'एक टैलेंटेड फ़िल्म पर्सनैलिटी "गोल्डी"
'एक टैलेंटेड फ़िल्म पर्सनैलिटी "गोल्डी"
(विजय आनन्द)
विजय आनंद बेहद टैलेंटेड फिल्ममेकर थे. जिस उम्र में नौजवान पढ़ते - लिखते हैं, फिल्म की बारीकियां सीखते-समझते हैं, उस उम्र में विजय आनंद ने फिल्म ही बना डाली थी. जिसे हिन्दी सिनेमा में गुरुदत्त साहब एवं विमल रॉय के समकक्ष रखा जाता है. यहां तक कि उनकी फिल्मों को आज भी क्लासिक और मास्टरपीस माना जाता है. अपने समय से बहुत आगे, विजय आनंद ने कभी भी अपने काम को एक शैली तक सीमित नहीं रखा. इस लीजेंड फिल्ममेकर की शार्पनेस का अंदाजा इसी से लगाया जाता है, कि मात्र 40 दिन के अंदर विजय आनन्द ने अपने बड़े भाई देवानंद साहब एवं अपनी भाभी कल्पना कार्तिक के साथ फिल्म की शूटिंग भी पूरी कर ली थी. ये सब बचपन की संगति एवं उनकी लगन का नतीजा था, कि फिल्मों को लेकर इतनी कम उम्र में दूरदर्शी, सिनेमाई समझ पैदा हो गई थी.विजय आनंद को गोल्डी आनंद के नाम से भी जाना जाता था. फिल्ममेकर, प्रोड्यूसर, स्क्रीन राइटर एक्टर, एडिटर, विजय आनंद 22 जनवरी 1934 में पंजाब के गुरदासपुर में पैदा हुए थे. ‘गाइड’ ‘तीसरी मंजिल’, ‘ज्वेल थीफ’ और ‘जॉनी मेरा नाम’, 'काला बाज़ार', तेरे घर के सामने, जैसी महानतम फ़िल्में बनाने वाले विजय के बड़े भाई चेतन आनंद डायरेक्टर- प्रोड्यूसर थे. वहीँ देवानंद साहब एक्टर -डायरेक्ट-राइटर थे. तीन महान भाईयों ने मिलकर ‘नवकेतन फिल्म्स’ चलाते थे. इसकी स्थापना देवानंद साहब ने की थी. गोल्डी की अधिकतर फिल्में इसी बैनर के तले बनी थीं. जिस उम्र के नवयुवकों की कॉलेज, यूनिवर्सिटी आदि के साथ पिकनिक पार्टी की हसीन उम्र होती है. 23 साल के गोल्डी आनंद ने फिल्म डायरेक्ट किया था. वहीँ स्कूली दिनों में उन्होंने टैक्सी ड्राइवर फिल्म लिख डाली थी. इस स्तर की ज़हीनियत गोल्डी ने अपने अन्दर विकसित की थी. ये सब बचपन की संगति का नतीजा था कि फिल्मों को लेकर इतनी कम उम्र में समझ पैदा हो गई थी. इसके बारे में खुद मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में बताया था.
