हाथकरघा एवं हस्तशिल्प मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक पहिचान

*हाथकरघा एवं हस्तशिल्प मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक पहिचान हैं, जो प्रमुख आर्थिक विकास का जरिया बन सकते हैं*
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अत्याधुनिक मशीनी होते दौर में भी अगर हाथकरघा एवं हस्तशिल्प नाम जेहन में आता है तो सबसे पहले भारत के हृदय मध्यप्रदेश नाम आता है. मध्यप्रदेश और हस्तशिल्प एवं हाथकरघा को एक साथ सोचें, तो ज़्यादातर लोगों के दिमाग में चंदेरी, माहेश्वरी की साड़ियां जेहन में आती हैं जो अपनी कलात्मक डिज़ायन एवं रंगों के लिए प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कारीगर खुद अपने हाथों से बनाते हैं. ग़र किसी ने हस्तशिल्प व हाथकरघा की वस्तुएं बनते देखा है तो उसे पता ज़रूर होगा कि यह एक ऐसा हुनर है जो अपने आप में नायाब है. हालाँकि एमपी में चंदेरी एवं महेश्वरी की साड़ियां बहुत प्रचलित एवं लोकप्रिय हैं. गौरतलब है कि राज्य एमपी में और भी हस्तशिल्प हैं. एमपी में हस्तशिल्प के बहुतेरे विकल्प भी हैं जो मध्यप्रदेश की हस्तशिल्प कलाओ को उत्तम सिद्ध करती हैं. देखा जाए तो हस्तशिल्प और हाथकरघा दोनों ही कारीगरों द्वारा उनके हाथो से वस्तुएं गढ़ी जाती हैं. हस्तशिल्प में विभिन्न प्रकार के उत्पाद बनाए जाते हैं, जैसे कि:- 'लकड़ी के खिलौने', 'बांस के उत्पाद', 'पीतल के बर्तन',  'पत्थर की मूर्तियाँ', 'चमड़े के उत्पाद'... आदि बनाए जाते हैं. जबकि *हाथकरघा* में केवल और केवल कपड़े और वस्त्र बनाए जाते हैं, जैसे - 'साड़ियाँ', 'दुपट्टे', 'शॉल', 'गलीचे', 'कंबल' आदि बनाए जाते हैं.  हाथकरघा की तुलना में हस्तशिल्प में अधिक विविधता होती है, जबकि हाथकरघा में कपड़े और वस्त्र की विविधता होती है. हस्तशिल्प में अधिक हाथ की कारिगरी होती है, जबकि हाथकरघा में बुनाई और करघे की कारिगरी होती है. 

*हाथकरघा कला मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक पहिचान जिनके उत्पाद विश्व प्रसिद्ध हैं*

