कमला हैरिस की हार: लोकतंत्र की परिपक्वता पर एक बड़ा सवाल
कमला हैरिस की हार: लोकतंत्र की परिपक्वता पर एक बड़ा सवाल
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एक बार फिर से डोनाल्ड ट्रम्प फिर से अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए हैं. उन्हें 50 राज्यों की 538 में से 295 सीटें मिली हैं, बहुमत के लिए 270 सीटें जरूरी होती हैं. डेमोक्रेटिक पार्टी की कैंडिडेट कमला हैरिस कड़ी टक्कर देने के बावजूद 226 सीटें ही जीत पाईं हैं. कमला हैरिस ने अपनी हार स्वीकार करते हुए वॉशिंगटन डीसी हावर्ड यूनिवर्सिटी में अपनी स्पीच में उन्होंने कहा- आज मेरा दिल आपके भरोसे अपने देश के प्रति प्यार और संकल्प से भरा हुआ. भारतवंशी कमला हैरिस ने कहा, 'इस चुनाव का नतीजा वह नहीं है जिसकी मुझे उम्मीद थी, या जिसके लिए हमने लड़ाई लड़ी थी, लेकिन हम कभी हार नहीं मानेंगे और लड़ते रहेंगे. निराश मत होइए. यह समय हाथ खड़े करने का नहीं है, यह समय अपनी स्लीव्स चढ़ाने का है. यह समय आजादी और जस्टिस के लिए एकजुट होने का है. हमें उस भविष्य के लिए एकजुट होना होगा, जिसे हम सभी मिलकर बना सकते हैं.
किसी भी व्यक्ति के लिए हार स्वीकार करने के अलावा कोई रास्ता होता नहीं है, लेकिन कमला हैरिस की हार के पीछे अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडन की भी खासी भूमिका रही है. दर-असल जियो पोलिटिकल में बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन की यात्रा आलस्य भरी रही है. अमेरिका के पिछले राष्ट्रपतियों की तुलना बाइडन से की जाए तो बाइडन बेहद कमज़ोर राष्ट्रपति सिद्ध हुए हैं. पिछले अमेरिकी राष्ट्रपतियों के मुकाबले बाइडन के किसी भी निर्णय में स्पष्टता नहीं रही है, उन्होंने यूक्रेन, इज़राइल किसी भी मुद्दे पर अपनी तत्परता नहीं दिखाई. जियो पॉलिटिक्स में बाइडन बेहद कमज़ोर बिल्कुल ही अप्रभावी रहे हैं. बाइडन को कमज़ोर राष्ट्रपति के रूप में ही याद किया जाएगा. बाइडन को पता था कि उनकी लोकप्रियता नही है, वे पुनः चुनाव नहीं जीत सकते, लेकिन वे पुनः, राष्ट्रपति बनने की अपनी महात्वाकांक्षी सोच पर अड़े रहे.. जबकि पिछले चुनाव हारने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प ने चुनाव अभियान जारी रखा.. कमला हैरिस एवं बाइडन की उम्मीदवारी स्पर्धा बहुत समय तक चलती रही, बहुत बाद में कमला हैरिस को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया गया, जबकि ट्रम्प आगे निकल चुके थे. क्योंकि कमला हैरिस को ट्रम्प की तुलना में चुनाव कैंपेन का इतना समय नहीं मिला.. यही एक सबसे बड़ी खामी रही जिससे डेमोक्रेटिक पार्टी निबटने में सफ़ल नहीं रही लिहाज़ा डोनाल्ड ट्रम्प विजयी हुए. डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के कई कारण हैं पहला यह कि ट्रम्प के पीछे कॉर्पोरेट का हाथ था, जिस व्यक्ति के पीछे कार्पोरेट खड़ा होता है उसके लिए संभावनाएं प्रबल हो जाती है. चुनाव कैंपेन के दौरान ट्रम्प के ऊपर हमला हुआ, कान के पास से गोली छूकर गुज़र गई, गोली लगने के बाद ट्रम्प के प्रति अमेरिका में सहानुभूति का पनपना भी एक कारण रहा. वोटर बहुत पिछला भूल जाते हैं, डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति से अमेरिकी वैसे ही कार्यकाल की उम्मीद रखते हैं जैसा बराक ओबामा का सफ़ल कार्यकाल रहा है, बरअक्स बाइडन एक असफल राष्ट्रपति सिद्ध हुए हैं, इस तुलनात्मक द्वन्द में ट्रम्प बाइडन की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी रहे हैं. अतः कमला हैरिस पिछड़ती चली गईं.
