"अभिनय के भगवान अभिनय के संस्थान संजीव कुमार महान"
"अभिनय के भगवान अभिनय के संस्थान संजीव कुमार महान"
मैं जब बहुत छोटा था और और जब टीवी देखता था तो मुझे गुरुदत्त साहब, संजीव कुमार, मधुबाला, मीना कुमारी, मुमताज़ सबसे ज़्यादा पसंद थीं, मुझे लगता था कि सबसे ज़्यादा सिनेमैटिक चेहरा इन्हीं का है, बुज़ुर्ग से संजीव कुमार स्क्रीन पर आते दिल जीत ले जाते थे, लेकिन कई दोस्त संजीव कुमार जी को बूढ़ा कहकर चिढ़ाते मैं तब ज़्यादा कह नहीं पाता था, लेकिन जब पत्रकारिता, साहित्य सिनेमा से जुड़ा तो पता चला कि संजीव कुमार की अदाकारी का मेयार कितना ऊंचा रहा है. संजीव कुमार हिन्दी सिनेमा के इकलौते ऐसे अदाकार रहे हैं, जिनकी अदाकारी की कमियां ढूंढने पर भी नहीं मिलती.
महान अभिनेता संजीव कुमार जी आज जिंदा होते तो हिन्दी सिनेमा में वो अद्वितीय कहे जाते. शायद उनके आसपास कोई दूसरा नहीं होता. मुझे लगता है, कि अभिनय के लिहाज से संजीव कुमार जैसा प्रतिभाशाली अभिनेता वैश्विक सिनेमा में कोई दूसरा नहीं है. अभी भी समय है, सिनेमा की दुनिया के रहबरों को घोषित कर देना चाहिए, कि अभिनय का कोई भगवान है तो संजीव कुमार जी हैं. अत्यंत महत्वपूर्ण बात उपरवाले को किसी रंगमंच के हरफनमौला सितारे की ज़रूरत रही होगी, इसलिए उन्होंने महान संजीव कुमार जी को असामयिक बुला लिया होगा. महान अभिनय सम्राट दिलीप साहब कहते थे - "संजीव कुमार की रेंज का अभिनेता सिनेमा में दूसरा कोई नहीं है, संजीव कुमार की रेंज को छू पाना मेरे बस की बात नहीं है, संजीव कुमार जिस रोल को निभाते हैं उसमे कोई गुंजाइश नहीं होती कि दूसरा कोई अदाकार उसमे कुछ कर पाए". सदी के महानायक अमिताभ बच्चन संजीव कुमार को याद करते हुए कहते हैं - हरि भाई (संजीव कुमार) जैसा अदाकार दूसरा कोई नहीं हुआ है, हरि भाई के साथ काम करना मेरे लिए सौभाग्य की बात रही है, जब वे अपने गेट अप में आते थे तो उनके लिए दिल से सम्मान निकलता था, उनकी तरह का कोई अभिनेता दूसरा कोई नहीं हुआ है. संजीव कुमार बहुमुखी प्रतिभा के धनी अदाकार थे. जवानी में भी बुजुर्ग की भूमिका बड़ी सहजता से अदा कर दिया करते थे. पहले थिएटर में अभिनय की बारीकियां सीखीं बाद में हिन्दी सिनेमा में पदार्पण किया. शुरुआत में एक दो फ़िल्मों में उतने प्रभावी नहीं रहे. 1968 में आई फिल्म 'शिकार' से अपना सिक्का जमाया. संजीव कुमार इसके बाद रुके ही नहीं फ़िल्मों एवं ज़िन्दगी में अनवरत दौड़ते रहे. संजीव कुमार जीते जी ही संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर चुके थे. यह मुकाम बहुत कम ही कलाकारों को मिला होगा.
