुर्ग मेरा इंतजार भी करते हैं, क्योंकि मैं ध्यान से उनकी बातेँ सुनता हूं,,, इतने सारे रिटायर्ड बुजुर्गों की संगति कर के देखा है, समझ सकता हूँ उनकी तकलीफ़ मैं कभी भी बूढ़ा नहीं होना चाहता, मुझे उस लाचारी से दुख होता है... जवान ही मर जाना चाहता हूं. इस उम्र में कुछ नया बदलाव चाहिए जो कि ध्यान देने योग्य है. मुझे फिल्म अच्छी लगी, तो सोचा लिखना चाहिए इसलिए लिख दिया. फिल्म देखकर अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दीजिएगा... फिल्म निराश नहीं करेगी.
दिलीप कुमार
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