प्राण साहब
हिन्दी सिनेमा के प्राण 'विलेन ऑफ द मिलेनियम'
(प्राण साहब)
हिन्दी सिनेमा का पहला ऐसा खलनायक जिसकी आवाज़ रुपहले पर्दे पर नायक की शख्सियत से भी बड़ी होती थी. एक ऐसा विलेन जिसकी आवाज़ रोते हुए बच्चों को चुप करा देती थी. एक ऐसी शख्सियत जिसका मयार था, तो बहुत बड़ा, लेकिन उतना ही गूढ़ था. रुपहले पर्दे का सबसे डरावना, विलेन जो असल ज़िन्दगी में महानायक था. उनकी प्रतिष्ठा हिन्दी सिनेमा में अपना खास मुकाम रखती है. उन्होंने अपने किरदार को उतनी शिद्दत से निभाया कि उनका हर किरदार अमर हो गया. उनकी ख़राब आदमी की छवि ही बन गई थी. उनके नाम को ख्याति मिलने के बाद किसी ने वो नाम ही नहीं रखा. वो नाम अराजकता का प्रतीक बन गया था...आज याद करने का दिन है, हिन्दी सिनेमा के 'विलेन ऑफ द मिलेनियम' प्राण साहब....
प्राण साहब का नाम प्राण कृष्ण सिकंद' था, प्राण साहब 12 फ़रवरी 1920 को इस दुनिया में जन्मे थे. प्राण साहब एक पंजाबी धनाढ्य परिवार में पैदा हुए, उनकी इस रईसी, एक ताब को हर किरदार में देखा जा सकता है. प्राण साहब बचपन से ही पलायन भागमभाग में ही अपनी ज़िन्दगी को करीब से देखने का नज़रिया ईज़ाद कर चुके थे. आख़िरकार अदाकारी के लिए सबसे ज्यादा किसी एक टूल एक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है. कई बार इंसान सोचता कुछ और है होता कुछ और ही है... प्रारब्ध में जो अंकित है, ज़िन्दगी भी इंसान को उसी ढर्रे पर ले जाती है. प्राण साहब के हाथ में आया कैमरा फोटोग्राफर बनने का सपने पाले प्राण साहब को प्रारब्ध ने अदाकारी के लिए चुना. शिमला की वादियों में फोटोग्राफी के गुर सीख रहे प्राण साहब ने देखा कि वहाँ रामलीला हो रहा है, लेकिन सीता का किरदार निभाने वाले अभिनेता गायब है. प्राण साहब के लिए नियति ने तय कर रखा था, कि प्राण कैमरे को फॉलो नहीं करेंगे कैमरा उनको फॉलो करेगा.... उनके राम चरित्र अभिनेता मदनपुरी बने थे. प्राण साहब डिनर के बाद पान खाने के शौकीन हमेशा पान की दुकान पर जाते थे. एक दिन सिगरेट के छल्ले बना रहे थे, तभी पंजाबी फ़िल्मकार 'वली मुहम्मद वली' ने अपने अंदाज़ में सिगरेट के कश मारते हुए देखकर बहुत ही इम्प्रेस हुए. उन्होंने प्राण साहब को फ़िल्मों में काम करने का ऑफर दिया एवं अपना कार्ड देकर चले गए, लेकिन प्राण को एक मज़ाक लगा. अगले ही दिन एक सिनेमाहॉल में 'वली मुहम्मद वली' से प्राण साहब की फिर मुलाकात हो गई. यहीं से प्राण साहब फिल्मी दुनिया में शिरकत कर गए. 1940 में फिल्म 'यमला जट' में पदार्पण करते हुए प्राण साहब ने उम्दा अदाकारी से सभी को पसंद आए, और विलेन के रूप में स्थापित हो गए. इसके साथ प्राण साहब सन 1942 में हिन्दी सिनेमा में फिल्म खानदान से डेब्यू किया. यही एक इकलौती फिल्म है, इसमे प्राण साहब बतौर हीरो नज़र आए. उनके साथ ऐक्ट्रिस एवं गायिका नूरजहां थीं. प्राण साहब हीरो तो बन गए, लेकिन उन्होंने अपने पिता को नहीं बताया, कि वो फ़िल्मों में काम करते हैं, क्योंकि उनको पता था, अनुमति नहीं मिलेगी. उन्हीं दिनों एक मैग्जीन में उनका इंटरव्यू प्रकशित हुआ, उन्होंने मैग्जीन छिपा दी, पिता की नज़र पड़ी, उनके पिता ने कहा "कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता अच्छा - बुरा ज़रूर होता है, दिल लगाकर करो. अपने पिता से मिली हरी झंडी उनके लिए वरदान सिद्ध हुई.