*चंदेरी साड़ियां* मध्यप्रदेश के अशोकनगर में चंदेरी साड़ियों के शहर में प्राकृतिक सौंदर्य के बीच इतिहास की झलक भी बखूबी मिलती है. बेतवा नदी के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में चारों ओर पहाड़ियों से घिरी चंदेरी हथकरघा से बनी साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है. पर्यटक यहां के अधिकांश घरों में साड़ियों काे बुने जाते देख कर ख़रीद सकते हैं. चंदेरी साड़ियों के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है, लेकिन जितनी यहां की साड़ियां महिलाओं को लुभाती हैं. उससे कहीं अधिक महाभारतकाल के शिशुपाल की नगरी कही जाने वाली चंदेरी की धरोहरें और प्रकृति द्वारा दी गई सुंदरता पर्यटकों को आकर्षित कर रही हैं, जो भी यहां पर्यटक यहां आते हैं तो वे ऐतिहासिक धरोहरों और प्राकृतिक सुंदरता को निहारते रह जाते हैं. वहीं मनभावन साड़ियां लिए बगैर भी नहीं रहते है. यूं तो चंदेरी का इतिहास महाभारत काल में राजा शिशुपाल की नगरी के नाम से मिलता है, लेकिन इतिहास के पन्नों में चंदेरी पर गुप्त, प्रतिहार, गुलाम, तुगलक, खिलजी, अफगान, गौरी, राजपूत और सिंधिया वंश के शासन के प्रमाण मिलते हैं. यहां पर राजा मेदनी राय की पत्नी मणीमाला के साथ 1600 वीर क्षत्राणियों ने बाबर के चंदेरी फतेह करने पर एक साथ जौहर किया था, जो आज भी यहां के किले में बने कुंड के पत्थरों के रंग से देखा जा सकता है. खास बात कपडों से संबंधित फ़िल्मों के लिए चंदेरी सबसे प्राथमिक रहा है. अब यहां अब तक स्त्री, सुई धागा सहित अन्य फ़िल्मों की शूटिंग हो चुकी हैं, और वेब सीरीज भी बन चुकी हैं. 
*महेश्वरी साड़ी* मध्य प्रदेश के महेश्वर में स्त्रियों द्वारा प्रमुख रूप से पहनी जाती है. होल्कर वंश की शासक देवी अहिल्याबाई होल्कर ने महेश्वर में सन 1767 में कुटीर उद्योग स्थापित करवाया था. इसमें पहले केवल सूती साड़ियाँ ही बनाई जाती थीं, परन्तु बाद में उच्च गुणवत्ता वाली रेशमी तथा सोने व चांदी के धागों से बनी साड़ियाँ भी बनाई जाने लगीं. अहिल्याबाई होल्कर के विशेष आग्रह पर यहाँ के बुनकर इन साड़ियों एवं अन्य वस्त्रों पर महेश्वर क़िले की दीवारों पर बनाई गई डिज़ाइन बनाते थे. वर्तमान में लगभग 1000 परिवार इस कुटीर उद्योग से जुड़े हुए है. छोटे से गाँव से इंदौर राज्य की राजधानी बनने के बाद अब महेश्वर तेज़ी से विकसित किया गया था. सामाजिक, तथा सांस्कृतिक विकास के साथ ही साथ देवी अहिल्याबाई ने अपनी राजधानी को औद्योगिक रूप से समृद्ध करने के उद्देश्य से अपने यहाँ वस्त्र निर्माण प्रारंभ करने की योजना बनाई. अतः देवी अहिल्याबाई ने हैदराबाद के बुनकरों को अपने यहाँ महेश्वर में आकर बसने के लिए आमंत्रित किया तथा अपना बुनकरी का पुश्तैनी कार्य यहीं महेश्वर में रहकर करने का आग्रह किया. इन बुनकरों के हाथ में जैसे कमाल जादू था. इन बुनकरों को प्रोत्साहित करने के लिए देवी अहिल्याबाई इनके द्वारा निर्मित वस्त्रों का एक बड़ा हिस्सा स्वयं ख़रीद लेती थीं, जिससे इन बुनकरों को लगातार रोजगार मिलता रहता था. इस तरह ख़रीदे वस्त्र महारानी अहिल्याबाई स्वयं के लिए ,रिश्तेदारों तथा दूर-दूर से उन्हें मिलने आने वाले मेहमानों तथा आगंतुकों को भेंट देने में उपयोग करती थीं. इस तरह से कुछ ही वर्षों में महेश्वर में निर्मित इन वस्त्रों, ख़ासकर महेश्वरी साड़ियों की ख्याति पुरे भारत में फैलने लगी, तथा अब महेश्वरी साड़ी अपने नाम से बहुत दूर-दूर तक मशहूर हो गई. अब तो देवी अहिल्याबाई चली गईं, राज रजवाड़े चले गए, सब कुछ बदल गया, लेकिन जिस तरह आज भी महेश्वर का क़िला अपनी पूरी शानो-शौकत से नर्मदा नदी के किनारे खड़ा है, महेश्वरी साड़ियों की परंपरा को जीवित रखने एवं कला विकास के लिए इंदौर राज्य के अंतिम शासक महाराजा यशवंतराव होल्कर के इकलौते पुत्र युवराज रिचर्ड ने 'रेवा सोसाइटी' नामक एक संस्था का निर्माण किया जो आज भी महेश्वर क़िले में ही महेश्वरी साड़ियों का निर्माण करती है. महेश्वर साड़ियां मध्यप्रदेश की ख़ास पहिचान हैं. 