"मेरा बचपन इंडस्ट्री के प्रतिभाशाली लोगों की संगति में गुजरा. बड़े-बड़े दिग्गजों की सोहबत का असर भी रहा, लेकिन मैं अपने दोनों बड़े भाइयों को देखकर खूब सीखता था, ख़ासकर अपने बड़े भाई देवानंद साहब को देखकर बहुत सीखा, उनकी चार्मिंग पर्सनैलिटी से मैं बहुत ज्यादा मुतअस्सिर था, सिनेमाई समझ वो विकसित करने के लिए मेरे घर में ही धुरंधर लोग थे. गोल्डी आनन्द के अन्दर डांस को लेकर जुनून की हद तक दिवानगी थी. उनके अन्दर डांस की बारीकियों की समझ भी थी, उनकी फ़िल्मों में डांस की विविधता भी देखी जा सकती है. गोल्डी ने एक साक्षात्कार में बताया था, "मैंने जोहरा सहगल, कामेश्वर सहगल, मोहन सहगल और गुरुदत्त जैसे ज़हीन लोगों के साथ बचपन बिताया था. बलराज और दमयंती साहनी लगभग हमारे घर में ही रह रहे थे. मेरे भाई चेतन उन्हें बॉम्बे ले आए और जब तक उन्हें रहने के लिए जगह नहीं मिली, वे हमारे साथ ही रहे. जोहरा और कामेश्वर ने हमारे पाली हिल होम में एक डांस स्कूल शुरू किया था. मैं गुरुदत्त साहब से भी बहुत प्रभावित था. चूंकि गुरुदत्त साहब अपने आप में निर्देशन, लेखन, डायरेक्शन, अभिनय में पूरा का पूरा संस्थान थे, वहीँ गुरुदत्त साहब दुनिया के लिए गुरुदत्त साहब थे, मेरे बड़े भाई के जिगरी दोस्त थे, तो उनको नजदीक से देखा, उनकी अभिनय की बारीकियों को समझा, उनसे मैं कभी - कभार सीखने के उद्देश्य से उनके साथ समय गुजारा करता था, गुरुदत्त साहब मुझे खूब स्नेह देते थे". गोल्डी की फ़िल्मों में दर्शन का मूल होता है, वहीं आधुनिक युग के निर्माण में भी उनकी फ़िल्मों का अहम योगदान होता था, उनकी फ़िल्मों में साफ - साफ़ गुरुदत्त साहब की झलक दिखती है, एक दौर में गोल्डी आनन्द को दूसरा गुरुदत्त कहा जाता था, उनकी तुलना गुरुदत्त साहब की बौद्धिकता से होती थी.
गोल्डी आनंद द्वारा फिल्माए गए सदाबहार गीतों में 'जॉनी मेरा नाम' फिल्म के गीत 'पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले' गीत को केवल सुनने के लिए ही नहीं उसको देखा जाए तो उसने गोल्डी आनन्द की सिनेमैटिक समझ देखी जा सकती है. गोल्डी ने इस गीत में पोरथोल, फैनलाइट, रिवॉल्विंग डोर, ब्लाइंड्स के अलावा, लकड़ी के शटर और चिक पर्दे सैकड़ों खिड़कियां दरवाज़े इस गीत उपयोग किए थे. बचपन में जब मैं इसको देखा करता था, तो सोचता था, कितना अज़ीब घर है, गिनने की कोशिश करता था कि कितने दरवाज़े और खिड़की दिखाए गए हैं. पहले समझ नहीं थी, लेकिन विजय आनन्द के इस गाने ने मेरे बालमन पर असर किया था. यही उनकी प्रभावशाली सिनेमाई समझ थीं. गीत में कितनी बार हेमा मालिनी ने देव साहब को दुत्कारा था. इस गीत को देखकर आज के दौर में सिनेमैटिक बारीकियों को समझने के लिए पूरा का पूरा सिलेबस है. गोल्डी आन्नद की जितनी भी फ़िल्में देखी जाएं, फिल्म बनाने के हर हिस्से पर उनका पूर्ण नियंत्रण रहता था. कैमरा, गीतों का चुनाव, संगीत, गीतों का फ़िल्मांकन आदि पर वो अपनी पकड़ बनाए रखते थे. फ़िल्म 'नौ दो ग्यारह' के निर्देशन के बाद गोल्डी अपने भाइयों चेतन और देव साहब से निर्देशन, सिनेमाई समझ के मामले में काफ़ी दूरी तय कर चुके थे.“नौ दो ग्यारह” अपनी तरह की पहली “रोड मूवी” थी. यह एक ऐसी शैली थी जहां कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सड़क पर होता है. हाल फ़िलहाल इस शैली पर फ़िल्में बन रहीं हैं. इम्तियाज अली ने हाइवे, बनाई, सुजीत सरकार ने पीकू बनाई. आज के दौर की जेनरेशन को शायद कालाबाज़ारी के बारे में कुछ पता नहीं होगा, लेकिन मल्टीप्लेक्स के आने से पहले सिनेमा के टिकटों की कालाबाज़ारी एक बड़ा अपराध हुआ करता था, इस व्यपार की दिवानगी अपने चरम पर थी.