जल्द ही प्राण साहब की शादी हो गई, यह आजादी का दौर था. जब दो मुल्कों में भारत बाँटे जाने के नाम पर दंगे हो रहे थे. प्राण साहब ने शुरुआती दौर में सन 42 से 46 तक लगभग 20, फ़िल्मों में काम किया. जिनमे से 18 फ़िल्में सन 1947 तक रिलीज हो गईं थीं, बांकी फ़िल्में भारत विभाजन पर अटक गईं थीं. हालाँकि बंटवारे के बाद प्राण साहब की दो फ़िल्में पाकिस्तान में रिलीज हुई. हालाँकि प्राण साहब समझते थे, कि मुझे बंबई का रुख कर लेना चाहिए. वे अपने परिवार के साथ मुंबई आ गए, आकर उन्हें जल्दी से काम नहीं मिला और उन्हें अपने परिवार के भरण पोषण के लिए चिंता सताने लगी. मशहूर लेखक 'सआदत हुसैन मंटो' की मदद से उन्हें 1948 में बॉम्बे टॉकीज़ की फिल्म ज़िद्दी मिली. जिसके बाद उन्हें फिल्मों में नेगेटिव रोल मिलने लगे. ये राज कपूर साहब, देव साहब एवं दिलीप साहब त्रिमूर्ति के साथ भी खूब हिट हुए. उस दौर में हीरो तो बहुतेरे हुए, लेकिन खलनायक सिर्फ एक ही चर्चित थे 'प्राण' सन 1948, बॉम्बे टाकीज की पहली फिल्म 'जिद्दी' में देव साहब एवं कामिनी कौशल के साथ काम करने का मौका मिला. उस दौर में फ़िल्मों में विलेन बहुत ही क्रूर होते थे, लेकिन सूट - बूट में सलीकेमंद विलेन जो सॉफ्ट बोलता था, उन्होंने ट्रेंड ही बदल कर रख दिया. उस रूप में प्राण साहब स्थापित हुए. प्राण साहब को मेन स्ट्रीम अभिनेता से ज्यादा पैसे मिलते थे. प्राण साहब अपने गेटअप का ख़ास ख्याल रखते थे, हमेशा खुद को अलग - अलग गेटअप में खुद को आज़माया करते थे. ऐसे ही उन्होंने कई रूप फ़िल्मों में भी रखे, खानदान फिल्म में प्राण साहब ने हिटलर का गेटअप, जुगनू फिल्म में मुजीब उर रहमान जैसे मेकअप किया था, जिसमें प्रोफेसर का किरदार निभाया था. बी सुभाष की फिल्म में उन्होंने अब्राहम लिंकन का गेटअप किया था. मेकअप में रुचि रखने वाले प्राण साहब कई बार अपने साथी कलाकारों का भी मेकअप भी कर दिया करते थे.