मध्यप्रदेश के *गलीचे*, *शॉल*, और *कंबल* विश्वभर में प्रसिद्ध हैं. यहाँ कुछ प्रमुख हाथकरघा उत्पाद हैं, जो मध्यप्रदेश में बनाए जाते हैं. जैसे चंदेरी शॉल, महेश्वरी शॉल, बाग़ और भोपाल में बनाए जाते हैं. *हाथकरघा शॉल* एमपी में कुछ प्रमुख हाथकरघा शॉल हैं, जो मध्यप्रदेश में बनाए जाते हैं. 'चंदेरी शॉल' 'महेश्वरी शॉल' 'बाग़ प्रिंट शॉल'  'मप्र कॉटन शॉल', 'भोपाली शॉल' आदि हैं. अनोखे डिज़ाइन और पैटर्न, विभिन्न रंगों और बनावट की विविधता.... हाथ से बुने जाने की विशेषता, उच्च गुणवत्ता वाले कपड़े का उपयोग जिनका पारंपरिक और सांस्कृतिक महत्व है. 

*हस्तशिल्प मध्यप्रदेश की पहिचान* एक साधारण पहिया और जादुई हाथ मिलकर निराकार मिट्टी को शानदार रूपों में ढाल देते है. टेराकोटा, जीवन की प्रतिरूप लगती, एक वास्तव और आकर्षक कला है, जिसमें विशाल हाथी, नाग, पंछी, घोड़े, देवताओं की पारंपरिक मूर्तियां और ऐसे कई आकार बनाए जाते है. कला की विविधता, प्रसार और महारत के कारण मध्यप्रदेश की टेराकोटा मिट्टी ने अपनी अनोखी पहचान बना ली है. यह कला समाज को, पूजा से जुडे कर्मकांडों के लिए उपयुक्त वस्तुओं के साथ अन्य उपयोगी वस्तुएं भी प्रदान करती हैं. चमकीले रंग, देहाती रचना और भावपूर्ण पेशकश के साथ मध्यप्रदेश के लोक-चित्र अपने सरल, धार्मिक लोगों के जीवन को दर्शाते है. इन लोक-चित्रों के द्वारा पूजा और उत्सव के भाव, दोहरी फिर भी प्रेरणादायी अभिव्यक्ति पाते है. बुंदेलखंड, गोंडवाना, निमर और मालवा के आकर्षक दीवार-चित्रों के माध्यम से इन चित्रों का करिष्मा फैला है. *कांच के उपयोगी सामान* मध्यप्रदेश में कांच का काम अपने बेहतरीन राजसी रूप में उभर कर आता है. प्रकाशमान, चमकीली, देदीप्यमान, चमकदार कांच का काम, बेहद खूबसूरत लगता है. मध्यप्रदेश के कारीगरों के कुशल हाथों से बने मुस्कुराते कटोरे, चमचमाती कांच, जगमगाती प्लेटें और सजावटी क्रिस्टल, देखने में बहुत ही कमाल लगते हैं. 

*लकड़ी के शिल्प* मध्यप्रदेश के लकड़ी के शिल्पों  के सुघड चमत्कार सामने आते है. आदिवासी क्षेत्रों के पारंपरिक लकड़ी शिल्प में छोटे जानवरों और मानव की मूर्तियों से लेकर फर्नीचर जैसी बड़ी, नक़्क़ाशीदार वस्तुओं तक, सब कुछ शामिल हैं. मछली, मुर्गा, तीर-कमान लिए योद्धा, मोर, घुड़सवार, हाथी, लकड़ी मे खुदे शेर के सिर जैसी प्रकृति और वास्तविक जीवन की छवियों के नक्काशीदार शिल्प, इस कला की सुंदरता और विशेषज्ञता की कहानी सुनाते है. स्थानीय रूप से उपलब्ध शीशम, सागौन, दुधी, साल, केदार और बांस की लकड़ी से विभिन्न आकार की उपयोगी और सजावटी कृतियां आकार लेती है. राज्य के आदिवासी क्षेत्र में लकड़ी के शिल्प बनाने की प्राचीन और समृद्ध परंपरा है. अपने घर, दरवाजे की कलात्मक चौखटें, दरवाजे, चौकीयां और संगीत वाद्ययंत्र के निर्माण के लिए मंडला क्षेत्र के 'गोंड' और 'बैगा' लकड़ी का उपयोग करते है. बैगा अब भी लकड़ी के मुखौटे का उपयोग करते है. 'गोंड' और 'कोरकू' के परंपरागत लकड़ी के दरवाजे और स्मृति राहतें तथा 'बरीहया' जनजाति में शादी के खम्भें आकर्षक होते हैं. धार, झाबुआ और निमाड़ के भील-बहुल क्षेत्र में, “गाथा” अर्थात स्मृति स्तंभों के शिल्प बनाने की प्रथा है. पीसाई के पत्थरों के पात्र और अनाज को मापने की चौकियां लकड़ी से बनती हैं और उन पर खूबसूरती से खुदाई की जाती हैं. दरवाजों पर पशुओं, पक्षियों तथा विभिन्न पैटर्न की खूबसूरती से खुदी आकृतियाँ होती है, जबकि चाकू और कंघी पर बारीक नक्काशी दिखाई देती है. अलीराजपुर और झाबुआ, इन दो मुख्य केंद्रों में आदिवासी भील के लकड़ी के शिल्प देखने को मिलते हैं. 

