मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
पुस्तक समीक्षा
समीक्षक
ध्रुव गुप्त
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
सुप्रसिद्ध फिल्म लेखक और पत्रकार दिलीप कुमार पाठक की किताब ’मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया’ मेरे हाथों में है। हिन्दी सिनेमा के पहले तीन महानायकों में एक देव आनंद के जीवन, कृतित्व और व्यक्तित्व के जाने अनजाने पहलुओं को समेटे यह किताब संभवतः उनके बारे में पहली समग्र किताब है। देव साहब ऐसे अभिनेता रहे हैं जिनके जीवन-काल में ही उनका एक-एक अंदाज़ , उनकी एक एक अदा किंवदंती बनी। उनकी चाल, उनका पहनावा और उनके बालों का स्टाइल उस दौर के युवाओं के क्रेज थे। असंख्य युवतियों के क्रश तो वे थे ही। यह अजीब है कि इस हरदिलअज़ीज़ अभिनेता के सिनेमा में अविस्मरणीय योगदान और देश के आम आदमी तक उसे पहुंचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करने की कोशिशें बहुत कम हुई हैं। उनकी अपनी आत्मकथा ’रोमांसिंग विद लाइफ’ के अलावा मेरी नजरों से ऐसी कोई किताब नहीं गुजरी। दिलीप कुमार पाठक की यह किताब उस कमी को पूरी करती दिखती है। इसमें देव साहब के जीवन, उनके संघर्षों, उनकी अभिनय और निदेशकीय क्षमताओं के मूल्यांकन के साथ अपने समकालीन अभिनेताओ और अभिनेत्रियों के साथ उनके रिश्तों, सुरैया के साथ उनके अधूरे प्रेम, कल्पना कार्तिक के साथ उनके दांपत्य जीवन, उनकी इश्कबाजी, जीवन और काम के प्रति उनके समर्पण, उनकी ऊर्जा और जिंदादिली, उनके व्यक्तिगत जीवन के विरोधाभासों और राजनीतिक सोच का भी लेखाजोखा है। देव साहब का सम्पूर्ण जीवन लेखक की इस किताब के पन्नों में सिमट आया है। लेखक की बात कहने की कला और प्रवाहपूर्ण भाषा पाठक की दिलचस्पी इस किताबमें अंत तक बनाए रखती है। मेरा सौभाग्य है कि लेखक ने इस किताब की भूमिका लिखने का अवसर मुझे दिया।
दिलीप कुमार पाठक को बधाई। मेरा विश्वास है कि ’मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया’ को न सिर्फ देव साहब को चाहने वालों द्वारा बल्कि सिनेमा के इतिहास में रुचि रखने वाले लोगों द्वारा भी हाथोंहाथ लिया जाएगा। यह किताब ऑनलाइन विक्रय के लिए अमेजन पर उपलब्ध है।
Comments
Post a Comment