हमेशा सत्ता के संरक्षण में फलते-फूलते हैं माफिया
हमेशा सत्ता के संरक्षण में फलते-फूलते हैं माफिया
डॉन का इंतज़ार तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस कर रही है, डॉन को पकड़ना मुश्क़िल ही नहीं नामुमकिन है ...ऐसे - ऐसे संवाद फ़िल्मों के द्वारा लोगों के जेहन में चस्पा होते गए थे.
माफिया राज को ग्लैमराइज करने वाले ये डायलॉग अपराधी प्रवृत्ति को लोगों के दिमाग में भरे गए. लोगों को लगता है कि डॉन या माफिया शब्द का मुंबईया कनेक्शन हैं या प्रयागराज-पूर्वांचल की पैदाइश हैं, जबकि ऐसा नहीं है. डॉन या माफिया जैसे शब्दों का भारत में सिर्फ इस्तेमाल किया है. असली माफ़िया तो पैदा हुआ है भारत से बहुत दूर... डॉन और अंडरवर्ल्ड जैसे शब्दों का प्रचलन भूमध्य सागर में बसी आईलैंड सिटी सिसली से हुआ था. उत्तरी अफ्रीका और यूरोप के बीच बसा सिसली खूबसूरत समुद्री तटों वाला एक शहर है. लेकिन इस शहर की जमीन से संगठित अपराध की वो कहानी शुरू हुई जिसने दुनिया को माफिया शब्द दिया. वो माफिया जो क्राइम की अंतहीन दुनिया का बेताज बादशाह था और जिसकी हनक को चुनौती मतलब मौत को दावत देना था. भारत के माफ़िया हाजी मस्तान, करीम लाला, दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अतीक अहमद, अशरफ, मुख्तार, बृजेश, बजरंगी और न जाने कितने टुटपूंजिए क्रिमिनल इसी सिसली शहर के गैंगवार से पैदा हुए माफिया, डॉन और अंडरवर्ल्ड जैसे शब्दों का टाइटल अपने नाम के आगे पीछे लगाकर अपनी सियासत चमकाई हैं. एक दौर था, जब प्रयागराज में अतीक और अशरफ के शूटआउट जैसी घटनाएं आम थीं. माफिया, डॉन जैसे शब्द पहले मुंबई - पूर्वांचल में व्याप्त थे, परंतु अब हर गांव - शहर के मुहल्ले में एक माफिया मिल जाएगा.. बड़े स्तर पर तो बड़े से बड़े माफियाओं का क़ब्ज़ा है, लेकिन जब समाज में गहराई से देखेंगे तो हर मुहल्ले, हर ऑफिस में एक माफ़िया बैठा हुआ है, जिसका उद्धेश्य लोगों के बीच खौफ पैदा करके खुद को चमकाना है, और ये एक चेन है... छोटा गुन्डा, फिर उससे बड़ा गुंडा... ऐसे ही चल रहा है.
इस विदेशी शब्द को भारत में आम लोगों तक पहुंचाने में नेताओ का अच्छा खासा योगदान है. माफ़िया ये एक ऐसा शब्द है जिसे सुनकर जनता में खौफ उत्पन्न होता है, वहीँ वोट लेने का एक ज़रिया भी होता है, परंतु गहराई से सोचा जाए तो इस शब्द के ज़रिए नेताओ के द्वारा लोगों को आक्रोशित करके वोट में तब्दील कर दिया जाता है. माफियाओं के नाम पर वोट की फसल खूब काटी गई है, और काटी जाती रहेगी, जब तक माफियाओं के नाम का खौफ लोगों के दिलों में जिन्दा है. पिछले कुछ सालो पहले एक मुख्यमंत्री माफियाओं को मिट्टी में मिलाने की बात कर रहे थे, और उन्होंने कुछ डॉन, बाहुबलियों को नेस्तनाबूद कर भी दिया है, आज यूपी में जितने भी बाहुबली थे, माफ़िया थे, सारे के सारे खौफ में हैं, परंतु ये कार्यवाई अधिकांश मुस्लिम माफियाओं पर हुई है, जो अपने आतंक के लिए कुख्यात हैं. यूपी में आज भी माफियाओं की कमी नहीं है परंतु वे सब मुस्लिम नहीं है. शीर्ष पर बैठे हुए कुछ नेताओ ने माफियाओं के नाम पर हमेशा फसल काटी है, और जब तक लोग जागृत नहीं होते तब तक यही चलता रहेगा. सवाल होना चाहिए इन माफियाओं को बनाता कौन है? इनकी उपज कहां से होती है? सीधी बात राजनीतिक रसूख के लिए नेताओं ने अपने - अपने माफियाओं को समाज में पैदा करके छोड़ दिया गया है, जिससे समाज में हिंसा, दुराचार, हो और फिर उन्हीं को निपटा के खुद को समाज सुधारक के रूप में दिखाया जाए. ये भी राजनीति की गहरी चालें हैं जो लोगों को समझ नहीं आतीं.