*टोकरी और बांस* आसानी से उपलब्ध बांस की वजह से मध्यप्रदेश में टोकरी और चटाई की बुनाई, एक प्रमुख कला है. बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा और बैतूल के स्थानीय बाज़ारों में कई किस्म की टोकरीयां और बुनी हुई चटाईयां मिलती हैं. बैतूल जिले में तूरी समुदाय के लोग 50 अलग अलग प्रकार की टोकरीयां बनाते है, जिनका उपयोग विभिन्न दैनिक जरूरतों और प्रमुख मौकों के दौरान उपयोग किया जाता है. अलीराजपुर में बांस की खूबसूरती से बनी टोकरियाँ और खिड़कियां पाई जाती हैं. कुर्सी, मेज, लैंप और कई अन्य फर्नीचर के सामान बनाने के लिए बांस और बेंत का इस्तेमाल किया जाता है. बांस की बनी कई चीजें कला के संग्रह में शामिल होती है. 

*धातु शिल्प* मध्यप्रदेश में कई किस्म के धातु शिल्प बनाए जाते है. राज्य के कुशल कारीगरों नें धातु के अद्वितीय शिल्प बनाए है. शुरू मे धातु का प्रयोग बर्तन और आभूषण तक ही सीमित था, लेकिन बाद में कारीगरों ने अपने काम में बदलाव लाते हुए विविध स्थानीय श्रद्धेय देवता, मानव की मूर्तियां, पशु-पक्षियों और अन्य सजावटी वस्तुओं को भी शामिल कर लिया. टीकमगढ़ के स्वर्णकार, धातु की तार के उपयोग के विशेषज्ञ माने जाते है, जो हुक्का, गुडगुडा, खिचडी का बेला और पुलिया जैसे पारंपरिक बर्तन बनाने में कुशल होते है. वे पीतल, ब्रॉंझ, सफेद धातु और चांदी के लोक-गहने बनाते है और उन्हें चुन्नी, बेलचुडा, मटरमाला, बिछाऊ, करधोना, गजरा और ऐसे अन्य अलंकरणों के साथ बनाते हैं. सजावटी वस्तुओं में स्थानीय देवताओं की मूर्तीयों समेत हाथी, घोड़े, लड्डू गोपाल के सिंहासन, बैल, आभूषण के बक्सें, दरवाज़े के हैंडल, अखरोट कटर आदि शामिल हैं. टीकमगढ़ रथों और पहियों वाले पीतल के घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है. 