फ़िल्म रिलीज़ होने वाले दिन पाँच रुपये के टिकट दो - दो सौ रुपये तक के ब्लैक में मिलते थे. खूब कालाबाजारी होती थी. इसी सिनेमा टिकटों की कालाबाजारी के बारे में गोल्डी ने कालजयी फिल्म काला बाजार फिल्म का निर्माण कर डाला. काला बाज़ार एकमात्र ऐसी फिल्म थी जहां तीनों भाइयों ने एक साथ अभिनय किया था. देव साहब ने एक बार फिर साबित कर दिया था कि वह डार्क शेड किरदार निभाने में उस्ताद थे.
जिस तरह नौ दो ग्यारह के शुरूआती दृश्यों में देव साहब ने दिल्ली में सैर करते हुए दिखे, उसी तरह कालाबाजार में मरीन ड्राइव के शानदार शॉट्स मुंबई के दो सबसे प्रतिष्ठित थिएटर - मेट्रो और लिबर्टी के पुराने दिनों को दिखाया. ओम शांति ओम और नसीब फिल्म से पहले ही दिग्गजों का स्पेशल अपीयरेंस का इतिहास पहले ही लिख चुके थे. हिन्दी सिनेमा के दिग्गजों की “स्पेशल अपीयरेंस” वाला सीन जिसमें दिलीप कुमार, गुरुदत्त साहब , लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मेहबूब खान, नरगिस, चेतन आंनद, खुद विजय आनन्द, नरगिस, राजेन्द्र कुमार, बलराज साहनी, जैसे दिग्गजों सहित पूरा हिन्दी सिनेमा उमड़ पड़ा था. फिल्म दो साल बाद बनी, लेकिन 'मदर इन्डिया' फिल्म के प्रीमियर में पूरा बॉलीवुड आने वाला था. विजय आनन्द ने देव साहब को बताया "एक कहानी मेरे पास है फ़िल्मों की कालाबाजारी पर.. मदर इन्डिया के प्रीमियम में पूरा हिन्दी सिनेमा उमड़ने वाला है, उस दृश्य को मैं कैद करना चाहता हूं वो फिल्म में काम आएगा. आप अपने मित्र महबूब खान से उसे कैमरे में कैद करने की अनुमति मांग लीजिए". देव साहब के हुज़ूर में महबूब खान ने हाँ कर दिया. क्योंकि नेवकतन स्टुडियो महबूब स्टुडियो वाली बिल्डिंग में ही था. इतनी दूरदर्शी सोच को सोचकर अंदाजा लगाया जा सकता है, कि गोल्डी कितने ज़हीन थे.
1963 में “तेरे घर के सामने” के साथ गोल्डी की सफलता का सिलसिला जारी रहा. बर्मन दादा और नवकेतन की जुगलबंदी ने फिर कमाल कर दिखाया था. गोल्डी ने इस फिल्म में भी गीत चित्रांकन में “कुछ अलग” करके दिखाया था. “दिल का भंवर करे पुकार” में भंवर को कुतुबमीनार की सीढ़ियों एक रूप में दिखाया गया था. लोगों को यह बहुत दिनों बाद पता चला था कि यह पूरा गीत क़ुतुब मीनार के कुछ चुनींदा इंटीरियर शॉट्स और मुंबई स्टूडियो में डिज़ाइन किए गए सेट पर किया गया था, यह भी गोल्डी की बेहतरीन निर्देशन का प्रदर्शन था.
