*उमर अबदुल्ला सरकार की राहें आसान नहीं*
*उमर अबदुल्ला सरकार की राहें आसान नहीं*
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धारा 370 खत्म होने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली है. उमर अब्दुल्ला केंद्र शासित प्रदेश बने जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री होंगे. हालांकि, उमर अब्दुल्ला के लिए राह उतनी आसान नहीं होगी, क्योंकि अनुच्छेद 370 हटने और केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर का 'पावर' गेम बहुत बदल गया है, और जम्मू - कश्मीर की राजनीति के लिए यह सबसे अहम पहलू है. उमर अब्दुल्ला पहले भी जनवरी 2009 से जनवरी 2014 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उन्हें मुख्यमंत्री होने का तजुर्बा भी है, लेकिन तब और अब में बहुत फर्क है. उमर अब्दुल्ला को एक स्वतंत्र राज्य का सीएम होने का अनुभव है, लेकिन केंद्र शासित प्रदेश का सीएम होने का तजुर्बा नहीं है. जब उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री हुआ करते थे तब जम्मू-कश्मीर पूर्ण राज्य हुआ करता था और अब ये केंद्र शासित प्रदेश है. तब जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 साल का था, अब बाकी राज्यों की तरह ही 5 साल होगा. तब राज्य से जुड़े फैसले लेने की सारी शक्तियां विधानसभा और मुख्यमंत्री के पास होती थीं, सारे के सारे कानून बनाने की शक्तियां सीएम के पास होती थीं, लेकिन अब काफी हद तक सारा कंट्रोल उपराज्यपाल के हाथ में होगा. और प्रमुख बात सारा का सारा कंट्रोल केंद्र सरकर के पास होगा, जो उमर अब्दुल्ला के लिए परेशानी का सबब बनने वाला है. मोदी सरकार का स्वभाव वैसे भी राज्यों में दखल देने का रहा है. जम्मू - कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा वापस देने का वायदा करने वाली मोदी सरकार ने आजतक बहाल नहीं किया है, जबकि यह निर्णय केंद्र सरकार के अधीन होता है. देखना दिलचस्प होने वाला है कि मोदी सरकार पूर्ण राज्य का दर्जा देती है या लटकाए रहती है, क्योंकि जम्मू - कश्मीर में हालात कैसे रहेंगे इस नव गठित सरकर के हाथ में भी रहने वाला है. तमाम राजनीतिक मतभेदों के बावजूद दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनातनी होती रहती है, उसी तरह की तनातनी जम्मू-कश्मीर में भी देखने को मिल सकती है. तभी तो कुछ दिन पहले दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक कटाक्ष किया था अगर हाफ स्टेट में सरकार चलाने में दिक्कत आए तो उमर अब्दुल्ला मुझसे सलाह ले सकते हैं". क्योंकि अरविंद केजरीवाल पिछले दस सालों से केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे हैं. केजरीवाल के कटाक्ष के मायने इसलिए भी हैं क्योंकि कोर्ट से कुछ शक्तियां मुख्यमंत्री को मिली थीं, लेकिन मोदी सरकार उसके विरुद्ध अध्यादेश ले आई थी.
ऐसे ही 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक संरचना भी पूरी तरह से बदल गई है और अब वहां सरकार से ज्यादा बड़ी भूमिका उपराज्यपाल की हो गई है. 2019 का कानून कहता है कि पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़कर जम्मू-कश्मीर विधानसभा बाकी सभी मामलों पर कानून बना सकती है. लेकिन एक पेच भी है. अगर राज्य सरकार राज्य सूची में शामिल किसी विषय पर कानून बनाती है तो उसे इस बात का ध्यान रखना होगा कि इससे केंद्रीय कानून पर कोई असर न पड़े. इसके अलावा, इस कानून में ये भी प्रावधान किया गया है कि कोई भी बिल या संशोधन विधानसभा में तब तक पेश नहीं किया जाएगा, जब तक उपराज्यपाल ने उसे मंजूरी न दे दी हो. अब जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल ही एक तरह से सबकुछ है. सरकार को भले ही पुलिस और कानून व्यवस्था को छोड़कर बाकी मामलों में कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन उसके लिए उपराज्यपाल की मंजूरी जरूरी होगी. इतना ही नहीं, उपराज्यपाल का नौकरशाही और एंटी-करप्शन ब्यूरो पर भी नियंत्रण होगा. इसका मतलब हुआ कि उपराज्यपाल सरकारी अफसरों का ट्रांसफर और पोस्टिंग उपराज्यपाल की मंजूरी से होगा. इसके अलावा, उपराज्यपाल के किसी भी काम की वैधता पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि उन्हें ऐसा करते वक्त अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए था या उन्होंने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया था. उनके किसी फैसले को अदालत में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उन्होंने फैसला लेते वक्त मंत्री परिषद की सलाह ली थी या नहीं ली थी. अतः बदल चुके जम्मू - कश्मीर के मुख्यमंत्री की राहें आसान नहीं रहने वाली..
