महान जगजीत सिंह जी

"टूटे हुए दिलों के महबूब ग़ज़ल सम्राट, रागिनी उस्ताद"

(महान जगजीत सिंह जी)

टूटे हुए दिलों के महबूब ग़ज़ल सम्राट, रागिनी उस्ताद, कितने सारे नाम कह लीजिए, जो भी खुद को उनके साथ जोड़ पाए. जगजीत सिंह जी कमाल के फनकार थे. हम जैसे करोड़ों टूटे हुए मन जब सिरहन से भर जाते हैं, तब तब हम जगजीत सिंह जी अपनी मौसीक़ी से सुकून की अनन्त यात्रा में ले जाते हैं. यूँ तो जगजीत जी को याद करना करुणा से भर जाना होता है, लिहाजा जब उनको अपनी कैफ़ियत के वक़्त याद करेंगे तो आज भी ये महान फनकार मरहम लेकर आते हैं. यूँ तो हमारे वतन में किसी बड़े व्यक्ति के चले जाने पर एक कहावत चरितार्थ है "यूँ लगता है एक अध्याय समाप्त हो गया एक युग का अंत हो गया", लेकिन जगजीत सिंह जी का दुनिया से रुख़सत करना सचमुच केवल उनका जाना नहीं था, बल्कि एक युग का ही खत्म हो जाना था... एक खत्म होते युग के साथ नया युग भी शुरू होता है. वो युग है महान जगजीत जी को अपनी सांसो में घोलने का युग, उनको कभी न भूलने का युग... उनको याद करते हुए उनकी लगाई गई मौसीक़ी की फसल को अपने दो आंसुओ से सीचने का युग है, अब केवल यही युग रहेगा, कभी बदलेगा तो हम भी नहीं होंगे.. 

शब्दों के बादशाह गुलज़ार साहब ने जगजीत जी के दुनिया छोड़ जाने के बाद अपने अंदर एक खालीपन को महसूस करते हुए लिखा -

एक बौछार था वो शख्स,
बिना बरसे किसी अब्र की सहमी सी नमी से
जो भिगो देता था
एक बोछार ही था वो,
जो कभी धूप की अफ़शां भर के
दूर तक, सुनते हुए चेहरों पे छिड़क देता था
नीम तारीक से हॉल में आंखें चमक उठती थीं

सर हिलाता था कभी झूम के टहनी की तरह,
लगता था झोंका हवा का था कोई छेड़ गया है
गुनगुनाता था तो खुलते हुए बादल की तरह
मुस्कराहट में कई तरबों की झनकार छुपी थी
गली क़ासिम से चली एक ग़ज़ल की झनकार था वो
एक आवाज़ की बौछार था वो....

ज़िन्दगी के साथ म्युज़िक चलता रहा, इकलौता बेटा ज़िन्दगी से पानी की तरह लुढ़क गया, उनकी हमसफ़र ख़ामोश हो गईं थीं, फ़िर भी जगजीत जी की मौसीक़ी का सफ़र जारी रहा.. जहां उनके लबों से दर्द की ऐसी वेगवान लहरें उठती की आज हम सब को दर्द से भिगो जाती हैं. जिस शहर से सजदा के हाथ उठे, ज़िन्दगी से वो सजदा हमेशा के चला गया, जो बचा रहा वो खाली एक शहर था, लेकिन एक ब्राम्हण ने कहा है कि ये साल अच्छा है, अफ़सोस जगजीत जी का वह साल कभी आया ही नहीं... जगजीत सिंह जी का वो साल तो नहीं आया. ज़िन्दगी एवं संगीत एक साथ चलते रहे, लेकिन जब दर्द की इन्तेहा हो गई तो जगजीत जी के लब बोल उठे "आदमी आदमी को क्या देगा जो देगा वही खुदा देगा".