हरि भाई का संजीव कुमार बनना केवल संजीव कुमार बनना नहीं था. संजीव कुमार बनना मतलब अभिनय की नई इबारत लिखना था, जिसे नई नस्लें आकर पढ़ेगी. संजीव कुमार बनना बहुत ही तकलीफदेह है. यूँ ही कोई संजीव कुमार नहीं बन जाता. संजीव कुमार को बचपन से ही अभिनय करने का जुनून था. स्कूल में ड्रामा करते, स्कूल टीचर संजीव को खूब उत्साहित करते थे. संजीव की माँ ने स्कूल के अध्यापकों को कहा "आप मेरे बेटे को भड़का रहे हैं, मेरा बेटा कोई पृथ्वीराज कपूर का बेटा नहीं है, मुझ विधवा का बेटा है, कौन इसको काम देगा". स्कूल के अध्यापकों ने समझाया कि हरि बहुत होशियार बच्चा है. जो भी किरदार बताया जाता है, वह उस किरदार को जी लेता है. हरि को लगा कि अब मुझे केवल अभिनेता बनना है, लेकिन मेरी आवाज़ उतनी अच्छी नहीं है, संजीव कुमार ने स्कूल में उच्चारण, एवं आवाज़ सुधारने के लिए एक डायलॉग को कई टोन में बोलने का अभ्यास किया, लेकिन हरिहर को लगा कि मुझे अगर अभिनय में पारंगत होना है, तो मुझे कोई न कोई अभिनय का संस्थान जॉइन करना होगा. शशधर मुखर्जी का अभिनय स्कूल फ़िल्मालय में एडमिशन लेना चाहा. ज़रूरत से ज्यादा फीस सुनकर हरिहर निराश हो गए. संजीव कुमार की माँ ने कहा हरिहर मेरे गहने तुम्हारे पिता के जाने के बाद मेरे किसी काम के नहीं हैं, तुम अपना जुनून पूरा करो. हरिहर फ़िल्मालय में अपनी मेहनत एवं प्रतिभा से खूब सारहे गए. फ़िल्मालय में संजीव के दोस्त मैकमोहन हुआ करते थे. शशधर मुखर्जी को लगा कि हरिहर अब बहुत परिपक्व हो गया है, इसको अब बड़े मंच की जरूरत है, फिर संजीव कुमार आईपीटीए पहुंचे, वहाँ संजीव कुमार की पहिचान ए के हंगल से हुई. एके हंगल को लगा कि कुर्ता, चप्पल पहनने वाला यह ऐक्टर नहीं बन पाएगा, लेकिन वो संजीव को कहकर टाल देते की तुम्हें काम बताऊँगा. खुशकिस्मती से एक नाटक "मजमा" में काम मिल गया. मजमा में साठ पेज के लंबे संवाद थे, हरिहर ने चार दिन में ही पूरा संवाद रट लिया, और जबरदस्त रोल किया. देखकर एके हंगल बहुत शर्मिंदा हुए, कि अब अपने ड्रामे में हरिहर को काम ज़रूर दूँगा. ए के हंगल के नाटक में एक साठ साल के बुजुर्ग का रोल बचा हुआ था. ए के हंगल ने संजीव कुमार को वो रोल दे दिया. तब कैफ़ी आज़मी ने कहा "हंगल तुम ये फ्लॉप शो की तैयारी कर रहे हो उन्नीस साल का लड़का आठ साल के बुजुर्ग का रोल कैसे कर पाएगा".लेकिन संजीव कुमार ने उस कठिन रोल को निभाते हुए कैफ़ी आज़मी एवं ए के हंगल को गलत साबित कर दिया..
