'फर्स्ट लेडी ऑफ हिन्दी सिनेमा' ललिता पवार
फर्स्ट लेडी ऑफ हिन्दी सिनेमा'
(ललिता पवार)
मूक फ़िल्मों से बोलती हुई फ़िल्में, ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन फ़िल्मों तक... हिन्दी सिनेमा के घुटनों के बल चलने से लेकर उसके फलने - फूलने तक, हिन्दी सिनेमा को दुनिया के कोने - कोने तक पहुचने तक कि गवाह, जिन्होंने 700 से अधिक फ़िल्मों में काम करने के बाद अपना नाम गिनिज बुक में दर्ज करा लिया. एक ऐसी अदाकारा जो अपने दौर में सबसे खूबसूरत मानी जाती थीं, जिनकी ख़ूबसूरती एक मानक के रूप में थी. बाद में शारीरिक कमी के कारण उनकी ख़ूबसूरती बदसूरती में बदल गई, एवं उनकी सुन्दरता पर एक दाग लग गया था. सिल्वर स्क्रीन पर नायिका की जगह पर्दे पर खलनायिका बनकर प्रचलित हुईं. जिन्होंने सिनेमा में क्रूर सास के रोल में नए मानक गढ़े, वो लोगों के साथ अभिनय के लिहाज से कनेक्ट तो कर पाती थीं, परिणामस्वरूप उनके क्रूर सास के रोल करने के लिए अत्यंत घृणा भी मिलती थी, आखिरकार यही तो उनका सफल अभिनय था. ऐसी ग्रेट ऐक्ट्रिस ललिता पवार जिन्हें फर्स्ट लेडी ऑफ हिन्दी सिनेमा कहा जाता है. जिन्होंने सिनेमा में अपना लम्बा योगदान दिया. ललिता पवार एक ऐसी कलाकार हैं जिन्होंने सबसे ज्यादा सत्तर साल से अधिक फ़िल्मों में अपना समय दिया. ललिता पवार का सिनेमा में सबसे लंबा कॅरियर रहा है. रामानन्द सागर के सीरियल रामायण में मंथरा के रोल को निभाते हुए सारे ज़माने की घृणा अपने हिस्से लेकर उस यादगार रोल को जीवंत कर दिया था. फिल्मों की वो ऐसी खतरनाक सास थीं, जिनकी छाती पर आकर तो सांप भी रस्सी बन जाता था...ये डायलॉग उन्होंने 1970 में आई फिल्म सास भी कभी बहू थी में बोला था, असल जीवन में नेकदिल महिला का अपनी भूमिकाओं के लिए क्रूर अंदाज़ यादगार है.
ललिता पवार 18 अप्रैल 1916 को जन्मी थीं, उनका असली नाम अंबा लक्ष्मण राव शागुन था. ललिता पवार के जन्म का कारण भी भी अटपटा है, उनके जन्म के दौरान उनकी मां अनसूया मंदिर गई थीं. कहा जाता है कि मंदिर के गेट पर जैसे ही वह पहुंचीं, तब ही उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी, और उन्होंने मंदिर के बाहर ही बेटी को जन्म दिया. बेटी के जन्म होने के बाद उनके माता-पिता ने उनका नाम अंबिका रखा था. बाद में उनका नाम ललिता पवार पड़ गया. जिस दौर में ललिता पवार किशोरावस्था में थीं, तब ल़डकियों के लिए इतनी सारी गुंजाईश नहीं थीं. उस जमाने में लोग लड़कियों को पढ़ाते लिखाते नहीं थे. हालाँकि यह कोई नई बात नहीं थी. ललिता को भी समाज का दंश झेलना पड़ा और पढ़ाई लिखाई नहीं कर सकीं. बाल कलाकार के रूप में उन्होंने अपने करियर का शुरूआत की. ललिता पवार अपने पिता के साथ पुणे गई थीं. वहां पर वो शूटिंग देखने के लिए पहुंचीं. जैसे ही फिल्म के निर्देशक की नजर उन पर पड़ी, तो उन्होंने तुरंत ही ललिता पवार को अपनी फिल्म के लिए चुन लिया. यह वह दौर था, जब सिनेमा को इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता था. सोचने वाली बात है, उनके पिता ने सामाजिक बंदिश के कारण बेटी को पढ़ाया लिखाया नहीं. ऐसे कैसे वो अपनी बेटी को कैमरे के सामने अभिनय करने की मंजूरी दे देते. उनके पिता ललिता को अभिनय कराने पर बिल्कुल भी सहमत नहीं थे, लेकिन फिल्म निर्देशक नाना साहेब के समझाने - मनाने के बाद उन्होंने इजाजत दे दी थी. ललिता पवार की पहली फिल्म का इतिहास भी फ़िल्मों की दुनिया में एक इतिहास है. राजा हरिश्चंद्र फिल्म भारतीय सिनेमा की पहली मूक फिल्म थी. ललिता जी ने फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’1928 में बाल कलाकार का रोल निभाया था. महज 9 साल की उम्र में ही ललिता ने एक्टिंग करना शुरू कर दिया था. उनकी पहली बोलती फिल्म ‘हिम्मत-ए-मर्दा’ थी, जो साल 1935 में रिलीज हुई थी. इस फिल्म में वे काफी बोल्ड रोल में नजर आई थीं. इस फिल्म में उनके हीरो भगवान दादा थे. ललिता पवार को शुरू में 18 रुपये वेतन के रूप में मिलता था. उन्होंने 1935 तक साइलेंट फिल्मों में काम किया.