गाइड (1965) नवकेतन की पहली रंगीन फिल्म थी. इस फिल्म के साथ ही विजय आनन्द गोल्डी हिन्दी सिनेमा के सर्वकालिक महान निर्देशकों की फ़ेहरिस्त में शामिल हो गए थे. “वह कौन है तेरा” से शुरू करते हुए “मेघा मेघ दे छाया दे” तक, हर गीत, एक गीत न होते हुए एक कहानी था. तब तक बर्मन दादा गायिकी छोड़ चुके थे, लेकिन गोल्डी ने बर्मन दादा से कहा कि "वहाँ कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहाँ"वाला गीत स्पेशल आपके गाने के लिए लिखवाया है, आप उसको पान खाकर गाएं ऐसे लगे जैसे कोई दूसरे लोक का प्राणी गा रहा है".बर्मन दादा ने गीत को ऐसे ही गाया था. गाइड केवल हिन्दी सिनेमा ही नहीं बल्कि वैश्विक सिनेमा की महान विरासत है. फिल्म में रफी एकल “तेरे मेरे सपने”, “दिन ढल जाए” गाइड के निर्देशन, एक्टिंग, संगीत के बारे में लिखने के लिए शायद हजार पन्नों की किताब भी कम पड़ जाने वाली है, कभी - कभार सोचता हूं फिल्म गाइड पर लिखूँ तो समझ ही नहीं आता क्या लिखूँ, जैसे रामायण पर महर्षि बाल्मीकि, बाबा तुलसी ने कुछ छोड़ा नहीं है, वैसे ही सिने प्रेमी गाइड के एक - एक हर्फ से वाकिफ हैं. गोल्डी आनन्द ने गाइड बनाकर खुद को अमर कर दिया है. नायिका रोज़ी (वहीदा रहमान) जब पति से अलग होकर नया जीवन शुरू करती है, तो स्क्रीन पर आता है “आज फिर जीने की तमन्ना है” जिसकी शुरुआत एक मटके को फोड़ने से हुई थी. वो केवल मटका फ़ूटना नहीं था, जबरदस्ती के बोझिल संबंधो को तोड़ने के लिए दिखाया गया था. करीब आठ मिनट में फिल्माया गया. गोल्डी आनन्द गाइड को अपना सबसे अच्छा काम नहीं मानते थे. गोल्डी गाइड के निर्देशन की पहली पसंद नहीं थे. राज खोसला के निर्देशन में काम करने से वहीदा रहमान ने मना कर दिया था, फिर चेतन आनन्द हक़ीक़त फिल्म बना रहे थे. चेतन आनंद, राज खोसला के बाद र विजय आनन्द को फिल्म गाइड का निर्देशन मिला एक के बाद एक दो गाने सिनेमा में एक नया प्रयोग थे.
1966 में आयी 'तीसरी मंजिल' जिसने पंचम दा यानि आर डी बर्मन, की ज़िन्दगी ही बदल गई थी.साथ में गोल्डी आनन्द को क्राइम फिक्शन फ़िल्मों के निर्देशन में अघोषित बादशाह माना जाने लगा था. अभी तक राज खोसला को ही ख्याति प्राप्त थी.फिल्म के प्रत्येक गीत में गोल्डी का सिग्नेचर स्टाइल देखा जा सकता है. 'तीसरी मंजिल'उन फिल्मों में से एक थी, जिसकी राह में पहले दिन से ही रोड़े आने लगे थे. शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का फिल्म निर्माण के दौरान निधन हो गया. शम्मी कपूर शंकर-जयकिशन को संगीत निर्देशक के रूप में चाहते थे. क्यूंकि इस फिल्म के पहले शंकर-जयकिशन शम्मी कपूर को याहू गीत से बुलंदियों पर पहुंच चुके थे, लेकिन नासिर हुसैन आर.डी. बर्मन (पंचम दा) को चाहते थे. पहले यह फिल्म देवानंद साहब करने वाले थे. निर्माता नासिर हुसैन के साथ उनके कुछ मतभेद हुए जिसके कारण शम्मी कपूर नायक के रूप मे फिल्म में आ गए और गोल्डी को निर्देशन की जिम्मेदारी मिली. गोल्डी ', तीसरी मंज़िल'का निर्देशन नहीं कर रहे थे और शम्मी भी फिल्म में नहीं थे. यह देवानंद साहब थे, जो फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभा रहे थे. नासिर हुसैन साहब ने कहानी की पटकथा और संवाद लिखे, वही निर्देशित कर रहे थे. गोल्डी 'बहारों के सपने' फिल्म का निर्देशन कर रहे थे.' बहारों के सपने' फिल्म में राजेश खन्ना को लिया गया था. राजेश खन्ना नए - नवेले एक प्रतियोगिता जीत कर आए थे.