*लौह शिल्प* इसके अंतर्गत कच्चे लोहे को भट्ठी में गर्म किया जाता है और फिर बार-बार ठोक कर उससे सजावट और उपयोगिता की वस्तुएं बनाई जाती हैं. मध्यप्रदेश के आदिवासी लोहे को शिल्प में ढाल देते है. लोहे के सजावटी दीपक करामाती छोटे पंछी तथा जानवरों की पारंपरिक और समकालीन, दोनों तरह के शिल्प की दस्तकारी देखनेवालों को मोहित कर देती हैं. लोहारों के कुशल हाथों में लोहा सांकल, चिकनी, छुरी, चाकू, कुल्हाड़ी और नाजुक गहनों के रूप लेता है. बदलते समय के साथ, आधुनिक समय के स्वाद के अनुरूप, इस कला में बदलाव आ रहे हैं. शिवपुरी जिला करेरा, लोहे के कलात्मक और सुघड काम के लिए मशहूर है.
 *साँचे में ढली काग़ज़ की लुग्दी की चीज़ें* मध्यप्रदेश के भोपाल, उज्जैन, ग्वालियर और रतलाम क्षेत्रों से, विशेष रूप से नागवंशी समुदाय के कलाकारों को साँचे में ढली काग़ज़ की लुग्दी से देवताओं की मूर्तियां, पक्षियों की प्रतिकृतियां, पारंपरिक टोकरियाँ और अन्य सजावटी वस्तुएं बनाने की कला में महारत हासिल है. *पत्थर का काम* - मध्यप्रदेश के आदिवासी कलाकारों के लिए पत्थर पर नक्काशी करना, आध्यात्मिक खोज की एक अभिव्यक्ति रही है. जाली तथा देवी देवताओं की, पक्षियों और जानवरों की मूर्तियों के साथ अलंकृत यह शिल्प, स्वर्ग दृश्य का एहसास कराती है. स्थानीय रूप से उपलब्ध रेत पत्थर पर नक्काशी के लिए ग्वालियर प्रसिद्ध है. टीकमगढ़ के निकट ‘कारी’ बहुरंगी संगमरमर के बर्तन बनाने के लिए प्रसिद्ध है. रतलाम में राजस्थान से विस्थापित शिल्पकार सफेद संगमरमर में धार्मिक मूर्तियां बनाते है... जबलपुर के भेडाघाट की दुकानें संगमरमर की मूर्तियां बनाई जाती हैं, जबलपुर में बनी संगमरमर की मूर्तियाँ पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं....

मृगनयनी एमपी सरकार द्वारा प्रायोजित एम्पोरियम की एक श्रृंखला तथा मध्यप्रदेश के ‘हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम लिमिटेड’ की एक इकाई है, जो मध्यप्रदेश के कुशल कारीगरों की कला-कृतियों का प्रदर्शन करती है. राज्य के प्रमुख शहरों, मेट्रो शहरों तथा भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में मृगनयनी के शोरूम द्वारा हस्तकला की वस्तुएं, धातु, टेराकोटा और मिट्टी के बर्तन, पेंटिंग, आभूषण और वस्त्र आदि की कई किस्में प्रदर्शित कर बेची जाती है. इंदौर में शंकर गंज से चमड़े के खिलौने, उज्जैन की स्थानीय दुकानों से कागज की लुगदी से बने कई तरह के पंछी, बैतूल और उज्जैन से बांस के उत्पाद, सीहोर जिले के बुधनी से लाख के खिलौने, इंदौर के देपालपूर से लाख की चूड़ियाँ, शिवपुरी में करेरा से लोहे की कलात्मक वस्तुएं, खजुराहो के स्थानीय दुकानों से आदिवासीयों द्वारा बनाई गई चीजें, टीकमगढ़ से आदिवासी आभूषण, जबलपुर से संगमरमर की कलाकृतियां, ग्वालियर से हस्तनिर्मित जूते, इंदौर से टाई एन्ड डाई प्रिंट और बाटिक, ग्वालियर से खादी ग्राम उद्योग द्वारा हस्तनिर्मित कागज, धार, इंदौर, उज्जैन और देवास से टेराकोटा शिल्प, भोपाल के ओल्ड सीटी क्षेत्र, अपमार्केट एम्पोरीया और न्यू मार्केट की दुकानों से चांदी के गहने, मोती-काम, कढ़ाई की हुई मखमली फैशनेबल पर्स जैसी पारंपरिक भोपाली कलात्मक वस्तुएं खरीदने के लिए जा सकते हैं. ये सारे के सारे हस्तशिल्प उत्पाद पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं. हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम द्वारा भोपाल, इंदौर, जबलपुर, पचमढ़ी और ग्वालियर में ‘शिल्प बाजार’ का आयोजन भी किया जाता है. जो सराहनीय है. 

