देव साहब की यादों में इंदिरा गांधी
*देव साहब की यादों में इंदिरा गांधी*
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देव साहब इंदिरा जी को याद करते हुए लिए लिखते हैं -
"समय की धारा बड़ी जल्दी-जल्दी अपनी करवट बदलती हैं. उस समय अपने समय की गूँगी गुड़िया अब भारत की शक्तिशाली नेत्री बन चुकी थी और आपातकाल की घोषणा के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी निरंकुश शासक बन चुकी थीं. उस समय एक नारा प्रचलित हो चुका था “ Indra is India, India is Indra .” श्रीमती इंदिरा गाँधी का छोटा बेटा संजय गांधी एक तरह से सरकार की बागडोर अपने हाथों में ले कर असंवैधानिक कार्य करने में व्यस्त था. हर कोई उस समय संजय गांधी को इंदिरा गाँधी का उत्तराधिकारी मान चुका था. जबकि संजय गांधी सरकार को अपने मनमाने ढंग से चला रहा था तो इंदिरा गांधी स्वामियों के चक्कर में पड़ी हुई थी. कांग्रेस का यूथ विंग संजय गांधी को आने वाले भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर रहा था. जो कि भारत को नयी ऊँचाइयों पर ले जाने वाला था. यूथ विंग की एक बड़ी खूबसूरत महिला ने मुझे और फ़िल्म जगत की नामचीन हस्तियों को मिल कर मुझे और उनको दिल्ली आने का न्योता दिया और हमें संजय गांधी की रैली में हाज़िर रहना था. मैंने भी मुग्ध होकर उस हसीना का न्योता स्वीकार कर लिया. दिल्ली में आकर मुझे पता चला कि मेरे मित्र दिलीप साहब भी उस रैली में थे. ज़ाहिर था कि उनको भी न्योता दिया गया था. सरकार की मानी हुई हस्तियाँ भी इस रैली में उपस्थित थी. मैंने देखा संजय गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई थी. हर कोई उनके आगे नतमस्तक हो रहा था और संजय गांधी के सामने हाथ जोड़े खड़ा था. हम भी वहाँ उस शानों शौक़त के राजनीतिक जमावड़े में बैठे हुए थे. बार-बार एक आवाज़ स्टेज से पुकारती थी. ”देश का नेता “ फिर एक इशारा होता था और जमा की हुई भीड़ गला फाड़ कर चिल्लाती थी “संजय गांधी!” यह साफ़ नज़र आ रहा था कि यह एक सोची समझी नीति थी संजय गांधी जो लोगों में अपनी ग़लत नीतियों के कारण बदनाम हुए चुके थे उनको भारत की जनता पर थोपा जा सके. अचानक ही मुझे आसपास के वातावरण से घिन आने लगी. मैं संजय गांधी के आसपास बैठे और खड़े वज़नदार नेताओं को देख रहा था जिनमें इतनी भी हिम्मत नहीं जुटाने की ताक़त नहीं थी कि वह ग़लत को ग़लत कह सके. उस नौजवान की ख़ासियत यही थी कि उसके पीछे अपनी प्रधानमंत्री माँ का हाथ था.
संजय गांधी को जन-जन का नेता बनाने की कोशिश की जा रही थी. मैं अक्सर इस तरह की ख़बरें जो दिल्ली से आतीं थी सुनता था लेकिन आज तो मैं अपनी आँखों से देख रहा था. मुझे अपने देश की राजनीति पर शर्म आ रही थी. मैं सोच रहा था कि इस महान देश में कोई ऐसा नेता हैं जो देश के लिए काम कर और देश को आगे ले जाए. मैं देख रहा था कि आपातकाल इसलिए लागू किया गया था ताकि एक सत्ताधारी पार्टी अपना वर्चस्व क़ायम रख सकें और यह सब कुछ उस देश हो रहा था जिसे संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता था.. मैं कभी - कभार दुःखी होता था कि गांधी - नेहरू जी के आदर्शों के साथ चलने वाली पार्टी आज निरंकुश हो गई वो भी उनकी बेटी इंदिरा गांधी जी के होते हुए क्यों कि इंदिरा गांधी खुद एक शालीन व्यक्तित्व की मालकिन थीं. जैसे ही मैं और दिलीप कुमार रैली ख़त्म होने पर जाने को तैयार हुए तब हमें कहा गया कि हम दूरदर्शन केन्द्र जा कर यूथ कांग्रेस और उसके जोशीले नेता संजय गांधी की तारीफ़ में कुछ न कुछ कहें. उन का यह रवैया हम दोनों को तानाशाही लगा. यह सब कुछ इस लिए किए जा रहा था ताकि संजय गांधी के रुतबे को बड़ा चढ़ा कर पेश किया जाए.
