*अवसाद एक मानवीय बीमारी : समझने की दरकार*

*अवसाद एक मानवीय बीमारी : समझने की दरकार*
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पुरातन काल से यह कहावत प्रचलित है - "चिंता चिता के समान होती है". बदलती हुई लाइफस्टाइल में परिवर्तन एक दूसरे से आगे निकलने की जद्दोजहद में आदमी एकदम से रोबोट बनते जा रहे हैं. प्रतिदिन के तनाव से उपजती और मौत के मुंह में ले जाती गंभीर बीमारियों को देखते हुए यह बात बिल्कुल सही सिद्ध हो रही है. हर किसी के जीवन में स्थाई रूप से अपने पैर पसार चुका तनाव, व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है. इसी लिए हर साल 10 अक्टूबर को 'विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस' पूरे विश्व में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर जागरूकता पैदा करने के लिए प्रतिवर्ष मनाया जाता है. दुनिया भर में लोगों को मानसिक बीमारी के प्रति जागरूक करना और जनहित को ध्यान में रखते हुए सरकार को स्वास्थ्य नीतियों के निर्माण के लिए प्रेरित करना प्रमुख उद्देश्य है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मानसिक विकारों से पीड़ित व्यक्तियों की अनुमानित संख्या 450 मिलियन है. ख़ासकर हमारे भारत में लगभग 1.5 मिलियन व्यक्ति, जिनमें बच्चे एवं किशोर भी शामिल है. डिप्रेशन इससे पहले हमारे समाज को अपने चपेट में ले ले इसके लिए ज़रूरी कदम उठाए जाने की दरकार है. 

ज़िन्दगी में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कहानी होती है, सभी के अपने दुख, दर्द, संघर्ष होते हैं, इससे कोई भी अछूता नहीं होता. लाइफ में में मिला अथाह अपना तजुर्बा होता है. प्रत्येक व्यक्ति अपनी लाइफ का अभिनेता होता है. कोई टूटा हुआ टूट जाता है. कोई डूब जाता है. किसी को दुनिया जीत लेती है. कोई दुनिया जीत लेता है. दुनिया जीतने वाला भी एवं दुनिया दारी में डूबने वाला दोनों समाज के लिए उदाहरण होते हैं. ध्यान से देखा जाए तो आसपास कोई ऐसा भी है, बल्कि होता ही है, जिसको हम देखकर भी नहीं देख पाते, जिसका सीधा सरोकार खुद से भी नहीं होता. जिसका कोई दुःख-सुख नहीं है. सकून, का तो पता नहीं, दिन - रात का भी पता नहीं चलता. वक़्त भला किसके लिए रुकता है, वो तो बीतता जाता है, पहर के पहर बीत जाते हैं. उसकी ज़िन्दगी सिगरेट की तरह जल रही है. ज़िन्दगी निरंतर चलती रहती है, पता नहीं कब ठंडी हो जाए . अव्वल तो ऐसा इंसान कुछ बातेँ करता नहीं है. फिर भी उससे बात की जाए, उसकी बातेँ होती हैं... - "मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता". दुनिया की चाकाचौंध में भागती जिन्दगियों के बीच में उसका सब स्थिर है. उसको सिर्फ आपकी ज़रूरत है, सिर्फ आपके उस हाथ की जरूरत है. जब आप उसके आंसू पोंछकर उसके कांधे पर हाथ रखते हुए कहेंगे तुम्हें क्या हुआ? तुम ठीक तो हो? अपने एक स्पर्श मात्र से फिर से ज़िन्दा कर देंगे! 

हमारे आस-पास गौर से देखने पर वो इंसान दिख जाता है, कोई इस उम्मीद से बैठा होगा, कि आप उसके कांधे पर हाथ रखकर बोल दें कि "मैं हूँ, क्यों तुम्हें क्या परेशानी है", और वो आपको महसूस कर सकता है. एक स्पर्श से बॉडी इनफॉर्म करती है, खुद पता चल जाता है, कि यही वो शख्स है जिसकी तलाशा थी. जिसको दिल का हाल सुना सकता हूँ. जिसके सामने खुलकर रो सकता हूँ. रोना बुरा नहीं है, फ़ूट कर रोना चाहिए, ताकि अन्दर का गुबार निकल जाए, तब तक आदमी हल्का हो जाता है. आवश्यक नहीं है कि लोगों को ही अपने आंसू दिखाए जाएं, खुद रोकर खुद को समझाकर, खुद को फुसला कर, आने वाली या गुजर चुकी परिस्तिथियों के लिए तैयार कर सकते हैं. अपने जीवन के सफ़र में डाउन फील होता रहता है. अप्स, डाउन चलते रहते हैं. कभी - कभार महसूस होता है, कि शायद अपना कोई भी नहीं है, फिर भी ऐसा महसूस हो और आसपास कोई कंधा मौजूद न हो तो, अकेले में भी रोना बुरा नहीं है, फ़ूट कर रोना भी बुरा नहीं है. जब मन करे रो लेना चाहिए. हाँ निरंतर रोना पतन का कारण बन सकता है. एक होता है दुःख, भावनाओं का निकल आना, इसको संवेदनशीलता की श्रेणी में रखते हैं. दूसरा होता है रोना इसको कमजोरी माना जाता है, कि बुजदिल रोते हैं, पता नहीं किन अज्ञानियों ने इनकी परिभाषा तय कर दिया, दुःखद तो यह है कि लोग ढो भी रहे हैं. रोना भी एक मानवीय आदत है, हर कोई रोता है. कोई स्वीकार कर लेता है कोई नहीं. चूंकि सामजिक ढांचा है, कोई खुद को कमज़ोर नहीं दिखाना चाहता, कोई कह दे की डिप्रेशन हैं, टेंशन में हूँ तो सम्भालने वाला कोई नहीं है उल्टा आपको कायर सिद्घ कर देंगे. जो रो सकता नहीं है, फिर तो वो पागल हो जाएगा, या टूटकर मर जाएगा.