देवानंद साहब गोल्डी को कितना प्यार करते थे . इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है. नासिर हुसैन और देव साहब की कुछ कहासुनी हो गई थी. इससे पहले तक दोनों अच्छे मित्र थे. उसी पार्टी में नासिर साहब ने देव साहब को यह कहते हुए सुना कि नासिर ने मुझे रंगीन फिल्म के लिए साइन किया है जबकि गोल्डी को एक ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म दी है.. तब गुस्से में नासिर हुसैन ने अनाउंस कर दिया कि गोल्डी जी अब आप तीसरी मंज़िल को निर्देशित करने जा रहे हैं, और मैं बहारों के सपने को निर्देशित करने जा रहा हूं. लेकिन शर्त यह है कि देव साहब तीसरी मंज़िल में नहीं होंगे. जैसे ही सुबह नशा उतरा तो देव साहब को फोन किया और माफ़ी मांगी,कि कल जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ, आप फिल्म कीजिए. देव साहब कसम खा चुके थे, कि अब नासिर हुसैन के साथ अब कभी काम नहीं करूंगा. समझा जा सकता है कि देवानंद साहब गोल्डी को कितना प्यार करते थे. हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म 'तीसरी मंज़िल' गोल्डी आनन्द के दूरदर्शी निर्देशन के लिए याद की जाती है.
वहीदा रहमान एवं देव साहब का जिक्र भी अधिकांशत: एक सात होता है. वहीदा रहमान ने देव साहब के साथ बहुत सी फ़िल्मों में एक साथ काम किया है. ऑन स्क्रीन दोनों की जोड़ी खूब सराही गई. देव साहब से वहीदा रहमान जी का जिक्र ज़रूर होता था, वहीँ वहीदा रहमान जी से हर संचारक-संप्रेषक देव साहब का जिक्र ज़रूर करेगा. वहीँ दोनों की बेशुमार ख्याति की एक धुरी टैलेंटेड निर्माता /निर्देशक/लेखक /सम्पादक, विजय आनन्द का जिक्र ज़रूर होना चाहिए. एक बार एक संचारक ने पूछा कि देव साहब एवं विजय आनन्द उर्फ़ गोल्डी दोनों में क्या फर्क़ था. दोनों के सोचने का नज़रिया कैसा था. दोनों की सिनेमाई समझ कैसी थी.
वहीदा जी बताती है-
"देव साहब और गोल्डी एक हद तक एक जैसे थे. दोनों सिनेमाई समझ में बहुत ज़हीन थे, लेकिन तकनीकी रूप से गोल्डी ज्यादा समझदार था. बहुत हद तक दोनों की सोच मिलती थी. वहीँ चंद बातों में बिल्कुल दोनों एक - दूसरे के मुख्तलिफ थे. यूँ तो देव साहब बहुत ही परिपक्व इंसान थे, लेकिन हर पल देव साहब में बचपना हावी रहता था. वैसे तो मैं देव साहब की बहुत इज्ज़त करती हूं, लिहाज़ा उन्हें जब भी देव साहब कहकर सम्बोधित करती तो बच्चे की तरह नाराज़ हो जाते रूठ जाते,बात नहीं करते,मेरी बातों को भी अनसुना कर देते थे,उनके कहने पर संकोच करते हुए जैसे ही मैं उन्हे देव कहकर सम्बोधित करती मुड़कर फौरन जवाब देते. एक बार देव साहब ने कहा, मुझे देव ही कहा करो. मजबूरन मुझे संकोच में उन्हें देव ही कहना पड़ता था, क्योंकि वो सुनकर भी अनसुना कर देते थे. मैंने नवकेतन की कई फिल्मों में काम किया है, इसलिए दोनों को काफी करीब से देखा है. मुझे लगता है सिर्फ गोल्डी ही देव को संभाल सकता था. जैसे जब गोल्डी किसी सीन को लेकर देव साहब से कहता कि पापा इस तरह नहीं.......ऐसे करिए तब देव साहब बच्चे की तरह नाराज हो जाते और चीख पड़ते कहते कि- मैं ये नहीं करूँगा "आई डोंट लाइक दिस आईम देवानंद" जब भी देव साहब बच्चे की तरह ज़िद पर अड़ जाते गोल्डी बड़े प्यार से उन्हें पटाते और बोलते 'लिसन टू मी पप्पा' ! गोल्डी अपने बड़े भाई देव साहब को प्यार से पापा कहते थे. इस तरह बड़े ही प्यार से समझा -बुझाकर गोल्डी उनसे अपने मन मुताबिक़ काम करवा लेता था.कोई शक नहीं है गोल्डी बेहतरीन डॉयरेक्टर थे. उनमें और मुझमें फ़िल्म की कहानी को लेकर एक जैसी समझ थी. अगर किसी मामले में मैं कमजोर पड़ जाती. तब गोल्डी बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ से सीन को समझा देते. ऐसा एक किस्सा गाईड फ़िल्म के दौरान भी हुआ था. हर निर्देशक एक्टर नहीं बन सकता, हर अभिनेता निर्देशक नहीं बन सकता. सभी का अपना - अपना एक विशेष क्षेत्र में अधिकार होता है. गोल्डी एक बुद्धिमान, दार्शनिक, प्रवृति के निर्देशक थे, वहीँ उनको अभिनेता नहीं बनना चाहिए था, क्योंकि उनके अभिनय करने के अंदाज़ में विविधता नहीं थी. उनको परहेज़ करना चाहिए था".