नाटकों, थियेटर में अभिनय से ए के हंगल, कैफ़ी आज़मी, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, आदि हरिहर को खूब उत्साहित करने लगे थे, लेकिन संजीव कुमार को फ़िल्मों में काम करना था, क्योंकि नाटकों में तालियां तो मिलती हैं, लेकिन पैसा नहीं मिलता. संजीव कुमार ने फ़िल्मों में आने से पहले बहुत संघर्ष किया. संजीव कुमार ऑडिशन में कुर्ता पायजामा चप्पल पहनकर जाते थे. उनके कपड़े देखकर बिना ऑडिशन ही निर्माता निर्देशक रिजेक्ट कर देते थे. फ़िल्मालय के छात्रों की एक फिल्म में कास्टिंग हो रही थी, आख़िरकार पहली फिल्म 'हम हिन्दुस्तानी' 1960 में एक छोटा सा रोल मिला, लेकिन इस फिल्म में संजीव कुमार का कोई भी रोल संवाद नहीं था. 1962 में फिल्म "आरती" आने वाली थी, जिसमें मुख्य भूमिका में अशोक कुमार, मीना कुमारी थीं. संजीव कुमार खुश हो गए, कि दिग्गज अशोक कुमार एवं मीना कुमारी के साथ काम करने का मौका मिलेगा. फिल्म के निर्देशक फणी मजुमदार ने संजीव कुमार के कपड़े पहनने की स्टाइल देखकर कास्ट कर लिया, लेकिन फिल्म निर्माता ताराचंद बड़जात्या ने किसी नए लड़के को लेने से मना कर दिया. आरती फिल्म में संजीव कुमार की जगह प्रदीप कुमार को ले लिया गया. फिल्म से निकाले जाने पर संजीव कुमार को अज़ीब सा कारण बताया गया कि तुम्हारे दांत ठीक नहीं है, सुनकर संजीव कुमार अत्यंत दुःखी हो गए, कि अज़ीब सी फिल्मी दुनिया है, कोई कपड़े देखकर सिलेक्ट कर लेता है, कोई दांत देखकर रिजेक्ट..... लेकिन प्रतिभा कोई नहीं देखना चाहता. आख़िरकार सुपरहिट फिल्म 'सरस्वतीचंद्र' से संजीव कुमार को उनके नाम के कारण निकाल दिया गया, कारण बताया गया कि तुम्हारा नाम हरिहर भाई जेठालाल जरीवाला है, तुम्हारा नाम सुनकर ही दर्शक भग जाएंगे. संजीव कुमार सुनकर बहुत दुखी हुए. दोस्तों ने कहा कि हरि तुम अपना नाम बदल लो, तब संजीव कुमार ने कहा कि नाम ही बदलना है तो मेरी माँ का नाम एस से है तो मैं अपना नाम संजय रख लेता हूं, 1964 में फिल्म 'आओ प्यार करें' रिलीज हुई, इस फिल्म में स्क्रीन पर संजय कुमार नाम लिखा आया. 1964 में ही दोस्ती फिल्म सुपरहिट हुई उसमे संजय खान हीरो थे. फिर हरिहर ने अपना नाम बदलकर संजीव कुमार रख लिया, आखिरकार हिन्दी सिनेमा में संजीव कुमार का उदय हुआ.
अभी तक बी ग्रेड फ़िल्में कर रहे थे, अचानक संजीव कुमार का कॅरियर फिल्म "संघर्ष" से परवान चढ़ा. हरनाम सिंह रवैल, ने संजीव कुमार को दिलीप कुमार के सामने संघर्ष में अभिनय दिखाने के लिए निगेटिव शेड रोल ऑफर किया. यह रोल अकड़ू जानी राजकुमार मना कर चुके थे. अब कैरियर के शुरुआत में ही उनके सामने थे, ग्रेट अभिनय सम्राट दिलीप साहब, संजीव कुमार ने मौके को भुना लिया. शुरुआती दौर में ही उनके पास अपना अभिनय कौशल दिखाने का सुनहरा मौका था. इससे भी बड़ा चैलेंज था, कि दिलीप कुमार के साथ खुद की प्रतिभा के साथ न्याय कर पाएंगे! अंततः संजीव कुमार ने अपनी अभिनय क्षमता की ऐसी अमिट छाप छोड़ी की दर्शक एवं समीक्षक हैरान हैरां रह गए . वहीँ एक ख़बर चलने लगी, जो एंटी दिलीप कुमार थे, कि संजीव कुमार ने ग्रेट दिलीप साहब को असहज कर दिया. उस दौर में एक धारणा थी कि दिलीप कुमार अपने से बेहतर किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकते, यह सब निरर्थक बातेँ थीं. हालाँकि वो अपना सुझाव दिया करते थे, तो उनका सुझाव न मानने की वज़ह नहीं हो सकती थीं, क्यों कि दिलीप साहब से ज्यादा सिनेमैटिक समझ किसको हो सकती थी .... यह उनका कद था. फिर भी ऐसा होता तो संजीव कुमार की दमदार सीन कटवाना उनके लिए बड़ी बात नहीं थी. अगर उन्होंने यह किया होता तो शायद संजीव कुमार को यह प्रतिभा निखारने का मौका न मिलता. ऐसा कुछ भी नहीं है, लेकिन यह दिलीप कुमार ही कह चुके थे, कि हिन्दी सिनेमा को सबसे बेहतरीन अभिनेता मिल चुका है हरफ़नमौला संजीव कुमार.....
