अभी न जाओ छोड़कर

'अभी न जाओ छोड़कर'

वैसे तो हर गीत की अपनी कहानी होती है, गोल्डन एरा का प्रत्येक गीत लंबी साधना के बाद तैयार होता था. देव साहब की फ़िल्मों में रूहानी मुहब्बत को दर्शाते गीतों में ग़ज़ब का संगीत होता है. देव साहब की संगीत की समझ-परख ने हिन्दी सिनेमा को प्रत्येक रस से सुसज्जित गीतों की एक नायाब माला भेंट की है. जिसे हर स्थिति में उनके हर गीत को दशकों बाद गुनगुनाती हैं, भारतीय पीढ़ियां...

"अभी न जाओ छोड़कर" एक ऐसा गीत जो जुनूनी इश्क़ को बयां करता प्रेमी अपनी प्रेयसी से ऐसा भाव व्यक्त करते हुए उसकी मौजूदगी को चाहत है. आज भी कोई न महिला प्रसंशक इस गीत को गुनगुनाती हैं, तो लगता है, जैसे वो अपने रूपहले पर्दे के प्रेमी देवानंद साहब को जैसे प्रेम प्रस्ताव भेज रहीं हैं.... देवानंद साहब को एक-एक गीत मिलने के पीछे उन महारथियों की फौज थी, जो अपने - अपने अंदाज़ के बादशाह थे. साहिर, मजरुह अल्फाजों की रियासत के सरदार थे, तो बर्मन दादा संगीत की दुनिया के पैगंबर थे, तो रफी साहब & किशोर दा आवाज़ एवं सूफ़ी दुनिया के राजकुमार थे.

अभी न जाओ छोड़कर गीत के साथ साहिर लुधियानवी साहब का ज़िक्र तो होता हैं, तो उनके साथ फ़िल्म - 'हम दोनों' (1961 ) की यह 'रोमानी नज़्म' भी याद आती हैं ... एकांत में 'आशिक़-ओ-माशुका' को मिले काफ़ी वक़्त गुजर चुका हैं अब माशुका घर जाना चाहती हैं, और आशिक़ चाहता हैं, की वोह अभी ना जाये, और इसी सिचुएशन पर साहिर ने यह नज़्म लिखा है, यूँ लगता है जैसे साहिर लुधियानवी साहब अपनी प्रेयसी के लिए लिख रहे हैं, कि अभी न जाओ छोड़कर, जिसे छोड़कर साहिर साहब खुद बैठे थे, ऐसी मुहब्बत जिसके मुकम्मल होने के एहसास से साहिर साहब अपनी लेखनी की दुनिया में मुब्तिला हो जाते थे. इस मेलोडी गीत को 'जयदेव साहब ने इसे मधुर धुन में बांध कर अमर कर दिया हैं...

आनंद की प्रेयसी उसे तोहफ़े में एक लाइटर देती हैं, जिसे जलाते ही मधुर धुन बजती हैं, दोनों को शहर के बाहर एकांत में मिले काफ़ी वक़्त हो चुका हैं, आनंद आँखे मूंदकर लेटा हैं और जैसे ही साधना चुपके से उठकर जाना चाहती हैं, तो देखती हैं कि, कपड़े के टुकड़ेका एक सिरा उसकी बालों में बंधा हैं तो दूसरा देव साहब के हाथों में हैं ... साधना (मीता) बेल्ट को छुड़ाती हैं तब ... यहां साहिर साहब के शब्द थे, लेकिन अदायगी देव साहब की थी, जिसमें देव साहब को इठलाते हुए देखा जा सकता है. 

प्रील्यूड ... संतूर के स्वर ... साधना की ओर देखते हुए देव साहब के लिए रफ़ी साहब आवाज़ देते हैं अभी ना जाओ छोड़कर कर दिल अभी भरा नहीं, कि दिल अभी भरा नहीं' रफ़ी साहब की आवाज़ देव साहब पर ऐसी फबती है, जैसे देव साहब को देखकर लगता है, कोई गायक इतना अच्छा अभिनेता कैसे हो सकता है. 