भारत में ग़ज़ल ने अपने पैरों में विलासिता के घुँघरू बांधकर पदार्पण नहीं किया था, बल्कि भारतीय संस्कृति के साथ गठजोड़ करते हुए पंडित एवं मौलाना के साथ कभी दुआओं में हाथ जुड़े तो कभी हाथ में शास्त्रीय संगीत के साथ भजनों का खड़ताल लेकर अपना मुकाम हासिल किया था. ईरान की मौसीक़ी की विधा ग़ज़ल जब भारत पहुंची तो उसको संतों एवं सूफियों की संगति से प्रचलित हुई. ग़ज़ल अपने पांच सौ साल के इतिहास में अमीर खुशरो, ग़ालिब मीर, जॉक, फ़िराक़ गोरखपुरी, से लेकर दुष्यंत कुमार से लेकर राजेश रेड्डी तक अपने सामयिक बदलाव के साथ आम लोगों से जुड़ी रही. भारतीय शास्त्रीय संगीत के मिथकों से थोड़ा हटकर अपनी शास्त्रीय संगीत में ग़ज़लों को गाने वाले महान गायक जगजीत सिंह जी हैं. वो जगजीत जी ही थे, जिन्होंने रकाशाओं के घुँघरूओ, कोठों से बाहर निकालकर आम लोगों के साथ जोड़ दिया. यही कारण है कि आम आदमी की भूख जहां पेट - पीठ का फर्क़ खत्म हो जाता है, उसी दर्द एव राजनीतिक बटवारे के दर्द को ग़ज़ल गायिकी के धरातल पर उतारा तो लोग जुड़ते चले गए. लोगों के जुड़ने के साथ ही ग़ज़ल के शुध्दता वादी अपनी समझ के साथ हाशिये पर चले गए थे. महान गीतकार/कवि गोपालदास नीरज ने जगजीत सिंह जी के हुज़ूर में कहा था -
                                                       "ग़ज़ल हिन्दी उर्दू भाषा की लोकप्रिय विधा है, कभी वक़्त था ग़ज़ल जुल्फों के साए में उलझी रहती थी, और घुँघरूओं की थिरकन में एक लंबे अर्से तक बिल्मी रही है. अब वो वहाँ से मुक्त होकर भीड़ से भरे चौराहे पर आकर खड़ी हो गई है. उसी चौराहे से होते हुए आम लोगों के घरों तक भी पहुंच गई. इसका कारण कोई और नहीं बल्कि जगजीत सिंह जी हैं. आज की ग़ज़ल राजनीतिक स्वार्थ, अराजकता, भ्रष्टाचार जनसरोकार को मार्मिक भावों को उत्तम शब्दों में व्यक्त कर रही है, पढ़े - लिखे एवं अनपढो के पास पहुंचने के लिए भाषा जो संस्कार, शैली का जो कौशल होना चाहिए, वो सब आज की ग़ज़लों में पूर्ण रूप से व्याप्त है'. आज के दौर में ग़ज़ल उस खाई को पाटने का काम कर रही है, एवं भाषा का एक ऐसा रूप गढ चुकी है, जो हिन्दी उर्दू से हटकर प्रेम की भाषा बन चुकी है. जब नफ़रत दिलो दिमाग में भर रही थी, तब जगजीत जी अपने सूफ़ी अंदाज़ में मुहब्बत बांटे जा रहे थे. महान शायर दुष्यंत कुमार जी की कविता जगजीत जी की शख्सियत पर सटीक बैठता है
              
"मैं जिसे ओढ़ता,बिछाता हूं वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
 एक जंगल है तेरी आँखों में जहां मैं राह भूल जाता हूँ
 तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं एक पुल सा थरथराता हूं,
 हर तरफ एतराज होता है मैं अगर रोशनी में आता हूं,
 एक बाजू उखड़ गया जब से और ज्यादा वजन उठाता हूं,
मैं तुझे भूलने की कोशिश में आज कितने करीब पाता हूं
कौन से फासला निभाएगा मैं फरिश्ता हूं सच बताता हूं".
इकलौते बेटे के गुजरने के बाद अथाह दर्द को समेटे हुए इस कविता के बाद जगजीत जी गाते थे" चिट्टी न कोई संदेश जाने वो कौन सा देश कहाँ तुम चले गए, खुद तो रोते ही थे, अपने श्रोताओं को भी रुलाते थे, आज उनके चाहने वालों को वही दर्द - दुःख होता है उनके चले जाने का जो कभी वो खुद महसूस करते हुए गाते थे. यह भी सच्चाई है आधुनिक ग़ज़ल गायिकी में जगजीत जी किसी भगवान की तरह थे. जगजीत जी के इंस्ट्रूमेंटल प्रयोगों ने ग़ज़ल गायिकी को एक नई जिंदगी दी थी. उनकी ग़ज़लों में शास्त्रीय संगीत तो होता ही था, साथ ही उनकी तिलिस्मी भारी आवाज़ का जादू भी था.. होश वालों को खबर क्या जिन्दगी क्या चीज़ है आज भी गुनगुनाते सुनते हुए मैं उसी यात्रा पर चला जाता हूँ जहां जगजीत जी हमेशा जाते थे. आधुनिक इंस्ट्रूमेंट का मधुर प्रयोग भी अलहदा था. आधुनिक इंस्ट्रूमेंट के प्रयोगों के कारण हमेशा उन पर आरोप लगते रहे हैं, कि उन्होंने ग़ज़लों की शुद्घता के साथ छेड़छाड़ की है, जगजीत जी जवाब में कहते थे "संगीत में थोड़ा बदलवा ज़रूर किया है, लेकिन लफ्जों के साथ छेड़छाड़ कभी नहीं की, यह बात उनकी ग़ज़ल की समझ को बयां कर रही है. 