डोनाल्ड ट्रम्प को प्रचंड बहुमत मिलने के लिए जो सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है वो है दुनिया में दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा का उभार.. दुनिया में बड़े - बड़े से मुल्कों में भी अब दक्षिणपंथी विचारधारा का खासा उभार देखने को मिल रहा है. चाहे भारत में मोदी हों, इज़राइल में बेंजामिन नेतनयाहू, चाइना में जिनपिंग, रसिया में ब्लादिमीर पुतिन, यूके, इटली, जर्मनी आदि बड़े देशों में अभी दक्षिणपंथी विचारधारा अपने उरूज में है, जबकि पूरी दुनिया में डेमोक्रेटिक पार्टियां अभी नाजुक दौर से गुज़र रही हैं. हालांकि एक दौर होता था जब पूरी दुनिया में अधिकांश डेमोक्रेटिक पार्टियों का शासन होता था, कभी - कभार मोदी - वाजपेयी जैसे भारत में पीएम बन जाते थे तो उसे राजनीतिक उलटफेर कहा जाता था ऐसे ही रिपब्लिकन पार्टी के लिए अमेरिका में कहा जाता था. लगभग - लगभग पूरी दुनिया में ऐसे ही स्थिति रही है जबकि अब दुनिया के अधिकांश देशों में दक्षिणपंथी दलों की सरकारें हैं.
यूं तो अमेरिका को दुनिया का सबसे परिपक्व लोकतांत्रिक देश कहा जाता है जहां सबसे समझदार वोटर्स रहते हैं, लेकिन एक बात हैरान करती है हमेशा दुनिया को लोकतांत्रिक पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका बार - बार रिपब्लिकन पार्टी को क्यों चुन लेता है? जबकि ट्रम्प खुलेआम नस्लीय टिप्पणिया करते हैं. कोई कुछ भी कहे लेकिन अमेरिका में आज भी एक ऐसी विचारधारा के घोर समर्थकों का प्रभाव है जो रंगभेद को मानता है, जो खुद को सुपीरियर मानता है. ये पूरी दुनिया के लिए खासा हैरान करने वाला पक्ष है.
इस बार अमेरिका के पास मौका था एक महिला राष्ट्रपति को पाने का जो लगभग 237 सालों बाद ऐसा होता कि अमेरिका में कोई महिला राष्ट्रपति बनती, लेकिन ऐसा लगता है कि अमेरिका में कभी कोई महिला कोई राष्ट्रपति बनेगी. इससे पहले डोनल्ड ट्रम्प हिलेरी क्लिंटन को राष्ट्रपति चुनाव में हरा चुके हैं. तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो अमेरिकी, पश्चिमी देशों में कहा जाता है बल्कि मज़ाक उड़ाया जाता है कि स्त्रियों के लिए भारत में लीडरशिप नहीं है जबकि आज़ादी के कुछ सालों बाद भारत को एक महिला प्रधानमंत्री मिली थी, जबकि हमारे मुल्क में अभी तत्कालीन राष्ट्रपति भी एक महिला हैं, और अब तक दो महिलाएं राष्ट्रपति हो चुकी हैं. यूरोप, अमेरिका में महिलाओं को ऐसे सर्वोच्च पदों के लिए जनता खारिज कर देती है तो उनकी सोच पर भी हैरानी होती है "तब लगता है दुनिया जैसी दिखती है वैसी होती नहीं है जैसी होती है वैसी दिखती नहीं है". लगभग 237 सालों के इतिहास में दुनिया के सबसे पुराने उससे भी बड़ी बात दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्र में एक अदद महिला का राष्ट्रपति न बनना काफ़ी निराशाजनक है जो अमेरिकी दोहरी सोच को जाहिर करता है. बांकी रिपब्लिकन जीते या डेमोक्रेटिक भारत के सेहत पर ज़्यादा असर करेगा नहीं क्यों कि अमेरिका की नीतियां हमेशा से ही अमेरिका फर्स्ट की रही हैं.
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