आज के दौर में ऐक्ट्रिस एक्शन फ़िल्में खूब करतीं हैं, तो कुछ अजीब नहीं है, क्योंकि अब स्त्री - पुरुष की गैरबराबरी जैसा कुछ नहीं है. ललिता पवार के दौरान यह सब अजूबे से ज्यादा है. फिल्म पतिभक्ति में ललिता पवार ने किसिंग सीन भी किए थे. ये सोचना असंभव लगता है कि उस वक्त कैसे हुआ होगा. क्योंकि समाज ज्यादा खुला नहीं था. ललिता पवार बहुत ज्यादा उदारवादी रही होंगी, इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है. ललिता पवार ने एक्शन फिल्में भी की थीं. दिलेर जिगर फिल्म में बारे में- "हमीर (हीरो) नकाब पहने हुए सैनिकों से लड़ता है. वो सब दुष्ट राजा के लोग हैं. गजब की तेजी से लड़ता है, हमीर महल से लेकर गार्डन तक, महल के अंदर से लेकर राजदरबार हर जगह खूब लड़ता है, लेकिन फिल्म के अंत में ललिता पवार की ज़ोरदार दस्तक होती है, मास्क पहनकर आती हैं, और हीरो को बचाती हैं. तो हीरो चौंककर पूछता है कि तुम कौन हो. हालाँकि यह फेमिनिस्ट फिल्म नहीं थी, लेकिन ललिता पवार की बॉडी लैंग्वेज फेमिनिस्ट थी. उस वक्त ये देखना बहुत ही अचंभित करने वाली बात थी,क्योंकि स्टंट करनेवाले अलग लोग ही होते थे. फियरलेस नादिया भी उस ही वक्त थीं. जिनसे मिलते-जुलते कैरेक्टर का रोल कंगना राणावत ने रंगून फ़िल्म में किया है. आज के बदलते दौर में भी एक्शन को औरतों का जॉनर नहीं माना जाता. जब तापसी पन्नू, दीपिका, कटरीना, आदि एक्शन करती हैं, तो उसको अलग से प्रचारित किया जाता है. लेकिन ललिता पवार ने अपने दम पर बहुत पहले ये कर लिया था. आज के दौर में सिनेमा में बहुत कुछ नए - नए प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन कुछ नए - नए ट्रेंड में चल रहीं चीज़े बहुत पुरानी हैं, हालांकि कुछ नया करने के उद्देश्य से किया जा रहा है, नया कुछ भी नहीं है, लिहाज़ा अधिकांश दर्शकों की सिनेमाई समझ ज़रूर सतही तौर पर है.