जगजीत जी का सिनेमाई ग़ज़ल गायन अद्भुत था, उनकी ग़ज़लें घर - घर पहुंच चुकी हैं, कौन भूल सकता है "होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो-2 नई रीत चलाकर तुम मेरी जीत अमर कर दो", जगजीत सिंह बनना आसान नहीं होता उनकी अपनी साधना का प्रतिफल है, जिसके लिए अनन्तकाल तक जिवित रहेगे, लेकिन जब उन्होंने पेशेवर ग़ज़ल गायिकी, एवं पार्श्व गायन शुरू किया, तब बेगम अख्तर, बड़े गुलाम अली साहब, मेंहदी हसन, तलत महमूद, फरीदा खामुन, शास्त्रीय ग़ज़ल, शस्त्रीय संगीत स्थापित दिग्गजों, जो रियाज़ के साथ शस्त्रीय संगीत पर अपना स्वामित्व रखते थे. इन धुरंधरों के सामने अपनी गायिकी से लोगों को परिचित कराना आसान नहीं था. जगजीत जी के बिना गुलजार साहब का मिर्जा ग़ालिब शो बन ही नहीं सकता था. जगजीत जी प्लेबैक सिंगर बनने के लिए बॉम्बे आए थे, लेकिन उन्होंने अंधा तलाशबीन बनना नहीं चाहा, क्योंकि नियति उनको ग़ज़ल सम्राट बनाना चाहती थी. ख्वाहिशों एवं किस्मत के साथ झूलती हुई जिंदगी की जिंगल गायिकी से शुरुआत हुई, और हमसफ़र चित्रा सिंह जी का साथ मिला. एक तो बेशुमार पैसे एवं बेशुमार दर्शकों के लिए गाना एवं प्लेबैक सिंगर की हसरतें भी जवान हो रहीं थीं.किस्मत एवं भारी आवाज़ के कारण मन्ना डे, रफी साहब, किशोर कुमार, मुकेश जैसे धुरंधरों के युग में उनकी भारी आवाज़ उनका रोड़ा बनी. अनन्त उनका बड़ी - बड़ी महफ़िलों में गाना एवं बन चुकी पहिचान का फायदा मिला वासु भट्टाचार्य की फिल्म आविष्कार में जगजीत जी एवं चित्रा सिंह जी दोनों ने अपना पहला प्लेबैक गीत 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए' गाया, जो बहुत लोकप्रिय हुआ, लेकिन अभी भी जगजीत जी की गायिकी का चमत्कार होना बांकी था. चित्रा सिंह एवं जगजीत जी दोनों का जब पहला एल्बम दी अनफॉरगेटबल आया उस एल्बम से तो ग़ज़ल गायिकी में उनकी जादुई आवाज़ का जादू एवं उनके इंस्ट्रूमेंट के प्रयोगों की मेलोडी ने ग़ज़लों की परम्परागत सारी मान्यताओ को ताक पर रख दिया था. उसके बाद उनके कई सारे सुपरहिट एल्बम आए, इसके बाद जगजीत सिंह वहाँ पहुँच चुके थे, जिस मुकाम का जिक्र करना चाहता हूं. ए फेवरेट माइलस्टोन 1980, मैं और मेरी तन्हाई 1981, 'द लेटेस्ट 1982,
'द साउंड अफेयर्स इकोस1882, बियोंड टाइम,1987, मिर्जा ग़ालिब1988, आए थे.

