पितृपक्ष: पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करने का पर्व

पितृपक्ष: पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करने वाला पर्व 
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पितृपक्ष, जिसे शाब्दिक रूप से श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है. हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण पितृपक्ष श्राद्ध यानी 16 श्राद्ध, वर्ष के ऐसे विशेष दिन हैं, जिनमें व्यक्ति श्राद्ध प्रक्रिया में शामिल होकर 'देव ऋण', 'ऋषि ऋण' तथा 'पितृ ऋण', तीनों ऋणों से मुक्त हो सकता है. यह पर्व हमारे पूर्वजों की स्मृति में मनाया जाता है, जो हमें इस दुनिया में  लेकर आए. और हमारे लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया. पितृपक्ष का अर्थ है "पिता का पक्ष" या "पूर्वजों का पक्ष"... पितृपक्ष के दौरान, लोग उनकी स्मृति में पूजा-पाठ करते हैं, उन्हें भोजन और पेय पदार्थ अर्पित करते हैं, और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं. श्राद्ध के पिंडदान में चावल, आटा, और अन्य अनाजों को पूर्वजों की आत्मा के लिए अर्पित किया जाता है. -  तर्पण में जल और अन्य पेय पदार्थों को पूर्वजों की आत्मा के लिए अर्पित किया जाता है. श्राद्ध से पहले श्राद्धकर्ता को एक दिन पहले उपवास रखना होता है, अगले दिन निर्धारित मृत्यु तिथि को अपराह्न में गजछाया के बाद श्राद्ध तर्पण तथा बाह्मण भोज कराया जाता है. मान्यता है कि पितृ पक्ष के दौरान पितर दोपहर बाद अदृश्य रूप से आते हैं. अतः श्राद्धकर्म कभी भी सुबह या एक बजे से पहले नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तक दिवंगत पितर अनुपस्थित रहते हैं. कुछ लोग भोजन पकाकर बिना पिण्ड दिये ही मन्दिर में थाली दे आते हैं. इससे भी मृतआत्मा की शान्ति नहीं होती और श्राद्धकर्ता को श्राद्ध का पुण्य नहीं मिलता. हम में से किसी ने आत्माएं नहीं देखी, हालांकि आत्माएं अजर - अमर होती हैं, पितर पक्ष के बाद अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद लोगों को अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त होता है. 

पितृपक्ष पुरातन काल से चली आ रही परम्परा है जिसका निर्वहन करने के बाद समस्त परिवार सहित लोगों को आत्मिक शांति का बोध होता है. कहते हैं वाल्मीकि रामायण' में माता सीता के द्वारा पिण्डदान देकर राजा श्री दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ मिलता है. वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए बिहार के गया धाम पहुँचे. अतः वहाँ श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लेने के लिए राम और लक्ष्मण चले गए. लौट कर नहीं आए दोपहर हो गई थी, और पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की परेशानी बढ़ती जा रही थी.  तभी अपराह्न में दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की माँग कर दी.. गया के फल्गु नदी पर अकेली सीताजी असमंजस में पड़ गईं उन्होंने फल्गू नदी के साथ वट वृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया. कहते हैं तब आत्माएं अपना पिंड लेने आतीं थीं, थोड़ी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो माता सीता ने कहा "समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया. राम जी ने कहा कि बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है?  तब सीताजी ने कहा "यह फल्गू नदी की रेत केतकी के फूल, गाय और वट वृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म के साक्षी हैं,  तब इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए. सिर्फ वट वृक्ष ने सही बात कही. तब सीता ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की. दशरथ ने सीता की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया है. बाद में तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीताजी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी, तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी, तुझमें पानी नहीं रहेगा. इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है. गाय को श्राप दिया कि तुम्हारी कोई इज्ज़त नहीं करेगा. और केतकी के फूल को श्राप दे दिया कि तुम कभी भी पूजा के अधिकारी नहीं रहोगे. वटवृक्ष को सीताजी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेंगी. यही कारण है कि आज अधिकांश लोग गाय की इज्ज़त नहीं करते. केतकी के फूल को पूजा-पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है. 