हम दोनों दूरदर्शन केन्द्र जाने के लिए इच्छुक नहीं थे और न ही हम वहाँ जा कर आपातकाल की बड़ाई करना चाहते थे. मैंने पुरज़ोर तरीक़े से इस का विरोध किया जिस कारण न सिर्फ़ मेरी फ़िल्मों को दूरदर्शन पर दिखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया मेरा नाम भी सरकारी संचार व्यवस्था में लेने की मनाही कर दी गई. इसी प्रकार किशोर कुमार के गानों पर भी प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि उसने भी उनके किसी समारोह में गाने से इनकार कर दिया था. मेरे ज़मीर ने इस बात को दूर संचार मन्त्री से मिल कर उठाने की सोची और उनसे मुलाक़ात का समय माँगा जो मुझे मिल भी गया. वह मेरे से बड़े अदब से मिले और मुझे से पूछा “तुम्हारी समस्या क्या है ?” मैंने कहा “मैं अपने मन की बिगड़ी हुई स्तिथि के लिए उत्तर चाहता हूँ ” “कैसा उत्तर “ ? उन्होंने पूछा मैंने कहा “ अपने देश की व्यवस्थाओं के बारे में ” उन्होंने ने कहा “तुम कहना क्या चाहते हो ?” मैंने कहा “ हम लोकतंत्र में रह रहे हैं या पुलिस राज में ” उसने कहा “ लोकतंत्र में ” मैंने कहा “ फिर हमें बार-बार दूरदर्शन पर आपातकाल के लिए क़सीदे पढ़ने को क्यों कहा जा रहा है. ” उन्होंने कहा “ क्या यह अच्छा हैं कि आप सत्तारूढ़ सरकार के बारे में ऐसे बोल रहे हैं. ” मैंने कहा “ मैं अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ नहीं जा सकता और दबाव में तो बिलकुल नहीं. ” उन्होंने कहा “ मैं आप को हिदायत देता हूँ कि आप ऐसा कुछ न करें जो सरकार के विरूद्ध जाता हो. ” मैंने मीटिंग को समाप्त करते हुए कहा “ वो मुझे देखना है धन्यवाद ”
बम्बई में वापसी पर मैं नरगिस से मिला जो कि गांधी परिवार के नज़दीक वालों में से थी. उसने मेरे को मनाने की कोशिश किया कि मैं सरकार की बात मान कर चलूँ. पर मैंने उससे कहा कि मैं सरकार बात नहीं मान सकता. उसने कहा “ आप बिना कारण ही ज़िद्दी हो रहे हो. मैंने भी बातचीत को वहीं विराम दिया. पर मैं जान चुका था कि अब मैं संजय गांधी के गुट के निशाने पर था.
जो ताक़तें आपातकाल के साथ खड़ी थी उन्होंने कई अनुशासन हेतु कदम उठाए हालाँकि कुछ एक कदम सराहनीय थे. पर जिस बेरहमी से जनता की भावनाओं को कुचला जा रहा था उससे जनता की रूह अपने आप को जकड़ा हुआ महसूस कर रही थी. वह अपने ऊपर लगाए गए बंधनों की ज़ंजीरों को तोड़ने के लिए तड़प रहे थे. जनता के दिलों में ज्वालामुखी दहक रहा था और वह उस मौक़े की प्रतीक्षा कर रहे थे जब वो उन ज़ंजीरों को काट फेंके. वह मौक़ा उन्हें स्वयं इंदिरा गाँधी ने दे दिया. अपनी सत्ता के नशे में चूर और कुछ चमचों की सलाह पर उन्होंने अचानक आपातकाल हटा दिया और आम चुनाव घोषित कर दिए.
जितने भी विपक्ष के नेता और नेत्रीया जो आपातकाल में या तो जेलों में बन्द थे या नजरबंद हो गये थे चुनाव लड़ने के लिए मैदान में आ गए. कुछ एक जिनके पास पैसा था और वह आपातकाल में विदेश चले गये थे, वे भी वापस आ गए. राम जेठमलानी उन में से एक थे. वह अमेरिका से सीधे बंबई पहुँचे और बंबई से नयी-नयी बनी जनता पार्टी के टिकट पर अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया. उन्होंने ने मुझे कहा कि उस बड़ी रैली का हिस्सा बनूँ जो उन्होंने अपने चुनाव अभियान के लिए आयोजित की थी जो उस आन्दोलन का हिस्सा थी जो जय प्रकाश नारायण की अगवाई में इंदिरा गाँधी के विरूद्ध खड़ा हुआ था. यह आन्दोलन अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था जो इंदिरा गाँधी जैसी लौह नारी को हराना चाहता था.