वहीदा जी कहती हैं "देव साहब और राज कपूर साहब दोनों में बहुत बचपना था. यानि वो मस्ती में रहते थे हर इंसान के अंदर एक बच्चा ज़िंदा रहना चाहिए. ताकि वो अपनी नटखट अदाओं से हरकतों से लोगों का दिल बहलाता रहे, और खुद भी मस्त रहे. हालाँकि उम्र के हर मोड़ पर ऐसे रहना मुश्किल होता है, क्योंकि न चाहते हुए भी आदमी समय के साथ थोड़ा परिवर्तित तो होता ही है, लेकिन ये लोग बदले नहीं थे. वहीँ विजय आनन्द गोल्डी हमेशा संजीदा शख्सियत थे, देव साहब के बिल्कुल विपरीत क्योंकि बहुत हद तक गोल्डी देव साहब की सफलता की कुंजी था. देव साहब भी अपने भाई गोल्डी को अपने भाई को बेटे जैसे प्यार करते थे. दोनों का प्यार अनोखा था".
विजय आनंद उर्फ़ गोल्डी ख्याति की ऊचाईयों पर काबिज थे, बेहद टैलेंटेड, विजय जीवन के एक मोड़ पर डिप्रेशन में जाने के कारण अपनी प्रतिभा को छोड़कर ओशो की शरण में चले गए थे. हिन्दी सिनेमा को तमाम शानदार फिल्म देने वाले विजय आनंद बुलंदियों पर होते हुए भी बुरी तरह डिप्रेशन का शिकार हो गए थे. अपने इस तनाव से छुटकारा पाने के लिए विजय आचार्य रजनीश (ओशो) की शरण में चले गए थे, लेकिन ओशो से उनका मोहभंग हो गया, बाद में ओशो को ढोंगी करार दिया था. गोल्डी आनन्द ने फिर से फ़िल्मों में वापिसी की, लेकिन प्रभावी नहीं रहे. ओशो के फॉलोवर रहे एक्टर को स्प्रिचुअल जर्नी से शायद सुकून मिला हो लेकिन 23 फरवरी 2004 को दिल का दौरा पड़ने से विजय का निधन हो गया. जब भी हिन्दी सिनेमा का इतिहास लिखा जाएगा, विजय आनन्द उर्फ़ गोल्डी का एक अध्याय अलग से होगा. हिन्दी सिनेमा के सार्वलौकिक महान फिल्मकारों में शुमार हैं. जिनकी सिनेमाई फ़िल्मों में विमल रॉय, राज कपूर की तरह यथार्थवाद को पर्दे पर उतारने की कला तो वहीँ गुरुदत्त साहब की तरह कल्ट फ़िल्मों की मास्टरी जिसमें संगीत, नृत्य, रोमांस को सिनेमा के धरातल पर उतारने में महारत हासिल कर चुके थे. क्राइम पिक्सन फ़िल्मों का मास्टर कहा जाता है. विजय आनन्द अपनी बेहद प्रतिभाशाली सिनेमाई योगदान के कारण हिन्दी सिनेमा के शीर्ष पर रहेंगे. वो कभी भुलाए नहीं जा सकेंगे. एक दार्शनिकों फ़िल्मकार गोल्डी आनन्द को मेरा सलाम...
दिलीप कुमार
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