मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला समीक्षक : संजय स्वतंत्र
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला
देव बाबू यानी देव आनंद पर लिखी दिलीप कुमार पाठक की यह किताब जब मेरे पास आई, तो उस समय इतना व्यस्त था कि खुद के लिए समय नहीं था कि कोई बड़ा आलेख पढ़ लूं, किताब तो दूर की बात थी। यों जिंदगी का साथ निभाते हुए आज भी इतना व्यस्त हूं कि इस किताब को सिरहाने रख कर सुबह कई दिनों तक टुकड़ों में पढ़ता रहा। मन पक्का करके आज सुबह लिखने बैठा, तो सोचा कि मैं कायदे का लेखक नहीं, इसकी समीक्षा क्या ही कर पाऊंगा। चलो दिल की बात ही लिख देता हूं। दिलीप थोड़ा लिखा बहुत समझना।
देव बाबू हम सब के दिल में हैं। उन्होंने अपने जीवन में जितने किरदार निभाए हैं, उन पर अलग-अलग पुस्तक लिखी जा सकती हैं। मगर युवा लेखक दिलीप की मशहूर अभिनेता देव आनंद पर लिखी किताब ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया’ को पढ़ते हुए लगा कि देव साहब को इतनी खूबसूरती से शायद ही कहीं सहेजा गया हो। इस पुस्तक में न केवल उनकी अदाकारी के कई पहलुओं को रखा गया है, बल्कि उनके पूरे जीवन की तस्वीर खींच दी गई है। चाहे सुरैया से उनके अधूरे इश्क की पूरी चर्चा हो या फिर कल्पना कार्तिक से बंधी उनकी जिंदगी की डोर हो।
एक सभ्य इश्कबाज और हिंदी सिनेमा के इस रंगरेजिया का चित्रण करते हुए लेखक ने उनके जीवन के कैनवास से कई रंग उठा कर अपना पुस्तक में बिखेर दिए हैं। वे मानो फूल की तरह खिल उठे हैं। देव साहब की स्मृतियों में मधुबाला का जिक्र तो है ही, जीनत अमान के साथ उनके अफसाने को भी पिरोया है। सचमुच देव बेहद भावुक और शालीन थे। इतने शालीन कि उनके समकालीन ज्यादातर अभिनेत्रियां दूसरे अभिनेताओं के बनिस्पत उनके साथ खुद को महफूज और सम्मानित महसूस करती थीं।
लेखक ने नवकेतन की नींव रखने से लेकर चार्ली चैप्लिन से उनकी मुलाकात का भी वर्णन किया है। वहीं देव की क्लासिक फिल्मों का जिक्र करते हुए उनमें फिल्माए गए भावपूर्ण और उमंग भरे गीतों पर भी विस्तार से लिखा है। राजकपूर और दिलीप कुमार के साथ देव आनंद की त्रिमूर्ति को आज भी याद किया जाता है। देव की यादों में मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार को भी पुस्तक में संजोया है लेखक ने।
यह किताब इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहां देव साहब और देश की सियासत से जुड़े कुछ संदर्भ भी दर्ज हैं। आज जब कई अभिनेता जहां नेता का चोला ओढ़ कर हवाई राजनीति करते हैं, वहीं देव आनंद यथार्थ की राजनीति करने आए, लेकिन जो ठोकर खाई तो फिर तो संभल न सके। वे एक सच्चे अदर्शवादी थे। किसी दल से बंधे नहीं थे। उन्हें मजदूरों-किसानों की चिंता थी। लोगों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की चिंता थी। एक नागरिक होने के नाते उनकी यूटोपिक दृष्टि थी। आपातकाल का उन्होंने विरोध किया और जम कर किया। मगर जनता पार्टी में कलह देख कर उनका राजनीति से मोहभंग हो गया। इस पुस्तक में इसका जिक्र है।
देवसाहब का कई लोगों से मोहभंग हुआ। चाहे मोहब्बत में नाकामी मिलने पर हुआ हो या नेताओं के दोहरे चरित्र को लेकर हुआ हो। मगर सच यह भी है कि जीवन से उनका कभी मोहभंंग नहीं हुआ। वे अपनी खास अदा में, एक अलग चाल में लंबे डग भरते निर्मल मुस्कान के साथ सबको गले लगाते चलते ही रहे। देव मौत से नहीं डरते थे। उन्होंने अपनी चर्चित फिल्म ‘गाइड’ को याद करते हुए एक बार कहा था- न दुख है, न सुख है, ना दीन है दुनिया। तुब बस सो रहे हो। और फिर अपनी आंखें बंद कर लेते हो और आप एक अलग दुनिया में हैं। बस आप चले जाते हैं। लौटने की सारी गुंजाइश खत्म हो जाती है। कौन जानता है, तुम कहां हो?
इसलिए भी देव मरे नहीं, क्योंकि वे आज भी अपने लाखों प्रशंसकों के जेहन में हैं, अपने जीवन का फलसफा लिए, अपने किरदार को जीते हुए और ईमानदारी से प्रेम का पाठ पढ़ाते हुए। वे फूलों के रंग से दिल की कलम से आज भी हमारे दिलों में अपनी पाती लिखते जाते हैं। इसलिए देव कभी मरते नहीं। वे हमारी नींदों में और हमारे ख्वाबों में जीते हैं। सच है उन जैसा अभिनेता आज तक न हुआ। शब्दगाथा प्रकाशन से आई दिलीप कुमार पाठक की किताब देव की यादों का एक सुंदर झरोखा है। एक बार झांकेंगे तो निकल न पाएंगे।
संजय स्वतंत्र
लेखक जनसत्ता के संपादक हैं
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