मेरे लिए वह पल एक फ़ैसला लेने का था ज़्यादातर हमारे फ़िल्मी कलाकार इंदिरा गाँधी के पक्षधर थे क्योंकि इंदिरा गाँधी की तिलस्मी ताक़त ने उन्हें चकाचौंध कर दिया था. जब जेठमलानी मुझ को न्योता दे कर चलें गए तो मैं दुविधा में पड़ गया अगर मैं जेठमलानी की रैली में जाता हूँ तो मैं जो कि पहले ही इंदिरा गाँधी के रडार पर था और भी मुखर होकर सामने आ जाऊँगा. मैं यह सोच रहा था कि अगर इंदिरा गाँधी चुनाव जीत जाती हैं, तो मेरा फ़िल्मी सफ़र वहीं ख़त्म हो जाएगा क्योंकि संजय गांधी मेरे विरुद्ध अपनी सारी शक्ति लगा देंगे. अभी मेरी फ़िल्म देश-परदेश पूरी नहीं हुईं थीं और मेरा बेटा अमेरिका के विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था. अगर सरकार की गाज मुझ पर गिरीं तो वह मुझे तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी. मैंने जेठमलानी से अपना फ़ैसला सुनाने के लिए एक दिन माँगा. वह रात मेरे लिए सबसे कठिन रात थी मैं रात भर नहीं सो पाया.
एक दिन हम नौजवान की फ़िल्म में एक कालेज के मुख्य अध्यापक की टीन ऐज बेटी का बलात्कार एक राजनेता का बिगड़ा हुआ बेटा कर देता हैं. इस दौरान लड़की की जान चली जाती हैं और वह बिगड़ैल उसे दिवार में चुनवा कर घर को ही आग लगा देता हैं. हम यह सब कुछ केमरे में उतार ही रहे थे कि हमें ख़बरों से पता चला कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को उनके सिख अंगरक्षकों ने मौत के घाट उतार दिया हैं. सारा देश ग़म की लहर में डूब गया हर तरफ़ अफ़रातफ़री का माहौल था.
मैंने अपने आप से कहा कि इंदिरा गाँधी ने एक धर्म की भावनाओं को आहत किया था, शायद इसीलिए उनकी हत्या हुई है. फिर भी उनकी मौत बहुत दुःखद है. मैं पण्डित नेहरू का ज़बरदस्त फैन था इंदिरा जी के साथ तमाम मतभेद थे लेकिन इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या पर दुख हुआ. मैंने उसी वक़्त शूटिंग बंद की और सोचने लगा कि कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है जब राजनेताओं की ज़िन्दगी असुरक्षित होती है. सुरक्षा कर्मी ही उनकी मौत का कारण बन जाते है. उदासी के उस आलम में मेरी आँखों के सामने वो सारे सीन फ़िल्म की तरह दिखाई देने लगे जिन से मेरी यादें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से जुड़ी हुई थीं. मेरी पहली मुलाक़ात उनसे तीन मूर्ति भवन में हुई थी जहां हम पंडित जी से मिलने गये थे. उस समय वह मेहमाननवाज़ी के अलावा और कुछ नहीं करती थी. मुझे याद आया एक बार मैं मशहूर कवि हरेन्द्रनाथ जी के साथ पंडित जी से मिलने गया था पर वहाँ पर मुलाक़ात इंदिरा जी से हो गई मैंने उनसे गाइड फ़िल्म के अंग्रेज़ी संस्करण की भारत में रिलीज़ होने की बात कही थी और उन्हें “The Princes “ की पुस्तक भेंट की जिस के राइट मैं ख़रीद चुका था, एक फ़िल्म बनाने के लिए यह पुस्तक मनोहर मालगोनकर ने लिखी थी. मैं फिर दुबारा उनसे मिला था जब वह सूचना एवं प्रसारण मंत्री थीं तब मेरे साथ दिलीप कुमार और राजकपूर भी थे. मैं उन दिनों फ़िल्मी कलाकारों के संगठन का अध्यक्ष था. इन्दिरा जी ने हमारी समस्याओं को सुना. मेरी गाइड फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा रोक दी गई थी, तब इंदिरा जी के लिए स्पेशल स्क्रीनिंग रखी गई. इंदिरा गांधी ने पूरी फिल्म देखने के बाद कहा, ‘आप कल आइए और आपकी इस फिल्म को क्लीयरेंस मिल जाएगा. ’ पर मैंने हर बार महसूस किया कि वह बोलती बहुत कम थी और सुनती बहुत ज़्यादा थीं. कई बार मैंने सोचा कि उनको उनके विरोधी गूंगी गुड़िया क्या सचमुच बोलते थे... गाइड फ़िल्म की भारत में रिलीज़ होने की स्वीकृति देते समय उन्होंने मुझे केवल यह कहा “ आप बहुत तेज़ बोलते हो ” …इंदिरा गांधी के साथ देव साहब की यादें खट्टी - मीठी थीं लेकिन ये सच है कि देवानंद साहब इंदिरा जी की इज्ज़त खूब करते थे, हालांकि जब विरुद्ध जाना पड़ा तो बेधड़क आवाज़ बुलंद की.
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