किला कालिंजर: भगवान शिव की महिमा और एतिहासिक धरोहर
किला कालिंजर: भगवान शिव की महिमा और एतिहासिक धरोहर
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किला कालिंजर एक दौर में राजाओं की महत्वाकांक्षाओं के केन्द्र में रहा है l कालिंजर इतिहास की न जाने कितनी कहानियाँ समेटे हुए है, जो आजकल गुमनाम है l हालांकि ये भी सच है क्षेत्रीय लोगों द्वारा आकर्षण का केंद्र अब भी बना हुआ है l बदलते हुए दौर में हमारे हुक्मरानों का इंट्रेस्ट वैसा नहीं है जैसा कभी इतिहास में राजाओं का रहा है l फारसी इतिहासकार फ़रिश्ता के अनुसार, 6वीं शताब्दी में केदार राजा नामक व्यक्ति ने कालिंजर शहर की स्थापना की। उसके बाद 15वीं शताब्दी तक कालिंजर किले पर चंदेल शासको का ही आधिपत्य रहा। महमूद ग़ज़नवी ,कुतुबुद्दीन ऐबक, शेरशाह सूरी और हुमांयू ने किले पर कब्ज़ा करने की बहुत कोशिश की बहुत सारी लड़ाइयां भी लड़ीं लेकिन कोई कामयाब नहीं रहा। सिर्फ अक़बर ही किले पर कब्ज़ा कर सके , जिसका ज़िक्र आइने अकबरी आदि ग्रंथो में किया गया है। अक़बर ने कालिंजर किला जीतकर बीरबल को उपहार में दे दिया। बीरबल के बाद किले पर बुन्देल राजा छत्रसाल का अधिकार हो गया। इसके बाद पन्ना के शासक हरदेव शाह ने इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया। 1812 में किले पर अंग्रेज़ो का राज हो गया। ब्रिटिश सरकार ने किले के कई भागो को तोड़ दिया था जिसके निशान किले में आज भी मौजूद है। 1947 में भारत की आज़ादी के साथ –साथ किला भी शासको के राज़ से मुक्त हो गया। ये वही किला है जिसे जीतने की इच्छा से तोप के गोले बरसाने वाले शेरशाह सूरी की कालिंजर में ही मौत हो गई थी l ये प्रश्न तो कई प्रतियोगी परीक्षाओं में भी पूछा जाता है l भौगोलिक दृष्टि से कालिंजर किला ज़मीन से 800 फ़ीट ऊपर पहाड़ी पर बना हुआ है। यह विंध्याचल पर्वतमाला के अन्य पर्वत जैसे मईफ़ा पर्वत, फ़तेहगंज पर्वत, पाथर कछार पर्वत, रसिन पर्वत, बृहस्पति कुण्ड पर्वत, आदि के बीच बना हुआ है। हिन्दू पौराणिक ग्रंथो में कई जगह कालिंजर के बारे में बताया गया है। कालिंजर का अर्थ होता है ‘ कल को जर्जर करने वाला‘ . अलग –अलग युगों में कालिंजर को अलग–अलग नाम से जाना गया। हिन्दू महाकाव्यों के अनुसार सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यमगढ , द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में किले के नाम कालिंजर पड़ा l
हमारे धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव ने समुन्द्र मंथन से निकला हलाहल (ज़हर) धारण किया था l हलाहल पान करने के बाद भगवान शिव को जब कहीं सुकून नहीं मिला तब कालिंजर आए और विश्राम करने लगे, और वहीँ पर टहल रहे कालिया को अपने गले में धारण किया जिससे उन्हें ठंडक का एहसास हुआ, मान्यता है कि तब से ही भगवान शिव गले में कालिया धारण करने लगे l जिसकी वजह से किले को कालिंजर के नाम से जाने जाना लगा। मन्दिर के रास्ते में बहुत विशाल गुफाएं और चट्टानें हैं जिन्हे काटकर वहां कई नकाशी की गयी हैं। मंदिर के दरवाजे पर चन्देल शासक ने शिव गायन लिखा हुआ है। साथ ही मन्दिर के अंदर एक शिवलिंग भी है। मंदिर के ऊपर पानी का प्राकृतिक स्त्रोत है , जो कभी नहीं सूखता ये भी अपने आप में बेहद रोमांचक मगर रहस्यमयी है, जो शोध का विषय है l इस पानी के ज़रिए शिवलिंग का अभिषेक प्राकृतिक रूप से हमेशा होता रहता है। मंदिर के ऊपरी भाग में जल के स्त्रोत के लिए चट्टानों को काटकर दो कुंड बनाए गए है जिंन्हें स्वर्गरोहण कुंड कहते है। चट्टानों पर काल –भैरव व कई देवी –देवताओ की चित्र बनाए गए है। किले में प्रवेश करते ही कई छोटी–बड़ी गुफाएं दिखाई देती है। गुफाएं ऐसी कि खत्म कहां होगी पता ही नहीं चलता l किले में राजा महल और रानी महल है। महल में एक जलाशय है जिसे पातालगंगा के नाम से जाना जाता है। यहां के पांडव कुंड में चट्टानों से लगातार पानी टपकता रहता है। यह कहा जाता है कि यहां कभी शिव की कुटिया हुआ करती थी। जहां शिव भक्त आकर तपस्या करते थे। शिव की कुटिया के नीचे से ही पातालगंगा होकर बहती थी।