प्राण साहब समय के पाबंद थे, जिससे उनकी खूब इज्जतअफजाई होती थी. प्राण कहते थे- "पुरानी लाहौर वाली ज़िन्दगी वापस लाकर ही दम लूँगा". प्राण साहब को खूब रोमांटिक रोल ऑफर होते थे, लेकिन ठुकरा देते थे, प्राण कहते थे- "पेड़ों के नीचे हिरोइन के गले में हाथ डालकर नाचने का मुझे शौक नहीं है, मुझे डांस, एवं गाने में रुचि नहीं है, मैं ऐसे रोल नहीं करना चाहता, मुझे इनमे कोफ्त होती है. मैं चरित्र रोल करूंगा या फिर जो मेरी स्टाइल विलेन है'. शीशमहल, अदालत, जश्न ये ऐसी फ़िल्में हैं, जिनमे विलेन बनने के बाद लोग उनसे डरने लगे थे. बी आर चोपड़ा की फिल्म 'अफ़साना' उनकी पहली ब्लॉकबस्टर थी. प्राण को अक्सर लोग गुंडा, लफंगा, बदमाश, चोर कहकर फब्तियां कसते थे, लेकिन प्राण साहब ये गालियाँ सुनकर भी खुश होकर कहते थे, "ये सब मुझसे नफ़रत नहीं करते मेरे किरदारों से नफरत करते हैं, जिन्हें मैंने शिद्दत से निभाया है, एक कलाकार को और क्या चाहिए कि मेरे द्वारा निभाए गए किरदार मेरी पहिचान बन गए, मैं बद नहीं बदनाम होना चाहता हूँ'. प्राण साहब का खौफ ऐसा था, कि उनके साथ काम करने वाली हिरोइने उनसे डरती थी. ऐक्ट्रिस अरुणा ईरानी बताती हैं- "मैं प्राण साहब के साथ जौहर "मेहमूद इन हॉन्गकॉन्ग" की शूटिंग हॉन्गकॉन्ग में कर रहे थे, मेरी एवं प्राण साहब की शूटिंग पूरी हो गई, निर्देशक ने मुझे प्राण साहब के साथ बॉम्बे भेज दिया, कि प्राण साहब अरुणा को घर भेज दीजिएगा, हमे कोलकाता में फ्लाइट छूट जाने के कारण कलकत्ता में रुकना पड़ा क्योंकि अगले दिन मुंबई के लिए फ्लाइट थी, मैंने सोचा प्राण साहब की कोई चाल है, ऐसे कैसे फ्लाइट छूट गई, आज मेरा सचमुच रेप हो जाएगा, लेकिन होटेल में पहुंचकर प्राण साहब ने मुझसे कहा अंदर से दरवाजा लॉक कर लो कोई दिक्कत हो तो मुझे बताना बाजू वाले रूम में ही हूँ, यह सुनकर मैं रूम में अकेले में बहुत रोई कि यह आदमी सिर्फ़ पर्दे पर विलेन है असल ज़िन्दगी में तो महानायक हैं" प्राण साहब के खूबसूरत शख्सियत के किस्से, उनकी करिश्माई शख्सियत, प्रभावशाली आवाज़ अमर हो चुकी है.
निगेटिव किरदारों में 'प्राण साहब' 'दिलीप साहब' के साथ कुछ ज्यादा ही जचे उन फ़िल्मों में प्राण साहब को खूब ववाही मिली. देवदास, आज़ाद, मधुमति, दिलीप साहब एवं प्राण साहब की यारी भी खूब प्रचलित थी, कहा जाता है, कि दिलीप साहब ने प्राण को कॉमिक अभिनय करने में प्राण की असहजता को दूर किया था. दिलीप कुमार की शादी में कश्मीर से शूटिंग छोड़कर प्राण बंबई आ गए थे. वहीँ दिल दिया दर्द लिया, 'राम और श्याम' में प्राण का किरदार कौन भूल सकता है. दोनों की दोस्ती का यादगार अध्याय है.
देवानंद साहब एवं प्राण साहब दोनों अपनी - अपनी स्टाइल के लिए जाने जाते थे. एक रोमांटिक अंदाज़ एक गुस्से के लिए दोनों जब भी पर्दे पर आए पूरी फिल्म में तीसरा कोई दिखा ही नहीं. यूँ तो हिन्दी सिनेमा में प्राण साहब की शुरुआत देव साहब के साथ जिद्दी से हुई, इसके बाद मुनीम जी, अमर दीप, जब प्यार किसी से होता है, वहीँ एवं जॉनी मेरा नाम में दोनों भाई के किरदारों में आए ऐसी फिल्म चली, कि सितारों से भरी इस फिल्म में तीसरा कोई दिखा ही नहीं. प्राण साहब गोल्डन एरा के अनोखे उस्ताद थे, उस दौर में बहुत कम ही लोग थे, जो देव - राज - दिलीप त्रिमूर्ति के साथ अधिकांश सितारे गुट में बंटे हुए थे, लेकिन प्राण साहब जैसे कुछ प्रतिष्ठित अदाकार थे, जो उँगलियों में गिने जा सकते हैं. प्राण साहब देव - राज - दिलीप, त्रिमूर्ति के साथ अकाट्य मित्रता के लिए जाने जाते थे. प्राण साहब ने राज कपूर साहब के साथ भी ढेर हिट फ़िल्मों में काम किया... जिनमे फिल्म 'आह, चोरी - चोरी, जिस देश में गंगा बहती है, जागते रहो, छलिया, दिल ही तो है, जैसी कल्ट फ़िल्मों में राज कपूर साहब के साथ काम किया. प्राण साहब डूबकर अभिनय करते थे, ऑब्जर्वेसन करना रोल के न्यू शेड देखना, आदि खूब काम करते थे. बढ़ते हुए तजुर्बे एवं विकसित हो चुकी सिनेमाई समझ के साथ फ़िल्मकारों को आवश्यक सुझाव भी देते थे. जिस देश में गंगा बहती है' फिल्म में शो मैन राज कपूर को विलेन राका का किरदार निभाने वाले प्राण ने सुझाव दिया था, कि फिल्म में मैं सभी जगह गले पर हाथ रखता रखता रहूँगा, यह महसूस करूंगा कि मेरे गले में फांसी का फंदा एक न एक दिन ज़रूर आएगा, क्योंकि राका जैसे विलेन को हमेशा फांसी से डर लगता है, राज कपूर ने मान लिया, और यह किरदार जीवंत हो गया.