जगजीत जी के लिए 1970 और 80 का दशक करियर में एक मील का पत्थर के रूप में रहा. उनका संयोजन एल्बम जिसमें फिल्म "अर्थ" और "साथ-साथ" का संगीत शामिल है. एचएमवी का अब तक का सबसे अधिक बिकने वाला एल्बम है. लता मंगेशकर के साथ उनका मैग्नम ओपस एल्बम "सजदा" गैर फिल्म श्रेणी में एक ही रिकॉर्ड रखता है. 
उन्होंने अपने एल्बम "बियॉन्ड टाइम" के लिए मल्टी ट्रैक रिकॉर्डिंग की तकनीक किया था. ऐसा करने वाले पहले भारतीय संगीत निर्देशक थे. वे गजल विधा को समाज के सभी वर्गों के लिए समझने योग्य बनाने वाले महान संगीतकार थे. जगजीत सिंह से पहले, ग़ज़ल गायन को एक कुलीन कला माना जाता था, जिसे उच्च श्रेणी की उर्दू और फ़ारसी के कारण आम जनता के लिए समझना मुश्किल था. उन्होंने "कागज़ की कश्ती", "चक जिगर के", "कल चौदवी की रात थी" और "शाम से आँख में नामी सी हे" जैसी ग़ज़लों के साथ आकर इस मिथक को तोड़ा. उन्हें ग़ज़ल गायन शैली के पुनरुद्धार और लोकप्रियता का श्रेय दिया जाता है. । उन्होंने ऐसी कविता चुनी जो जनता के लिए प्रासंगिक थी. वे समझ सकते थे. भारतीय शास्त्रीय संगीत में गीतों की रचना करने की उनकी शैली को "बोल प्रधान" कहा जाता है, जिसमें शब्दों पर जोर दिया जाता है. ग़ज़ल संगीत शैली में पहले मुस्लिम कलाकारों और पाकिस्तान से संबंधित लोगों का वर्चस्व था. उन्हें गालिब, कातिल शिफाई, फिराक गोरखपुरी, निदा फाजली और सुदर्शन फाकिर जैसे दिग्गजों के शब्दों को मधुर स्वदेशी धुनों के साथ मिलाने के लिए जाना जाता है. उन्होंने पंजाबी, हिंदी, उर्दू, नेपाली और बंगाली सहित कई भारतीय भाषाओं में गाया था. जगजीत जी यूँ तो महान संगीतकार, कंपोज़र माने जाते हैं, लेकिन उन्होंने खुद को सबसे पहले एक गायक ही माना. जगजीत जी कभी भी केवल फ़िल्मों पर आश्रित नहीं रहे, उनकी फ़िल्में कभी हिट होतीं कभी न होतीं, यही कारण है कि उन्होंने टीवी शोज़ के लिए भी मना नहीं किया बाद में वही टीवी शो यादगार बन गए. उन टीवी शोज में नीम का पेड़, कहकशाँ, औरत, किरदार, राहत, कशिश, इनमे सबसे खास है जो गुलजार साहब ने बनाया 'मिर्ज़ा ग़ालिब', जगजीत कहते थे "मिर्जा ग़ालिब में मैंने ग़ालिब की तरह गाने की कोशिश की थी, जगजीत सिंह की तरह नहीं, यही कारण है कि नसीरूद्दीन शाह, एवं जगजीत सिंह के रूप में लोगों के जेहन में अंकित हो गया था. फ़िल्मों में उनका सुपरहिट गायन तो परवान चढ ही रहा था, साथ ही उनके अमर एल्बम की संख्या बढ़ती जा रही थी, जगजीत सिंह अब तक तो जीते जी किंवदन्ती बन गए थे. नाम एवं शोहरत के बीच ज़िन्दगी के ऐसी पलटी मारी, वो मौका था जब उनके इकलौते बेटे की सड़क हादसे में मौत हो गई, होनी कोई टाल नहीं सकता था, लेकिन पिता के ज़ज्बात भी कौन बदल सकता है. जिस दिन उनके बेटे का कार एक्सीडेंट हुआ उस दिन जगजीत जी लाईव शो में गा रहे थे "दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्ला"गाते हुए उनकी बेचैनी बढ़ रही थी, और अनायास उनके आंसू बह पड़े थे, जगजीत जी के साथ यह कोई नया नहीं था, लेकिन इस बार उनकी अन्तरात्मा रो रही थी. ऐसे ही समय उन्हें खबर मिली कि उनके बेटे की असमय मौत हो गई है. बेटे के अंतिम संस्कार के बाद उन्होंने कहा "कल शाम की मेरी दुआ कुबूल हो गई अल्ला ने दर्द से मेरा दामन भर दिया". बेटे की मौत से चित्रा सिंह जी टूट गई और सिंगिग छोड़ दिया, लेकिन जगजीत जी अकेले ग़ज़लें गाते रहे, एवं खुद भी रोते रहे, और बात वहीँ आकर रुक गई कि ब्राम्हण ने जो साल कहा था कि अच्छा है, वो कमबख्त साल आया क्यों नहीं... जगजीत जी गायिकी में फिर से लौट आए, उनकी लोकप्रियता और ज्यादा थी, बस माहौल बदल गया था, वो अब खुद भी गाते हुए रोते थे, और अपने दर्शकों, श्रोताओं को रुलाते थे, लेकिन उनके प्रशंसक इसे भगवान का प्रसाद समझकर उन आंसुओ, उस दर्द को स्वीकार करते थे, सब कुछ खो देने के बाद भी उनका ईश्वर पर विश्वास बना हुआ था, उन्होंने हर ईश्वर के लिए भजन भी गाए. जगजीत जी की गायिकी का मयार बहुत ऊंचा है, उसे कुछ पन्नों में बता पाना मुमकिन नहीं है. उनके ऊपर हजारों किताबे लिखी गईं हैं, बहुत बोला गया है. उनकी आवाज़ एवं शस्त्रीय संगीत, ग़ज़ल गायिकी का आयाम हमेशा मानक बना रहेगा. जगजीत जी के जिक्र के साथ जेहन में ग़ज़लें घूमने लगती हैं, जो हमेशा हमारे दिलों में बनी रहेंगी.