संजीव कुमार हरफनमौला अभिनय उस्ताद थे. उनकी, आँधी, मौसम, शोले, कोशिश, खिलौना, अंगूर, त्रिशूल, विधाता, सीता और गीता, पति पत्नी और वो, अनामिका, शतरंज के खिलाड़ी, सिलसिला, शिकार, दस्तक, ज़िन्दगी, अर्जुन पंडित, यही है ज़िन्दगी, देवता जैसी उनकी प्रमुख फ़िल्में आज के दौर में ऐक्टिंग सीख रहे बच्चों के लिए पूरा सिलेबस, यूँ कहें एक ग्रंथ हैं तो शायद कम ही होगा. संजीदा अभिनय में दिलीप कुमार से ज्यादा उम्दा ऐक्टिंग करने का माद्दा संजीव कुमार के पास था, कॉमेडी में वो लाजवाब थे, रोमांस करने में वो अपनी फ़िल्मों में जीवंत अभिनय कर चुके हैं. संजीव कुमार हरफनमौला जिन्हें एक्टिंग का स्कूल भी कहा जाता था. वो कोई भी रोल हंसते-खेलते निभा लेते थे. इसी की बानगी ‘नया दिन नई रात' फिल्म है ,जिसमें उन्होंने एक-दो नहीं बल्कि 9 किरदार निभाए थे,यह फिल्म साल 1974 में 7 मई को रिलीज हुई थी. इस फिल्म के पीछे एक दिलचस्प कहानी है. ‘नया दिन नई रात' की कहानी लेकर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर एनपी अली और ए भीम सिंह सबसे पहले एक्टिंग के सबसे बड़े बादशाह ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार के पास पहुंचे. यूं तो दिलीप कुमार ने एक साथ कई रोल निभाए हैं, लेकिन जैसे ही 9 किरदारों वाली कहानी पढ़ीं उन्होंने फिल्म करने से मना कर दिया. दिलीप कुमार ने कहा कि ये मुझसे नहीं हो पाएगा. जिसके बाद डायरेक्ट-प्रोड्यूसर पसोपेश में पड़ गए कि अब क्या करें! दिलीप कुमार ने उनकी परेशानी का हल निकालते हुए कहा कि आप संजीव कुमार के पास जाइए. वहीं एक है जो आपकी फिल्म के साथ न्याय कर पाएगा. वहीं एक है जो 9 तरह के किरदार को एक साथ निभा सकता है. जिसके बाद एनपी अली और ए भीम सिंह संजीव कुमार के पास पहुंचे. फिल्म की कहानी देखते ही 'शोले के ठाकुर' ने हां कर दी. संजीव कुमार ने पूरे 9 रोल निभाकर इतिहास बना दिया था. इस फिल्म में उन्होंने लूले-लंगड़े, अंधे, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, किन्नर, डाकू, जवान और प्रोफेसर का किरदार निभाया था. संजीव में खास बात थी, कि वे अपनी उम्र से भी ज्यादा उम्र के किरदार बड़ी ही सहजता से कर लेते थे, इस फिल्म में संजीव कुमार के अलावा जया भादुड़ी, वी गोपाल, दिलीप दत्त भी थे. इसी फ़िल्म में दिलीप साहब प्रस्तावना पढ़ते हैं जो संजीव कुमार की नायाब अदाकारी की गवाही देता है.