प्राण साहब ने दो ऐसी फ़िल्मों में काम किया जिनमे वो हीरो तो नहीं थे, लेकिन फिल्म उन्हीं के नाम से याद की जाती हैं. एक पिलपिली साहिब दूसरी थी 'हलाकू' फिल्म का किरदार आज भी याद किया जाता है. हलाकू' फिल्म में जब मीना कुमारी के अपोजिट प्राण को साइन किया, तब मीना कुमारी ने फौरन मना कर दिया कि प्राण मेरे साथ इस किरदार में फिट नहीं बैठते. जब उन्होंने प्राण को गेटअप में देखा तो दंग रह गईं. मीना कुमारी ने कहा- "इस किरदार को प्राण साहब से अच्छा कोई नहीं कर सकता". 'हलाकू' फिल्म का किरदार प्राण अपनी बांकी की भूमिकाओं से बेहतर मानते थे. यह एक नकारात्मक किरदार था, शूटिंग होने से पहले फिल्म का नाम नहीं रखा गया था, लेकिन प्राण की अदाकारी को देखते हुए फ़िल्म का नाम 'हलाकू' रख दिया गया, हलाकू फिल्म का नाम चंगेज खान के पोते के नाम पर रखा गया था. प्राण अपने किरदारों को निभाने के लिए खूब रिसर्च करते थे, लेकिन इस किरदार में तो एकेडमिक रिसर्च करते हुए इस किरदार के साथ बहुत दिनों तक निकल नहीं पाए. कितने ही हीरो आए और गए लेकिन प्राण की अदाकारी अपने अंदाज़ के साथ बुलन्दियों पर थी. कई पीढ़ियों के साथ काम करते हुए प्राण अशोक कुमार से लेकर देव - राज - दिलीप त्रिमूर्ति के बाद शम्मी कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, अमिताभ, जॉय मुखर्जी, आदि के सामने उतने ही ताकतवर विलेन के रूप में पर्दे पर आते थे. फ़िल्में प्राण के नाम से ही चल जाती थीं, फ़िल्मों के टाइटल आते थे, तो उनको क्रेडिट अलग से दिया जाता था , अंत में लिखा जाता था "एंड प्राण"
बदमाश, हीरोइन को बलपूर्वक हासिल करने की हसरत वाला किरदार, फिरौती, गैंग, स्मगलिंग, आदि के किरदार निभाते हुए जब बोरियत महसूस करने लगे, तब उन्होंने कॉमेडी में हाथ आज़माया. जिनमे 'कश्मीर की कली', पत्थर के सनम', दस लाख आदि फ़िल्मों में भी यादगार रहे. बेटी के कहने पर उन्होंने डीसेंट किरदारों को ढूंढना शुरू किया. वो अच्छा किरदार उनको शहीद' फिल्म में डकैत कहर सिंह के रूप में मिला. प्राण साहब ने पहले तो यह किरदार करने से मना कर दिया था, बाद में मनोज कुमार ने कहा- "आप यह किरदार नहीं करेंगे तो मैं यह किरदार ही फिल्म से हटा दूँगा, बाद में मानने के बाद मान गए. प्राण साहब ने महमूद एवं किशोर कुमार के साथ भी बहुत सारी कॉमेडी फ़िल्मों में काम किया. अब तक प्राण चरित्र फ़िल्में करने लगे थे, इसके बाद उनकी इमेज विलेन से हटकर चरित्र अभिनेता की बनने लगी थी.