जगजीत जी को रागिनी उस्ताद कहा जाता है, महान ग़ज़ल गायक गुलाम अली कहते हैं - एक बार मैं जगजीत भाई लंदन में एक कंसर्ट करके एक एक हमारा कॉमन मित्र डॉ के पास पहुंचे. वही बैठे हुए जगजीत भाई ने सिगरेट जलाई, तब मैंने कहा "जगजीत भाई मुझे भी एक सिगरेट दीजिए, तब हमारे मित्र डॉ ने कहा "गुलाम साहब आप सिगरेट मत पिया करिए हम जैसे थके हारे आते हैं घर तो आपकी आवाज ही तो सहारा है, अतः आप सिगरेट न पिएं", तब हंसकर जगजीत भाई बोले. " डॉ. यार तुमने मुझे नहीं टोका क्या मैं अच्छा गायक नहीं हूं? तब डॉ ने कहा. " जगजीत साहब आपकी आवाज सिगरेट के कश से खराब नहीं होने वाली आपकी आवाज में रागिनी है" यह किस्सा कहते हुए गुलाम अली रोने लगे थे. मैंने हज़ारों उनके फैन्स को भी उनके जिक्र के साथ रोते देखा है, उनके दौर के महान गायक भी उनको याद करते हुए रोने लगते हैं. इस तरह की मुहब्बत बिरले लोगों को मिलता है. भारत में ग़ज़ल गायिकी के उनके योगदान को देखते हुए रफी साहब के साथ जगजीत जी को भी जल्द भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए.... हालाँकि जगजीत जी को उनके फैन्स किसी भी सम्मान से ज्यादा सम्मान करते हैं. 

इस दुनिया बहुत से शायर हुए लेकिन जगजीत सिंह सिर्फ एक ही थे. जगजीत सिंह आख़िरकार शारीरिक रूप से 10 अक्टूबर 2011 को इस नाटकीय दुनिया से रुखसत हो गए... अनूप जलोटा, गुलाम अली, पंकज उदास जैसे उस्ताद उनको याद करते हुए कहते हैं कि जगजीत भाई की महफ़िल स्वर्ग में भी लगती होगी... उनका न होना बहुत खलता है.. व्यक्तिगत रूप से ग़ज़ल सम्राट को मैं कभी भी नहीं सकता... इस भगवान जैसे शख़्स को मेरा प्रणाम........ 

दिलीप कुमार

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