ललिता ने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत बाल-कलाकार की तरह आर्यन फ़िल्म कंपनी के साथ की. मूक प्रोडक्शन वाली फ़िल्मों की मुख्य भूमिका वाले नारी-चरित्रों की भूमिकायें निभाता उनका फ़िल्मी सफर जारी रहा. उस समय फ़िल्मों में उनका स्क्रीन नाम 'अंबू' था. मूक स्टंट फ़िल्म ‘दिलेर जिगर’ उनकी प्रारंभिक सफलतम फ़िल्मों में शुमार है, जिसे ललिता के पति जी.पी. पवार ने निर्देशित किया था. अवाक फ़िल्मों से बोलती फ़िल्मों की यात्रा में सहभागी रहीं, ललिता ने टॉकी फ़िल्मों में भी कई मुख्य भूमिकाएँ कीं. जिनमें शामिल हैं ‘राजकुमारी’1938, ‘हिम्मत-ए-मर्द’ 1935 और ‘दुनिया क्या है’ 1937 ‘दुनिया क्या है’ ललिता की ही निर्माण की हुई फ़िल्म थी. आज भी ऐक्ट्रिस फ़िल्मों को प्रोड्यूस कर रही हैं, लेकिन ललिता पवार फिल्म निर्माता के रूप में पहले ही अपना पावर दिखा चुकी हैं, यह संदर्भ भी चर्चा में आना चाहिए.
मुख्य भूमिकायें निभातीं ललिता पवार की किस्मत ने पलटा खाया और एक दुर्घटना ने उनका चेहरा बिगाड़ दिया था. उनकी आंखों की रोशनी भी खराब हो गई. लेकिन ललिता पवार ने हिम्मत नहीं हारी. अभिनय का साथ नहीं छोड़ते हुए चरित्र-प्रधान रोल करने लगीं.भगवान दादा से जुड़ा एक विवाद ललिता पवार की बायोग्राफी 'द मिसिंग स्टोरी ऑफ ललिता पवार" में जिसका जिक्र है, जिसके लिए शायद उन्हें कभी न भूला जा सकेगा. वो ललिता पवार से जुड़ी है.'सन 1942 में 'जंग-ए आज़ादी' फिल्म की शूटिंग के दौरान भगवान दादा को एक थप्पड़ ललिता को मारना था. उन्होंने इतनी जोर से मार दिया कि ललिता चोटिल होकर बेहोश होकर जमीन पर गिर गईं,उनकी बाईं आंख की एक नस अंदर से फट गई. उनके मुंह के बाईं ओर लकवा हो गया, डेढ़ दिन तक कोमा में रहीं, तीन साल उनका इलाज चला लेकिन आंख सही नहीं हो पाई. ललिता पवार का चेहरा उसके बाद हमेशा के लिए बदल गया. ललिता पवार अब तक हिन्दी सिनेमा की सबसे सुन्दर अदाकाराओ में गिनी जाती थीं. हीरोइन के तौर पर उनका प्रोफाइल भी निगेटिव हो गया. उन्हें नेगेटिव रोल बहुत मिलने लगे. सकारात्मकता ढूढ़ने वाला इंसान कभी भी नकारात्मक नहीं हो सकता. फिल्मी पर्दे की खलनायिका असल ज़िन्दगी में कितनी आला स्वभाव की मालकिन थीं, बाद में बुरी औरत के किरदारों में अपनी लोकप्रियता का श्रेय वे भगवान दादा को देती थीं. आम इंसान के लिए यह सब करना आसान नहीं होता. ललिता पवार भले ही सिल्वर स्क्रीन पर क्रूरता के लिए जानी जाती हों, लेकिन असल ज़िन्दगी में वो आला इंसान थीं. इसके बाद फ़िल्म ‘रामशास्त्री’ 1944 में अपनी खराब हो चुकी बायीं आंख का कलात्मक प्रयोग क्रूर और परंपरागत सास की भूमिका में किया. उनकी यह भूमिका उनका सर्वाधिक मशहूर स्क्रीन इमेज बन गई. 1960 और 1970 के दशकों में ललिता जी अधिकांश ऐसी ही भूमिकाओं में देखी जा सकती हैं. फिल्म पतिभक्ति में ललिता पवार ने किसिंग सीन भी किए थे. ये सोचना असंभव लगता है कि उस वक्त कैसे हुआ. शायद समाज ज्यादा खुला था. ललिता पवार ने एक्शन फिल्में भी की थीं.