प्राण साहब के एक दोस्त प्रकाश मेहरा ज़ंजीर फिल्म बना रहे थे. प्राण साहब ने पहले ही फिल्म करने से मना कर दिया था. कारण था! फिल्म में प्राण साहब को गाना गाते हुए डांस करना था, तो उन्होंने मना कर दिया, क्योंकि प्राण साहब को फ़िल्मों में डांस करना आदि पसंद नहीं था. प्राण साहब एक अच्छे इंसान थे, जिससे वो प्रकाश मेहरा के कहने पर मान गए. अगले ही दिन किरदार के गेटअप में आए फिर ऐसा अभिनय किया, कि गीत आज भी गाया जाता है. ज़ंजीर में देव साहब, राजकुमार, धर्मेंद्र आदि सुपरस्टार यह रोल करने से मना कर चुके थे. पहले तो प्राण साहब ने नए हीरो अमिताभ बच्चन का नाम सुनकर कहा था, "मेरे सामने किसी दमदार हीरो को लेकर आओ मेरा नाम प्राण है". आख़िरकार देव साहब, राजकुमार, धर्मेंद्र के मना कर देने के बाद खुद प्राण साहब ने ही कहा "इस लड़के को यह किरदार से देना चाहिए". इतने बड़े दिल वाले प्राण साहब ही थे. प्राण साहब निर्देशकों को सुझाव देते थे, ज़ंजीर फ़िल्म में प्राण साहब को ज़मानत के लिए अपनी पगड़ी रखना था, तो प्राण साहब ने मना कर दिया कि पठान फिल्म में पगड़ी ज़मानत पर रखता अच्छा नहीं लगेगा. तब उन्होंने सुझाव दिया कि मुँह का बाल रखना उचित रहेगा, क्योंकि मूँछ पठान की जान होती है. वो अपनी मूँछ से बहुत प्यार करता है". दर्शक प्राण साहब को देखने के लिए इतने आतुर होते थे , कि प्रोड्यूसर को भी डांट लगाते हुए चिल्लाते थे . ज़ंजीर फ़िल्म के प्रीमियर में प्रकाश मेहरा जब अमिताभ बच्चन को लेकर पहुंचे दर्शकों ने पूछा हमारा हीरो प्राण कहाँ हैं? अमिताभ बच्चन के साथ प्राण साहब ने 14 फ़िल्मों में काम किया है, कभी अमिताभ बच्चन के पिता बनकर आते कभी विलेन बनकर आते थे.
प्राण साहब डांस, गाने खुद पर फिल्माते हुए संकोच करते थे, लेकिन कुछ यादगार गीत प्राण साहब की याद दिलाते हैं. ये गीत उनके लिए ही बनाए गए थे. उनमे से प्रमुख हैं "यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी", मज़बूर फिल्म का गीत, "फिर न कहना माईकल दारू पीकर दंगा करता है", ये गाने वो गाने नहीं होते थे, जिनमे रोमांस हो, ये गाने कम फिल्म की कहानी ज्यादा सुनाते थे, ये गीत चारित्रिक गीत होते थे. पहले तो अपने कद का ख्याल रखते हुए मना कर देते हैं, लेकिन खुद ही लोगों के कहने पर मान जाते थे. फ़िल्मों में जुबां एवं आँखों से अंगारे बरसाने वाले प्राण साहब बहुत ही नेकदिल इंसान थे. हिन्दी सिनेमा के पहले हीरो दादामुनि अशोक कुमार के साथ प्राण की दोस्ती यादगार थी. दोनों ने यादगार 25 फ़िल्मों में साथ काम किया. फिल्म विक्टोरिया न 203 में प्राण साहब बिना रिहर्सल सेट पर संवाद बोलते थे, तो दादा मुनि भी यही करते थे, इस फिल्म में दोनों दिग्गजों को देखते ही बनता है. प्राण साहब को पृथ्वीराज कपूर से लेकर करिश्मा कपूर तक कपूर खानदान की चार पीढ़ियों के साथ काम करने का तजुर्बा हासिल था. 1992 तक प्राण साहब फ़िल्मों में खूब सक्रिय रहे. 60 - 70 के दशक में सबसे ज्यादा फीस थी. अमिताभ बच्चन वाली फ़िल्मों में प्राण साहब को अमिताभ बच्चन से ज्यादा पैसा मिलता था. हालांकि प्राण साहब पैसे की डिमांड नहीं करते थे, जो मिल जाता था, ले लेते थे. उनकी बेह्तरीन शख्सियत का इस बात से पता चलता है, कि राज कपूर से दोस्ती निभाते हुए बॉबी फिल्म में उन्होंने एक रू लेकर फिल्म में काम किया था, क्योंकि राज कपूर के पास तब पैसे नहीं थे. प्राण साहब अपनी दोस्ती इस प्रकार भी निभा देते थे.