विधाता फिल्म में अबु बाबा का किरदार छोटा मगर अभिनय की गहराई से बहुत बड़ा ग्रेट संजीव कुमार के कद एवं उनकी शख्सियत को ध्यान में रखकर ही गढ़ा गया था. जवानी में ही अधिकांश फ़िल्मों में उम्र से ज्यादा की दमदार भूमिकाएं निभा कर बॉलीवुड में सबसे नायाब अभिनेता माने जाने लगे थे.
वहीँ सबसे मजबूत पिलर बन गए थे. दिलीप कुमार भी अपनी दूसरी पारी शुरू कर चुके थे. विधाता फिल्म की परफॉरमेंस में दिलचस्पी रखने वालों को बस इंतज़ार था, कि दिलीप कुमार - संजीव कुमार कब आमने-सामने होते हैं, और एक्टिंग का कौन सा नया आयाम स्थापित होता है यह देखने वाली बात होगी.
दादा शमशेर सिंह कहते हैं, अबु बाबा आप अपनी हैसियत से बढ़कर बात कर रहे हैं, मैं आपको कुनाल की जिम्मेदारी की नौकरी से निकालता हूं.... वहीँ संजीव कुमार जवाब देते हैं,"बहुत पैसा कमा लिया साहब जी जहां आप ज़िन्दगी के उसूल ही भूल गए. दो प्यार करने वालों के प्यार को आप अपने रुतबे की भेट चढ़ा देंगे, संजीव कुमार फिर से दोहराते हैं अरे जाओ साहब आप क्या निकालोगे मुझे नौकरी से मैं ही आपको अपने मालिक की हैसियत से बेदखल करता हूँ". यह हिन्दी सिनेमा की सबसे दमदार अभिनय की बानगी है. सीन खत्म होते तक दिलीप कुमार (शमशेर सिंह) जा चुके थे, लेकिन यह दिलीप कुमार की हार एवं संजीव कुमार की जीत नहीं थी, यह केवल अभिनय का एक नायाब नमूना था. इस सीन के खत्म होते ही संजीव कुमार को बेशुमार तालियां मिलीं. तब तक हिन्दी सिनेमा में एक ख़बर फैल गई थी कि संजीव कुमार ने दिलीप कुमार को फीका कर दिया. यह क्लिप विधाता फिल्म की जान थी. अगर यह क्लिप नहीं होती तो शायद फिल्म उतनी तो प्रभावी नहीं होती..... अगर आप फिल्म देखेंगे तो आपको शम्मी कपूर अमरीश पुरी, मदन पूरी संजय दत्त, आदि सब दिखते ही नहीं है... फिल्म में कोई दिखता है तो केवल दिलीप कुमार एवं संजीव कुमार...फिल्म के क्लाईमेक्स में शमशेर सिंह (दिलीप कुमार), शम्मी कपूर (गुरुबख्श) कुनाल (संजय दत्त) मिलकर अबु बाबा की मौत का बदला लेते हैं. वहीँ पूरी फिल्म में अबु बाबा एक आदर्श मिसाल के रूप में रहे ऐसा लगता था कि फिल्म में अबु बाबा (संजीव कुमार) के बिना क्या दिलीप कुमार का रोल प्रभावी होता?
यूँ तो फिल्म के केन्द्र में दिलीप साहब हैं... लेकिन दिलीप कुमार के होते हुए भी अगर उनके मुकाबले अपनी कड़ी मौजूदगी दर्ज कराने की कला की गहराई केवल संजीव कुमार में ही थी. कई बार दिलीप साहब ने भी कहा था कि जो रोल मैं भी नहीं कर सकता वो रोल बड़ी सहजता से संजीव कुमार कर सकता है. विधाता फिल्म भी संजीव कुमार की बेमिसाल अदायगी का एक नमूना है.... आज भी अगर अभिनय की बारीकियों के लिहाज से देखा जाए तो 'विधाता' फिल्म का अभिनय जोड़ी दिलीप साहब - संजीव कुमार के रूप में पूरा का पूरा सिलेबस है. सिनेमेटोग्राफी सीखने वालों के लिए विधाता फिल्म एक पूरा पीएचडी है. वहीँ सुभाष घई जैसे निर्देशक ही मेढक तौल सकते हैं, क्यों कि एक ही फिल्म में दिलीप कुमार, संजीव कुमार, शम्मी कपूर, अमरीश पुरी, मदन पूरी आदि की फौज के साथ न्याय करना आसान नहीं है. फिल्म को आज भी देखा जा सकता है उससे भी ज्यादा सीखा जा सकता है.