माफियाओं के माफ़िया अगर कोई है तो वे हमारे मुल्क के करप्ट नेता हैं जिन्होंने सिस्टम को लूटकर अपने गुंडों को पाल रखा है.. माफिया शब्द एक प्रवृत्ति है, जो बहुत गहरे तक है.
करप्ट नेताओं पर अक्सर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते हैं, जैसे कि रिश्वत लेना सबसे प्रमुख है. नेताओं द्वारा रिश्वत लेने से सरकारी निर्णयों में अनियमितता तो आती ही है साथ ही समाज में अविश्वास भी खूब बढ़ता है. इससे सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं में भ्रष्टाचार बढ़ गया है. भ्रष्ट नेताओं द्वारा अपने पद का दुरुपयोग करते हुए आम लोगों का हक सरकारी धन के रूप में गलत तरीके से डकार जाते हैं. और देश के विकास को बाधित करते हुए खुद मौज करते हैं. करप्ट नेताओ को भी माफियाओं की कैटेगरी में रखना चाहिए, जिन्होंने समाज में एक गन्ध फैला रखी है. भ्रष्ट नेताओं को देखिए इनकी करनी एवं कथनी में भी फर्क़ होता है, इनके द्वारा सरकारी धन का गलत तरीके से उपयोग करने से देश की ज़रूरी योजनाओं का सही से क्रियान्वयन नहीं हो पाता.
समाज में गरीबी और असमानता का एक सबसे प्रमुख कारण है. इससे सरकारी योजनाओं का लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंच पाता है. देखा जाए तो एक बार देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सही कहा था कि मैं एक रुपया भेजता हूँ, दूर सुदूर के इलाकों तक पहुंचते - पहुंचते 10 पैसे ही बचते हैं क्योंकि बीच के करप्ट नेताओ एवं बिचौलियों के द्वारा डकार लिया जाता है. लानत है ऐसे नेताओं पर जो टेंडर और ठेकों में भ्रष्टाचार करने से सरकारी परियोजनाओं की गुणवत्ता करके अपने गुर्गों के बीच बांट देते हैं. और सरकारी खजाने लूटते हैं.
भ्रष्टाचार के इन रूपों से न केवल सरकारी व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, बल्कि इससे समाज में भी अविश्वास और असंतोष बढ़ता है.
ऐसे नेताओ का क्या ही औचित्य जो समाज में खाई खोदे जा रहे हों, जो भाई को भाई से समुदाय को दूसरे समुदाय से लड़ा रहे हों. ऐसे निरंकुश नेताओं पर हमेशा जातिवाद और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का आरोप लगता है, जिससे समाज में विभाजन बढ़ता है और सामाजिक तनाव पैदा होता है, जिसका सीधा उद्देश्य वोट प्राप्ति होता है. आजादी के इतने दशको बाद भी जाति के नाम पर वोट मांगने वाले नेताओ को क्या शर्म आती है? बिल्कुल भी नहीं बल्कि वे तो खुद को और भी ज़्यादा संगठित करने के लिए जातियों में विभाजन के कट्टर हिमायती हैं.
ऐसे धूर्त नेताओं के द्वारा धर्म के आधार पर वोट मांगने एवं विरोधी नेताओ को माफ़िया कहकर उनका दमन करना आजकल खासा ट्रेंड कर रहा है... क्या यह अनैतिक नहीं है.
क्या इससे और ज़्यादा धार्मिक विभाजन नहीं बढ़ेगा?
साम्प्रदायिक भाषण देने का मकसद एक ही होता है खुद को चर्चा में लाना जिससे समाज में तनाव और हिंसा बढ़ती है..
इससे लोगों के बीच नफरत और घृणा फैलती है, जिससे इनकी वोट की फसल तैयार होती है. इससे सामाजिक एकता और सौहार्द खराब होता है. आजकल देश में खुद न्याय करने की जिम्मेदारी नेताओ ने उठा रखी है, किसी भी विरोधी विचार को कुचलने के एक FIR काफी होती है, मतलब वो अदालत से दोषी ठहराया गया हो या नहीं, परंतु उसको सजा देने का नेताओ ने ठेका ले रखा है.. किसी के भी घर में बुलडोज़र चला दिया जाता है, किसी को भी जेल में ठूंस दिया जाता है, क्या ये माफियागिरी नहीं? सवाल होना चाहिए.. क्या न्याय देने का काम अदालत के जिम्मे नहीं होना चाहिए...खुद ही सज़ा देने की प्रवृत्ति क्या समाज को अराजक नहीं बना देगी.. बड़ी दशको की मेहनत है, जिसे शिक्षा के ज़रिए लोगों को जागरूक करने के कारण लोगों में लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ विकसित हो चली थी. धीरे-धीरे नेताओं ने लोगों को ही अराजक बनाने का काम शुरू कर दिया है क्या यह अनैतिक नहीं है.
दिलीप कुमार पाठक
लेखक पत्रकार हैं
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