प्राण साहब ने अपना पूरा जीवन हिन्दी सिनेमा को न्यौछावर कर दिया था. प्राण साहब ने अपने लम्बे 60 साल के सिनेमाई सफर में लगभग 400 फ़िल्मों में काम किया था... ज़िन्दगी की जीते हुए प्राण साहब को सन 1998 में दिल का दौरा पड़ा, तब उनकी उम्र लगभग 80 साल थी, तब उन्होंने फ़िल्मों से दूरी बना ली. प्राण साहब कहते थे "अब उम्र के कारण लंबे - लंबे डायलॉग मुझे याद नहीं रहते, जब मैं अपना सौ फीसदी नहीं दे सकता, तो मैं सिने प्रेमियों को धोखा नहीं देना चाहता. बाद में उनकी बायोग्राफी लॉन्च हुई थी" एण्ड प्राण" पुस्तक पढ़ी जा सकती है.
प्राण साहब का नाम बहुत ही लोकप्रिय था, लेकिन उनकी विलेन की इमेज के कारण 50 - के दशक के बाद से किसी ने भी अपने बच्चे का नाम प्राण नहीं रखा, क्योंकि प्राण का मतलब उस दौर में ग़द्दार होता था. यूपी, एमपी, झारखंड, बिहार आदि के कुछ पत्रकारो ने स्कूल, कॉलेजों में सर्वे किया, लेकिन 50 के दशक के बाद किसी का भी प्राण नाम नहीं था, यह ऐसा ही तथ्य है, रावण प्रसिद्घ है, लेकिन उसके नाम पर किसी का नाम नहीं है. कोई भी अपने बच्चों का नाम प्राण नहीं रखना चाहता था, क्योंकि प्राण विलेन के तौर पर दर्शकों को डरा देते थे, प्राण का मतलब गुंडा ही होता था, बाद में चरित्र भूमिकाओं को करने के बाद प्राण को प्राण साहब कहकर पुकारा जाने लगा. सन 2007 में दिल्ली से एक लेटर आया उसमे लिखा था, "प्राण साहब नमस्कार, मेरे पोता हुआ है, मैं उसका नाम प्राण रखना चाहता हूं अतः आप दिल्ली आएं आप अपने हाथो से उसका नामकरण संस्कार करें". अभिनेता ओमप्रकाश की बेटी का विवाह हो रहा था, प्राण साहब पहुँचे, तो लोग उनको रास्ता दे रहे थे, यह कहते हुए मलंग चाचा आ गए. एक फैन्स ने उन्हें खत लिखकर कहा था, कि जैसे चाचा नेहरू याद किए जाते हैं, वैसे ही आप चाचा मलंग के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे. शख्सियत ऐसी होना चाहिए, जिससे उसके नाम को एक नाम मिल जाए. प्राण साहब की शख्सियत भी यही थी. प्राण साहब के द्वारा बोले गए कुछ शब्द सुनकर ऐसे लगता है, जैसे उनके लिए ही बने हैं, जैसे उनके द्वारा बोला गया शब्द बरखुरदार उन पर ही जचता था. प्राण साहब ने टीवी पर एक डिटेक्टिव सिरियल के तीन एपिसोड भी शूट किए, लेकिन उनको कास्ट किए गए अदाकारो की वर्किंग स्टाइल पसंद नहीं आई, अंततः उन्होंने यह सिरियल छोड़ दिया. आज के दौर में सरकार के लिए चाटुकारिता कर रहे ईमान बेचने वाले कलाकारों को भी प्राण साहब से सीख लेना चाहिए, कि कलाकार का काम समाज से सिर्फ लेना काम नहीं होता कुछ देना भी होता है. प्राण साहब ने ज़िन्दगी में कभी कोई आर्टिकल नहीं लिखा, लेकिन उन्होंने आपातकाल का विरोध करते हुए तत्कालीन सत्ता के विरुद्ध आर्टिकल लिखकर सत्ता को ललकारा था. प्राण साहब हमेशा कहते थे, कि अगर मैं ब्रिटेन जैसे किसी मुल्क में होता तो मेरी सिनेमाई यात्रा के कारण मुझे महान अभिनेता होने के नाते सर प्राण की उपाधि दी जाती. उसी तरह जैसे क्रिकेट में सर डॉन ब्रैडमैन को मिली है. प्राण साहब ने एक बार फिल्म फेयर पुरूस्कार को लेने से मना कर दिया था, उन्होंने कहा कि यह अवॉर्ड पाकीजा को मिलना चाहिए. जबकि यह सम्मान बेईमान फ़िल्म के संगीतकार को मिला था. पक्षपात कहकर अपना फिल्म फेयर पुरूस्कार लेने से मना कर दिया था.