संजीव कुमार अब नहीं है, तो हिन्दी सिनेमा में संजीव कुमार के हिस्से की ख़ामोशी है, उसको हर कलाकार हर दर्शक महसूस करता है. संजीव कुमार के खानदान में हार्टअटैक की बीमारी थी. कोई भी सदस्य पचास साल की उम्र पूरी नहीं कर सका. संजीव कुमार के पिता पचास साल की उम्र के पहले ही गुज़र गए थे. संजीव कुमार को लगता था कि मैं भी पचास साल की उम्र पूरी नहीं कर पाउंगा. संजीव कुमार को सभी से प्यार था, लेकिन संजीव कुमार खुद से कम प्यार करते थे, खूब शराब का सेवन करते थे, आखिरकार 1975 में संजीव कुमार को हार्ट अटैक आया,लेकिन वो बच गए. संजीव कुमार अपनी माँ को सबसे ज्यादा प्यार करते थे, 6 नवंबर 1980 को उनकी माँ शांता बेन को अटैक से गुज़र गईं.. संजीव कुमार ने आजीवन के लिए अपनी ज़िन्दगी का सबसे काला दिन घोषित करते हुए कहा था 6 नवंबर को, मैं कभी कोई काम नहीं करूंगा. भाई एवं माँ के गुजर जाने के बाद टूट गए थे, लेकिन वापिसी की, संजीव कुमार 'प्रोफेसर की पड़ोसन' फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, दूसरी बार संजीव कुमार को फिर से अटैक आया डॉ ने कहा सर्जरी करना होगा. हिन्दी सिनेमा के उनके दोस्तों ने समझाया कि अमेरिका चले जाइए. संजीव कुमार ने सभी रुके कामों को पूर्ण करने का आश्वासन दिया, कि मैं आकर फिर से काम करूंगा. संजीव कुमार वापस ठीक होकर लौट आए. अमेरिका से लौटने के बाद हिन्दी सिनेमा में संजीव कुमार के लिए स्वागत समारोह रखा गया, संजीव कुमार फिर से ऐक्टिव हुए खूब फ़िल्मों में ऐक्टिव हो गए थे. आखिरकार 6 नवंबर 1985 को उनके माँ को ले जाने वाला काला दिन आया जिसको संजीव कुमार ने ब्लैक डे के रूप में घोषित कर रखा था. 6 नवम्बर के दिन 1985 को अपने सेक्रेट्री जमुना दास को बोलकर नहाने चले गए. आधे घण्टे तक संजीव कुमार नहीं लौटे, तो जमुना दास ने देखा कि संजीव कुमार बाथरूम के बाहर बेहोश पड़े थे, डॉ. ने हार्ट अटैक के कारण संजीव कुमार को म्रत घोषित कर दिया. कोई दो राय नहीं है कि संजीव कुमार होते तो उन्होंने हिंदी सिनेमा में अभी तक सैकड़ों अपने अंदाज़ की फ़िल्में बना चुके होते. अभिनय के सारे जॉनर में माहिर थे. संजीव कुमार को अभिनय करते हुए देखिए ऐसे महसूस कीजिए जैसे आप कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं. यकीन करिए संजीव कुमार जैसा न कोई हुआ है न होगा. ज़िन्दगी के नौ रंगों को संजीव उकेरने में उस्ताद थे. अभिनय सीख रहे बच्चों के लिए संजीव कुमार पूरा का पूरा नौ रंगों से भरा समुन्दर छोड़ कर चले गए हैं, गोता लगाने पर अभिनय नाम का कोई न कोई मोती ज़रूर मिल जाएगा..
Comments
Post a Comment