एक कलाकार दूसरे कलाकार का कैसे सम्मान करता है, चाहे वह उम्र में छोटा हो या बड़ा हो, कला के प्रति समर्पण ही नहीं सम्मान भी एक कलाकार का आभूषण है. ललिता जी की ज़िन्दगी का एक नायाब अध्याय उनकी शख्सियत की कहानी सुनाता है. कालांतर में महाराष्ट्र में एक महापुरुष रामगणेश की पुण्यतिथि मनाई जा रही थी. उस प्रोग्राम में ललिता पवार एक अतिथि गेस्ट के रूप में शामिल हुईं थीं. जहां पहले एक डांस हुआ और फिर एक प्रसिद्ध गायिका ने कलाकारों को इनाम दिया गया था. इसके बाद एक छोटी सी लड़की गाने के लिए बैठी. उसने इतना अच्छा गाया कि ललिता जी खुद को ही भूल गई. बस वो लड़की दिखाई दे रही थी और उसकी आवाज सुनाई दे रही थी. ललिता जी को गुस्सा आया कि इस लड़की को कोई इनाम क्यों नहीं मिल रहा है. ललिता जी गुस्से में खड़ी हो गई . और कह दिया कि मेरी तरफ से इस लड़की को सोने का मैडल इनाम दिया जाए. लिहाज़ा उन्हें होश आया कि मैं सोने का मैडल लेकर कहां आई हूं. फिर चुपचाप अपनी जगह बैठ गई. बाद में उन्होंने सोने के कुंडल बनावाए और कोल्हापुर जाकर उस लड़की को दे दिया. उस लड़की का नाम लता मंगेशकर था.
ललिता पवार बहुआयामी प्रतिभा संपन्न अभिनेत्री थीं जो ऐतिहासिक फ़िल्मों के इतिहास में शामिल हो गईं. पौराणिक फ़िल्मों संग देवी-देवताओं की फ़िल्मों का अभिन्न अंग थीं. कॉमिक फ़िल्मों में दर्शकों को खूब गुदगुदाती थीं. थ्रिलर फ़िल्मों की सनसनी और सामाजिक फ़िल्मों की सामाजिक छवि बन गईं. ललिता ने हिंदी सिनेमा को अपनी कई यादगार भूमिकाएं की. हिन्दी सिनेमा में सबसे ज्यादा एक फिल्म में 9 किरदार निभाने के लिए ग्रेट संजीव कुमार को याद किया जाता है, लेकिन ललिता पवार ने अपनी अदाकारी का ऐसा सुनहरा इतिहास लिखा है, जिसे बहुमुखी अदाकारी का पूरा का पूरा सिलेबस कहा जाए तो भी कम है, सन 1930 में बनी फिल्म ‘चतुर संदरी’ में तो ललिता ने 17 रोल किए थे जो सिनेमाई दुनिया में एक रिकार्ड है, आज के दौर में एक पीएचडी है. जंगली फिल्म में शम्मी कपूर की माँ, ‘श्री 420’ में केला बेचने वाली, ‘आनंद’ की संवेदनशील मातृछवि और ‘अनाड़ी’ की गौरव-गुरूर मिसेज डिसूजा को कौन भूल सकता है. ललिता पवार को कभी भूला नहीं जा सकता. ललिता पवार महज एक अभिनेत्री ही नहीं हिन्दी सिनेमा के अपने सात दशक लंबे सफर की गाथा का एक हिस्सा थीं. मुख्य भूमिकाएं निभातीं सुंदर अभिनेत्री ही नहीं नारी की तमाम अभिव्यक्तियों को अभिनीत करतीं, सह-अभिनेत्री भी थीं.
हिन्दी सिनेमा में दौलत, शोहरत मिलना कोई मुश्किल काम नहीं है,अगर प्रतिभा हो. फिर भी इसकी कोई गारंटी नहीं है, कि यह हमेशा कायम रहे. हिन्दी सिनेमा में ऐसे बहुत से सितारे समय से पहले ही गुज़र गए, बहुत से पहले ही टूट गए. ज़िन्दगी के शुरुआत में मौत को मात देने वाली दिलेर ललिता का अंतिम समय बड़ा नाजुक रहा है. कठिन बीमारी के चलते 24 फरवरी 1998 को 82 साल की उम्र में ललिता पवार ने पुणे में अपने बंगले आरोही में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था. किस्मत का क्रूर मज़ाक उनके पास कोई भी नहीं था. उनकी मौत के दौरान उनके पति भी हस्पताल में भर्ती थे. तीन दिन बाद दुनिया को पता चला कि अदाकारी का युग वाकई खत्म हो गया. किस्मत ऐसा खेल किसी के साथ न खेले एक यह मौत भी शापित हिन्दी सिनेमा की दुनिया के रहस्य को उजागर करती है. आज ललिता पवार भले ही हमारे बीच नहीं हैं किन्तु फिल्मों में उनकी निभाई भूमिकाओं से वे हम सबके बीच अमर रहेंगी.....
दिलीप कुमार
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