प्राण साहब अभिनेता होने के साथ ही खेल देखना एवं खेलना भी बहुत पसंद करते थे, उनको खेल प्रेमी के रूप में भी याद किया जाता है. उनकी एक फुटबाल टीम थी, जिसका नाम फ़ुटबाल डायनामोस क्लब था. इस टीम को प्राण साहब फायनेंशियल सपोर्ट करते थे. फिल्मी दुनिया के गुमनाम सितारों के लिए एवं जरूरतमंदों के लिए खूब धन जुटाते थे. प्राण साहब केवल फ़िल्मों के लिए ही नहीं सामजिक कार्यो में खूब सहयोग करते थे,एवं एक सोशल ऐक्टिविस्ट भी थे. देश के विकलांग लोगों के लिए भी चैरिटी करते थे, एनजीओ आदि चलाते थे. यहां तक कि बांग्लादेश के रिफ्यूजी आदि के रहने खाने का इंतजाम करते थे, प्राण साहब इतनी महान आत्मा थे. प्राण साहब को दादा साहेब फाल्के, एवं पद्म भूषण सम्मान से उनको नवाजा जा चुका है. सन 2000 में उन्हें स्टारडस्ट ने उन्हें 'विलेन ऑफ द मिलेनियम' सम्मान से सम्मानित किया. अमिताभ बच्चन ने प्राण साहब को उनकी फ़िल्मों के बेहतरीन सीन्स को नौ कैसेट्स पर कलेक्ट करते हुए उनको गिफ्ट किया था. प्राण साहब अपने फ़िल्मों के यादगार किरदारों के सौ पेंटिंग हो जाने पर फोटो प्रदर्शनी करने का सोचा था, लेकिन यह उनका ख्वाब पूरा नहीं हो सका उनके पास केवल 80 पेंटिग ही थीं. प्राण साहब अमरीश पुरी को अपना पसंदीदा हीरो मानते थे. 2008 के बाद प्राण साहब का स्वस्थ्य ठीक नहीं रहता था, उनको कई बार हस्पताल में भर्ती कराया गया था. आख़िरकार 12 सन 2013 को प्राण साहब ने इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया. प्राण साहब को भुला दिया गया है या उनका सम्मान नहीं किया गया, ऐसे आरोप नहीं लगाए जा सकते. उनके हिस्से जो भी सम्मान आएं समय - समय पर उनके हुज़ूर में पेश करते रहने चाहिए. प्राण साहब ने अपने पीछे केवल अपनी सिनेमाई यात्रा की धरोहर ही छोड़कर नहीं गए... बल्कि छोड़ गए हैं एक पूरा संसार.....कहते हैं कि अपना नाम रखने का हक़ बहुत कम लोगों को ही मिलता है, हालाँकि मैं अपने नाम दिलीप कुमार से खुश हूं .अगर मुझे इस बात को लेकर कोई असंतुष्टि का भाव होता तो मैं अपना नाम प्राण ही रखता. हिन्दी सिनेमा के प्राण यानि अपने प्राण साहब को मेरा सलाम......
दिलीप कुमार
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