श्याम बेनेगल : समानान्तर सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर
श्याम बेनेगल : समानान्तर सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर
मुल्क के कोने-कोने की आम जिंदगियां सिल्वर स्क्रीन पर लेकर आने वाले समानान्तर सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर महान फ़िल्मकार श्याम बेनेगल नहीं रहे l श्याम बेनेगल सिनेमा में अपनी तरह के अद्वितीय रहे हैं, समानान्तर सिनेमा के इस महानायक को हिन्दुस्तान कभी नहीं भूलेगा l अपने पिता के कैमरे से पहली फ़िल्म शूट करने वाले बेनेगल ने सेल्युलाईड में आम जिंदगियां उकेर डाली l श्याम बेनेगल समानान्तर सिनेमा के जनक माने जाते हैं, इस दुनिया से उनका रुख़सत होना ये सिनेमा एवं समाज का साझा नुकसान है l श्याम बेनेगल गुरुदत्त साहब के रिश्ते में भाई थे, वहीँ सत्यजीत रे से प्रभावित थे, रे महान विमल रॉय के शिष्य थे l इस लिहाज से देखा जाए तो महान श्याम बेनेगल कांधे पर हिंदुस्तानी क्लासिकल सिनेमा लेकर चलते थे, और उन्होंने अपनी गहन रचनात्मकता से उसे सार्थकता प्रदान की l
श्याम बेनेगल की फ़िल्में अपने राजनीतिक-सामाजिक चेतना के लिए जानी जाती हैं। श्याम के शब्दों में 'राजनीतिक सिनेमा तभी पनप सकता है, जब समाज इसकी लिए माँग करे। मैं नहीं मानता कि फ़िल्में सामाजिक-स्तर पर कोई बहुत बड़ा बदलाव ला सकती हैं, मगर उनमें गंभीर रूप से सामाजिक चेतना जगाने की क्षमता ज़रूर है।' श्याम अपनी फ़िल्मों से यही करते आए हैं। अंकुर, मंथन, निशांत, आरोहण, सुस्मन, हरी-भरी, समर जैसी फ़िल्मों से वे निरंतर समाज की सोई चेतना को जगाने की कोशिश करते रहे। भारत में वे समानांतर सिनेमा के प्रवर्तकों में से एक हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें नई धारा के सिनेमा का ध्वजवाहक माना जाता है। सत्यजीत रे के बाद श्याम ने उनकी विरासत को संभाला और इसे समकालीन संदर्भ प्रदान किए। वे कहते हैं, 'समूचा हिंदुस्तानी सिनेमा दो हिस्सों में किया जा सकता है। एक : सत्यजित राय से पूर्व और दूसरा राय के बाद ।' यदि ऐसा है तो राय के बाद भारतीय सार्थक सिनेमा की धुरी पूरी तरह बेनेगल के इर्द-गिर्द घूमती है। आजादी के बाद भारत में सिनेमा का विकास सामूहिक रूप से हुआ जबकि सत्तर और अस्सी के दशक में दो सिनेमाधाराएँ देखने को मिलीं। व्यावसायिक सिनेमा के समानांतर एक ऐसे सिने आंदोलन ने जन्म लिया, जिसमें मनोरंजन के चिर-परिचित फॉमूले नहीं थे। इस नई धारा के फ़िल्मकारों ने सिनेमा को जनचेतना का माध्यम मानते हुए यथार्थपरक फ़िल्मों का निर्माण किया। श्याम बेनेगल उन फ़िल्मकारों के पथ-प्रदर्शक बनकर उभरे, जो फ़िल्मों को महज मनोरंजन का माध्यम नहीं मानते थे। चूंकि फ़िल्मों का अपना सामाजिक प्रभाव होता है l