मानवीय जीवन में ऐसा कोई दुर्लभ ही होगा, जिसको रोना न आए. रोना कमज़ोरी नहीं है, हम कितने मानवीय हैं, इसका खुद अंदाज़ हो जाता है. मेरी ज़िन्दगी का तजुर्बा है जो व्यक्ति कहता है, कि मैं रोता नहीं सिर्फ ढकोसला है, जो कभी रोता नहीं है, बहुत मुमकिन है लोगों को रुलाता होगा. चूंकि भावनाओं को काबू करने का जिगर अभी बना नहीं है, किसी न किसी रूप में फ़ूट पड़ती हैं, और यह बहुत आवश्यक भी है.

सच यह है डिप्रेशन भी होता है, कोई अँग्रेजी बीमारी नहीं है, हमें भी हो सकता है, लेकिन हम अभी उतने शिक्षित नहीं हुए हैं, कि हमारा समाज डिप्रेशन को स्वीकार कर ले. इतना उदारवादी नहीं है, अभी भी हम लोगों की बुद्धी पूर्णतः विकसित नहीं हुई है. अंग्रेज उदारवादी होते हैं, शिक्षित होते हैं और इस बात को सहज स्वीकार कर लेते हैं कि मैं डिप्रेशन में हूँ, अधिकांश लोग भी स्वीकार करते हैं. हमारे यहां डिप्रेशन के लिए कोई स्पेस नहीं है, लोग इंतजार करते हैं, जब तक वो आदमी नालियों में न पड़ा मिले, जब तक अनाप - शनाप न करने लगे, तब तक हम स्वीकार नहीं करते. हम सीधे पागल हो जाने तक स्वीकार नहीं करते. हम आज भी इन मूल्यों में बहुत पीछे है. स्वीकार्यता के नाम पर तो बिल्कुल बैकवर्ड हैं. अमल में लाने के लिए अभी हमारे समाज़ को बहुत कुछ करना है. 

याद रखिए एक - दो लोग ऐसे होने चाहिए ज़िन्दगी में जिनके सामने आप पूरी तरह खुद को खोलकर कर दें. शारीरिक, वैचारिक, सामजिक, आर्थिक, किसी भी रूप में, आप अपने आप को उनके सामने निजी जैसा कोई कारण न रह जाने दे, औपचारिकता की ज़रूरत न हो. वो व्यक्ति खुद ही बताने लगता है. यकीन मानिए सबसे ज्यादा वो व्यक्ति दुनिया के लिए प्रेरणा बनता है. जिसके कांधे पर आप हाथ रख देते हैं, उसके आंसू पोछते हुए यकीन दिला सकते हैं कि तुम्हारी समस्या अल्पकालिक है. तुम फिर हंसकर जियोगे. दुःख ज़िन्दगी की सच्चाई है. दुःख पूर्णकालिक है, फिर भी मुफलिसी में जो आदमी सबक सीख सकता है, कोई पाठशाला नहीं सिखा सकती. उस दौर में एक दो लोग होते हैं, जो आपको जिंदा कर देते हैं. केवल एक आवाज़ देकर...

अफ़सोस हर किसी के पास वो लोग नहीं होते. डिप्रेशन कोई शर्म की बात नहीं है, जैसे बुखार किसी को भी हो सकता है, वैसे ही डिप्रेशन किसी को भी हो सकता है. अपने आप को डॉ. को दिखाएं कोई शर्म नहीं है. मस्तिष्क भी शरीर का वो भी अंग है. वो भी थक जाता है. और बड़ी बात दुनिया का हर आदमी रचनात्मकता के साथ जन्म लेता है. आप उसको निखारे अपने आप को समय दें. खुद से प्यार करें. पढ़ना अच्छा लगे तो पढ़िए, गाना अच्छा लगे तो गाएं. डांस, लेखन,जो भी करें, शिद्दत से करें. कुछ भी सृजन की क्षमता आदमी में होती है. इसको भी साथी बनाया जा सकता है. खुद की कीमत कभी कम न समझें ईश्वर के द्वारा बनाया गया हर जर्रा - जर्रा उपयोगी है हालांकि यह बोलना ज़रूर आसान है. इससे निकलना बहुत कठिन मगर जो निकल गया खुद को एक बार जरूर बोल सकता है. जो भी हूँ ठीक हूं उपयोगी हूं. देखिए हमारे आसपास हर तीसरा चौथा व्यक्ति डिप्रेशन में जी रहा है. हम सब व्यस्त हैं. कोशिश कीजिए आप किसी को डूबने से बचा सकते हैं, उसके कांधे पर सिर रखकर उसको जिंदा कर सकते हैं. क्या पता कोई आपके इंतजार में बैठा हो.

दिलीप कुमार पाठक

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