इंटरल्यूड में संगीत बज रहा है, फिर रफ़ी का आवाज़ में देव साहब अभिनय एवं खुशमिज़ाजी, इस विधा के मास्टर देव साहब का कोई जवाब नहीं है. अभी अभी तो आई हो, अभी अभी तो ... ऑर्गन के साथ संगीतकार जयदेव का संगीत मंत्रमुग्ध करता है. अभी अभी तो आई हो, बहार बन के छाई हो 
हवा ज़रा महक तो ले, नजर ज़रा बहक तो ले ...साहिर साहब के अल्फाजों का कमाल जिसे रफी साहब अपनी आवाज से नवाजे जा रहे हैं, वहीँ देव साहब तो कमाल ढ़ा रहे हैं. 


इंटरल्यूड में ऑर्गन में जयदेव साहब का संगीत बज रहा है, संजीदगी जिनकी आवाज़ का श्रंगार थी, गहराई आवाज़ को नायिका की आवाज़ बन जाती है तब आशा भोसले ... संगीत प्रेमियों दर्शकों को अपने तिलिस्म के पाश में बांध लेता है. कोलैब गीत में आशा भोसले अद्वितीय सिंगर हैं. संगीत के विशेषज्ञों की अपनी राय मुख्तलिफ हो सकती है. 

सितारे झिलमिला उठे ... संतूर का पीस 
सितारे झिलमिला उठे, चराग जगमगा उठे ... देव साहब को ज्यादा वक़्त हो गया ऐसा समझाती प्रेयसी साधना ( मीता) अपने प्रेमी से दूर अपने घर जाना चाहती है,जिससे फिर से मिलने आ सके अपने प्रेमी से... क्योंकि समय की भी अपनी मर्यादा है. 


मीता की मज़बूरी को लफ़्जों में बयां करती आशा भोसले 
देव साहब (आनंद) की अपनी ज़िद 
मीता इंकार करती है, देव साहब (आनंद) फिर अनुरोध करते हैं, 
इंटरआवाज़ में देव साहब (आनंद) की याचना साधना (मीता) से ' रफ़ी साहब का गाने का गज़ब ढंग आनंद की शिकायत 
फ़िर मीता को समझाते हैं की, ये प्यार हैं गिला या शिकवा नहीं'
फिर मीता उसे समझाती हुई , लेकिन प्रेमी आनंद बच्चों की तरह 
नहीं नहीं नहीं नहीं ...तो मीता का फ़िर इंकार ... 'नहीं नहीं नहीं नहीं' ... हर बार 'नहीं' का उच्चारण अलग अलग करके आशा का नायाब गायन संगीत प्रेमियों के लिए एवं सिने प्रेमियों के लिए यह गीत सिनेमैटोग्राफी सीखने वाले रिसर्चरों के लिए पूरा का पूरा सिलेबस हैं. 

अंत में दोनों प्रेमी हाथों में हाथ डालकर दोनों प्रेमी अपने घर की ओर लौट रहें हैं ...जैसे एक हसीन सुबह लेकर आ रहे हैं.... पूरी नज्म में साहिर लुधियानवी की अपनी मुहब्बत को देखा जा सकता है. वहीँ संगीतकार जयदेव देव साहब की पहली पसंद नहीं थे, वो निर्देशक अमरजीत की पहली पसंद थे, उन्होंने देव साहब की को भी अचरज में डाल दिया था. कोलैब गीत गाने वालों में रफी साहब - आशा भोसले दोनों पारंगत थे, वहीँ गायिका - गायक की आवाज़ को अपनी आवाज बनाकर देव साहब की अभिनय शैली का कैनवास इतना बड़ा था, कि कोई मापक ही नहीं है, वहीँ देव साहब के हंसमुख, उससे ज्यादा बचपना दिखाते हुए उसमे भी हंसमुख, संजीदगी संतुलन दिखाने में साधना जी का भी जवाब नहीं है. गोल्डन एरा के एक - एक गीत एक डायलॉग, एक - फिल्म के रचे जाने के पीछे लंबी साधना, एवं गहन अध्ययन के साथ ईमानदारी से किया गया कार्य है, जिन्होंने भी यह गीत नहीं सुना उनको सुनना चाहिए, गीत सुनने के बाद इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दें..... इक्कीसवीं सदी में भी गोल्डन एरा में जीने का अपना अंदाज़ है. ले जाता है हिन्दी सिनेमा के अग्रदूतों के पास जो आदर्श काल के पुरोधा थे....... हिन्दी सिनेमा के गीतों का लंबा इतिहास है.

दिलीप कुमार

Comments

Popular posts from this blog

*ग्लूमी संडे 200 लोगों को मारने वाला गीत*

मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया

राम - एक युगपुरुष मर्यादापुरुषोत्तम की अनंत कथा