किले में अद्भुत गुफाओं के आलावा सात बड़े दरवाज़े भी है, जो इतने रोचक हैं कि देखने वाले उसके तिलिस्म से बँध जाते हैं l सभी दरवाज़ों के बारे में भी विस्तृत जानकारी है l पहले दरवाज़े को सिंह द्वार, दूसरे को गणेश द्वार, तीसरे को चंडी द्वार, चौथे द्वार को स्वर्गारोहण या बुद्धगढ़ द्वार कहते है। चौथे द्वार के पास एक जलाशय है जिसे भैरवकुंड कहा जाता है। किले के पांचवे दरवाज़े हनुमान द्वार को बहुत ही कलात्मक तरीके से बनाया गया है। दरवाज़े पर मूर्तियां ,चंदेल शासको से जुड़े लोगो के चित्र व श्रवण तथा उसके माता–पिता की भी तस्वीर भी बनाई हुई है। छठा दरवाज़ा लाल द्वार कहलाता है। इस दरवाजे के पश्चिम में हम्मीर कुंड है। सांतवे मतलब आखिरी दरवाज़े को नेमि द्वार खा जाता है। इस दरवाज़े को महादेव द्वार भी कहते है। इन सात दरवाज़ों के आलावा किले में मुगल बादशाह आलमगीर, औरंगज़ेब ने भी कई दरवाज़े बनवाए। उनमे चौबुरजी दरवाज़ा बुद्ध भद्र दरवाज़ा , और बारा दरवाज़ा शामिल है। ये दरवाज़े किले को और भी विहंगम बनाते हैं l
कालिंजर किले में पांच दिन तक कार्तिक पूर्णिमा मेला महोत्सव मनाया जाता है। यह मेला कालिंजर किले का सबसे प्रमुख उत्स्व है। हज़ारो की संख्या में श्रद्धालु मेले में आते है। कहा जाता है की चंदेल शासक परिमर्दिदेव के समय इस मेले की शुरुआत की गयी थी जो आज तक लोगो द्वारा मनाया जा रहा है। जैसे कि लेख में पहले जानकारी दी गई है क्षेत्रीय लोगों में कालिंजर को लेकर एक ग़ज़ब आर्कषण है लेकिन दूर - सुदूर के लोग इस किले की भव्यता नहीं देख पाते l कालिंजर पहुंचने के लिए खजुराहो एयरपोर्ट सबसे नजदीक है जो लगभग 100km के अन्तराल में होगा वहीँ कानपुर एयरपोर्ट भी नज़दीक है, लेकिन कानपुर - खजुराहो जैसे एयरपोर्ट्स मेट्रो शहरों के साथ इतना ज़्यादा कनेक्ट नहीं है यही कारण है कि कालिंजर अपनी भव्यता लिए आजकल गुमनाम रहता है l कहा जाता है कि कालिंजर किला, अजयगढ़ किला, देवपर्वत किला आदि ये तीनों अभेद्य किले आक्रमणकारियों से बचने के लिए एक ही रात में बनाए गए थे l कालिंजर में आपार संपदाएं हैं लेकिन उनकी कोई वैल्यू नहीं है चूंकि यहां कोई शोध नहीं होते हो सकता है तस्कर इन संपदाओं का फ़ायदा उठाते हों l
कालिंजर हीरों, ग्रेनाइट पत्थर , वनो में सागौन , साखू , शीशम के लिए जाना जाता है। साथ ही किले के पास कुठला ज्वारी के घने जंगलो में रक्त वर्णी राम का चमकदार मिलता है। प्राचीन काल में इससे सोना बनाया जाता था। इस पत्थर को पारस पत्थर के नाम से भी जाना जाता है। यहां के पहाड़ो पर कई प्रकार की दवाईयां भी मिलती है। जैसे –यहां उगने वाली सीताफल की पत्तियों और बीज से दवाईयां बनती है। गुमा के बीज और हरड़ के इस्तेमाल बुखार को ठीक करने के लिए किया जाता है। मोरफली का इस्तेमाल पेट के इलाज के लिए किया जाता है , इसके आलावा यहां फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, पथरचटा , गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि प्राकृतिक दवाईयां भी मिलती है। कालिंजर में खूब सारी संभावनाएं हैं, अगर गवर्नमेंट ध्यान दे तो कालिंजर फ़िर से मुख्यधारा में आ सकता है l पता नहीं हमारे संस्कृति मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालय को ये सब जानकारियाँ हैं भी या
नही ! कभी - कभार सरकारें खूब निराश करती हैं l अगर कालिंजर, अजयगढ़ जैसे किलों को विकसित किया जाए लोगों को बताया जाए तो रोज़गार के इतने अवसर पैदा होंगे कि बुंदेलखंड की किस्मत बदल जाए मगर अफ़सोस... राजनेताओं में इतनी इच्छाशक्ति ही नहीं है कि शिवजी (भगवान नीलकंठ) के धाम को विकसित किया जाए.
दिलीप कुमार पाठक
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