सिनेमा एक प्रतीकात्मक माध्यम है तो कहना पडेगा कि श्याम बेनेगल की फ़िल्में प्रतीकों में बात करती है। साल 1973 में अंकुर फ़िल्म के जरिये उन्होंने सेल्युलायड की दुनिया में कदम रखा था। अंकुर का वो द्रश्य आज भी उतना ही दमदार लगता है जिसमें एक बच्चा ज़मींदार के अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ ज़मींदार के घर की खिड़की पर पत्थर मारता है। अंकुर का वो बच्चा दरअसल और कोई नहीं खुद श्याम बेनेगल का ही एक रुप है। और वो पत्थर हिन्दी सिनेमा की झूठी और फरेबी दुनिया के राजमहल की खिडकी पर मारा गया था। यह अहसास दिलाने के लिए कि रंगीन और चमकदार कांच के दायरे के इस ओर धूल, धूप और धुएँ से भरी एक दुनिया और भी है, जिसमें नायक नायिकाओं के लिए जीवन का मतलब जड़ों के इर्द-गिर्द नाचकर इज़हार -ए -मोहब्बत करना ही नहीं है। दरअसल श्याम बेनेगल की फ़िल्में अपने आप में एक आंदोलन की शुरूआत हैं। जहां समाज के हर वर्ग का चेहरा हमें झांकता हुआ मिलता है। फिर चाहे बात मंडी की रुकमिनी बाई की हो ... जिसके कोठे में हर वक्त कोई न कोई हलचल मची रहती है.. या फिर इंसानियत के बूते जिंदा रहने वाली 'मम्मो' की.. बल्कि 'भूमिका' में तो एक औरत की ज़िंदगी से जुडे कई पहलुओं पर श्याम बेनेगल ने बिना किसी झिझक के रोशनी डाली l वो भी तकनीक के हर छोटे बडे पहलुओं पर ध्यान देते हुए। इसलिए उनकी हर फ़िल्म अपने आप में एक क्लासिक मुकाम रखती है l भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने श्याम बेनेगल के बारे में कहा था कि उनकी फ़िल्में मनुष्य की मनुष्यता को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं। वृत्तचित्र-नेहरू के निर्देशक श्याम बेनेगल थे, एक दिलचस्प पहलू ये भी है इन्हीं बेनेगल ने आपातकाल के दौरान इन्दिरा गाँधी की नीतियों की तीखी आलोचना की थी।
बेनेगल की तकरीबन हर फ़िल्म में काम कर चुके अमरीश पुरी ने अपनी आत्मकथा 'एक्ट ऑफ लाइफ' में लिखा है- 'श्याम एक चलता फिरता विश्वकोश हैं। वो इस धरती पर किसी भी विषय पर चर्चा कर सकते हैं। हर विषय पर जानकारी रखना एक अद्भुत गुण है और श्याम ने हर बार इसे साबित किया है।' अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर बेनेगल को मिली तारीफों और पुरस्कारों की फेहरिस्त इतनी लंबी है जितना किसी हिंदी फ़िल्म का क्रेडिट रोल भी नहीं होता। 1000 से ज्यादा विज्ञापन बना चुके श्याम बेनेगल ने सिनेमा को वे कलाकार दिए जिनके लिए ना सिर्फ हिंदुस्तानी बल्कि विश्व सिनेमा भी उनका कर्ज़दार रहेगा। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, अमरीश पुरी, अनंत नाग, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल और उनके पसंदीदा सिनेमेटोग्राफर गोविंद निहलानी, प्रमुख हैं l
फ्रांसीसी फ़िल्मकार ज्यां ल्युक गोदार ने कहा था- 'सिनेमा ज़िंदगी को फ़िल्माने की कला नहीं है.. वो तो ज़िंदगी और कला के बीच का 'कुछ' है।' और श्याम बेनेगल ने तो अंकुर, निशांत,मंथन, भूमिका, जुनून, आरोहण, त्रिकाल, सूरज का सातवां घोड़ा, द मेकिंग ऑफ महात्मा, सरदारी बेगम और जुबैदा इत्यादि की शक्ल में 'इतना कुछ' दिया है जिसे देख-देख कर आज भी सिनेमा के छात्र ऑस्कर जीतने का ख्वाब पालते हैं। इतिहास के 'ऐतिहासिक' कायापलट की नायाब मिसाल है 'भारत एक खोज'.. उसे भला हम कैसे भूल सकते है। श्याम बेनेगल के रहते हुए उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित न किया जाना भी दुःखद है, लेकिन जब कभी इतिहास लिखा जाएगा तो श्याम बेनेगल सिनेमा के ज़रिए हिन्दुस्तान के हर आँगन में मिलेंगे l महान फ़िल्मकार श्याम बेनेगल को मेरा सलाम l
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