देखा जाए तो मध्यप्रदेश एक कृषि प्रधान राज्य है, जिसमें कृषि के बाद सबसे अधिक रोजगार बुनाई के क्षेत्र में मिलता है. इसमें बुनकरो द्वारा वर्ष भर एवं सीजनल आधार पर बुनाई का कार्य किया जाता है. मध्यप्रदेश में 20 वर्ष पूर्व लगभग 60 हज़ार हाथकरघे कार्यशील थे, जो वर्तमान में घटकर लगभग 20 हज़ार के आसपास बचे हुए हैं. आज के मशीनी युग में बिजली द्वारा चालित एवं पॉवरलूम पर एक हाथकरघा की तुलना में लगभग 8 गुना तक कपड़े का उत्पादन होता है. जिसकी वजह से वर्तमान समय में हाथकरघा बुनाई कला लगातार सिमटती जा रही है. एमपी में हाथकरघा एवं हस्तशिल्प पर सरकार को और भी अधिक काम करने एवं लोगों को इससे जोड़ने की आवश्यकता है. देवी अहिल्याबाई की तरह बुनकरों एवं कलाकारों को प्रोत्साहन देना चाहिए, जिससे लोक संस्कृति बची रहे और हमारे लोगों की अद्भुत कला सार्थक सिद्ध हो. हाथकरघा एवं हस्तशिल्प की सरकारी दुकाने खोलने की योजना सरकार को लेकर आना चाहिए, और शिल्प कलाकारों, एवं बुनकरों को सरकारी अनुदान पर मदद करना चाहिए. साथ ही साथ हस्तशिल्प, हाथकरघा के लिए पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए नए कोर्स सामने लेकर आना चाहिए. जिससे नई पीढ़ियां अपनी संस्कृति को भी सहेजे और रोज़गार भी पाएं. खादी ग्रामोद्योग की तरह हस्तकला एवं हाथकरघा को बचाने की सख्त जरूरत है. जिससे आने वाली पीढ़ियों में लोक कलाओं का समुचित विकास हो सके. नई पीढ़ी के बहुतेरे युवाओं को रोजगार भी मिलेगा. स्कूली बच्चो को गणवेश के लिए पैसे देने की बजाय हाथकरघा से निर्मित गणवेश निःशुल्क दिए जाएं. पुलिसकर्मी, जैसे किसी भी विभाग के अधिकारियों की परम्परागत ड्रेस बनाने के लिए बुनकरों को ऑर्डर दिए जाएं.. इससे अनगिनत लोगों को रोज़गार मिलेगा. हथकरघा के कपड़े सरकारी विभागों में दिए जाएं तो गांव-गांव में नये हथकरघा खुल सकेंगे एवं महिला समूहों के माध्यम से गणवेश सिलाई पर बच्चों को समय पर ड्रेस मिलेगा और ग्रामीण महिलाओं को सम्मानजनक आय प्राप्त होगी. हथकरघा विभाग में कई सालो से टेक्निकल भर्ती नहीं हुई है जिससे कई पड़े लिखे लोग संभंधित डिप्लोमा करे आदमी आज बेरोजगार है और 4 - 5 हजार की नौकरी करने के लिए मजबूर है तो हथकरघा तो अधर में ही जाएगा.. हमारे एमपी में आदिवासी लोग एक से बढ़कर एक दैनिक जीवन की चीजें अपने हाथ से निर्माण करते हैं, जिन्हें एमपी सरकार प्रोत्साहित करे, और उन्हें आर्थिक रूप से मदद करे, तो मध्यप्रदेश के आदिवासी समुदाय के लोग अपने हुनर से दुनिया को अपनी तरफ़ खींच सकते हैं. ग़र हाथकरघा एवं हस्तशिल्प को जिला स्तर पर फिर गांव स्तर पर समूहों के साथ बिल्कुल सरकार अपनी नज़र में रखे तो संसाधनो की अपूर्ति भी होगी राज्य में अनुक्रम के साथ रोज़गार बढ़ेंगे, साथ ही महिलाओं, बुजुर्गों सभी की सहभागिता भी बढ़ेगी. 

दिलीप कुमार पाठक 





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