दूसरी तरफ कांग्रेस की राजनीतिक चाल ने कश्मीर की नई सरकार के लिए चिंता की लकीरें खींच दी हैं. कांग्रेस ने उमर अब्दुल्ला सरकार को समर्थन तो दिया है लेकिन समर्थन बाहर से दिया है, बाहर से समर्थन देने का मतलब है कि कांग्रेस मंत्रिमण्डल में शामिल नहीं होगी. उमर अब्दुल्ला सरकार के शपथग्रहण में कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे सहित दिग्गज नेता राहुल गांधी - प्रियंका गांधी भी शामिल हुए हैं, लेकिन पार्टी ने अपने कोटे से सरकार में किसी को भी मंत्री नहीं बनवाया है. कांग्रेस से जुड़े सूत्रों के मुताबिक इसकी कई वजहें हो सकती है.
जम्मू कश्मीर में इंडिया गठबंधन की सरकार बनने के बावजूद कांग्रेस उमर अब्दुल्ला की सरकार में शामिल नहीं हुई है. कांग्रेस की तरफ से अब्दुल्ला कैबिनेट में कोई भी मंत्री नहीं बना है. वो भी तब, जब कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी खुद श्रीनगर जाकर सरकार के शपथग्रहण में शामिल हुए हैं. कांग्रेस के इस फैसले की अब चर्चा हो रही है कि आखिर पार्टी ने उमर कैबिनेट में अपने कोटे से मंत्री क्यों नहीं दिए? कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक इसकी प्रमुख वजहें हैं- जम्मू कश्मीर के चुनावी इतिहास में पहली बार कांग्रेस का प्रदर्शन काफी खराब है. पार्टी 6 सीटों पर सिमट गई है. ऐसे में कहा जा रहा है कि कांग्रेस हाईकमान ने पार्टी के किसी विधायक को कैबिनेट में न शामिल कर स्थानीय नेताओं को जमीन पर मेहनत करने का संदेश दिया है. जम्मू कश्मीर में कांग्रेस कोटे से एक भी हिंदू विधायक नहीं जीता है. ऐसे में पार्टी के सियासी समीकरण सध नहीं रहे थे. कश्मीर का मुस्लिम वोटबैंक पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के पक्ष में रहा है. उमर अब्दुल्लाह और उनकी पार्टी 370 को वापस लाने के पक्ष में है. कांग्रेस स्टेटहूड की सिर्फ मांग कर रही है. सरकार में पार्टी अगर शामिल होती तो अन्य राज्यों में उसके लिए सियासी बैकफायर कर जाता, इसलिए भी पार्टी ने सरकार में शामिल न होने का फैसला किया है नेशनल कॉन्फ्रेंस कांग्रेस के 1-2 मंत्री पद देना चाह रही थी, लेकिन कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता सांकेतिक भागीदारी नहीं चाहते थे. 6 विधायक जीते, इनमें 3 दिग्गज कांग्रेस की तरफ से इस बार जम्मू कश्मीर में 6 विधायकों ने जीत हासिल की है. इनमें पीरजादा मोहम्मद सईद, तारिक हामिद कर्रा, गुलाम अहमद मीर जैसे दिग्गज का नाम शामिल हैं. कर्रा घाटी में कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. कांग्रेस ने गुलाम अहमद मीर को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना है. कांग्रेस ने घाटी में 37 उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन जम्मू और चिनाब रीजन में पार्टी पूरी तरह साफ हो गई. अतः काँग्रेस रणनीति है कि इतना औसत प्रदर्शन के बावजूद नेताओं को मंत्री पद मिलना मतलब जमीन से दूर कर सकता है. इंडिया गठबंधन का धर्म निभाने के नाम पर कांग्रेस उमर अब्दुल्ला को समर्थन तो दे रही है, लेकिन सरकार में शामिल नहीं होना चाहती यह हैरान करने वाला है...कुलमिलाकर बदल चुके जम्मू - कश्मीर के नए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की राहें आसान नहीं रहने वाली हैं.
दिलीप कुमार पाठक
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