शास्त्रों में उल्लेख है कि जो व्यक्ति पितर तीर्थ स्थलों में जाकर अंतिम पिंडदान कर आता है उसको हर साल पितरों को पानी देने से मुक्ति मिल जाती है. भारत में ऐसे कई स्थान हैं, जहाँ ऐसे भूले-भटके लोग पितृदोष की निवृत्ति के लिए अनुष्ठान कर सकते है. जैसे कि बिहार में गया के घाट पर, गंगासागर तथा महाराष्ट्र में त्र्यम्बकेश्वर, हरियाणा में पिहोवा, उत्तर प्रदेश में गडगंगा, उत्तराखंड में हरिद्वार भी पितृ पक्ष के लिए श्राद्धकर्म को आरंभ करने हेतु उपयुक्त स्थल हैं. इन स्थलों में जाकर वे श्रद्धालु भी पितृ पक्ष के श्राद्ध आरंभ कर सकते हैं. हालाँकि शस्त्रों में कहा गया है कि गया, त्र्यम्बकेश्वर आदि जाने के लिए एक उपयुक्त समय होता है. मृतक जब मरता है उसी साल जाना चाहिए, और जाने से पहले खुद को कर्ज मुक्त होकर जाना चाहिए. पुरानी पीढ़ी के लोग बताते हैं कि पहले जब लोग हरिद्वार, गया आदि जाते थे तब ऐलान कर देते थे कि जाने अनजाने अगर मैंने किसी का कर्ज़ ले रखा है तो बता दीजिए मैं कर्ज मुक्त होकर ही जाऊँगा. समय के साथ परंपराएं बदलती रहती हैं, बदलना स्वाभाविक भी है. लेकिन अब ये परम्परा एक प्रकार से फैशनेबल हो गई है. पितृपक्ष में पितरों को पानी देने से बचने के लिए कोई भी निकल पड़ता है, चाहे पिता को गुजरे कितने ही साल बीत गए हों. चाहे खुद ने लोगों का जितना ही कर्ज़ सिर पर चढ़ा रखा हो!! अतः लोगों की भावनाएं आहत करने से बचना चाहिए. 

पितृपक्ष आत्मिक शांति के लिए एक साल में आता है, लोग इसका विधिवत पालन करते हैं, करना भी चाहिए. कभी - कभार उन लोगों को भी विधिवत पितृपक्ष में पितरों को पानी देते हुए देखता हूं तो अचरज होता है जिन्होंने ज़िन्दगी में अपने माता पिता का सम्मान नहीं किया, जिन्होंने ज़िन्दा रहते हुए बीमार माता-पिता को पानी नहीं दिया वे लोग माता-पिता को मरने के बाद एक से बढ़कर एक भोज बनवाते हैं, लेकिन  सवाल उठता है क्या ऐसे पुत्रों को देखकर ऊपर से माता - पिता कुढ़ते नहीं होगे कि इसने ज़िन्दा रहते तो मांगने पर पानी नहीं दिया आज दुनिया भर के तामझाम कर रहा है. क्या यह सब सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए किया जाता है? क्या यह सामाजिक दिखावट नहीं है, कि हम अपने माता - पिता के मर जाने के बाद भी इतना प्यार करते हैं और उन्हें याद करते हैं. 
आज के दौर भारत में बुजुर्ग माता - पिता, दादा - दादी की हालत अधिकांश दयनीय होती चली जा रही है. तमाम तरह की खबरें विचलित करती हैं, कहीं भी लावारिश लाशें बुजुर्गों की पाई जाती हैं. जिस देश में एक बड़ा वर्ग बुजुर्गों का वृद्धाश्रमों में गुजर कर रहा हो वहाँ मरने के बाद पानी देने की परंपरा तब बहुत अज़ीब लगती है जिन्होंने कभी माता पिता की इज्जत नहीं की.. 

अगर तार्किक होकर मानवीयता के लिहाज से देखें तो पहले हमें अपने ज़िन्दा माता पिता, बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है. बुढ़ापे में बुजुर्ग अधिक प्रेम चाहते हैं, उनकी सोच होती है कि घर में हमारी बातेँ सुनी जाएं. बुजुर्ग सिर्फ़ प्रेम चाहते हैं, उनकी आकांक्षाएं होती हैं कि जिस दरो दीवार के लिए जिन बच्चों के लिए हमने अपना पूरा जीवन लगा दिया, आज उनके पास हमारे लिए थोड़ा सा भी समय नहीं है, तो वे बुजुर्ग हताशा के गर्त में डूब जाते हैं. बुढ़ापा इतना क्रूर होता नहीं है जितना बना दिया जाता है. ज़िन्दगी भर काम करने वाले व्यक्ति को चार दीवारी में रहना पड़े, छोटी छोटी चीजों के लिए बच्चों पर आश्रित होना पड़े, और सोचा जाए तो व्यक्तित्व एकदम विपरीत हो जाता है. अधिकांश बुजुर्ग तो किसी भी परिस्थिति में खुद को ढाल लेते हैं, कुछ नहीं ढाल पाते... अतः पितृपक्ष में पानी देने से पहले हमें ज़िन्दा रहते हुए माता पिता के लिए सोचना चाहिए. फिर अगर हमने अगर इन दायित्वों का पालन किया है तो फिर गया जी, त्र्यम्बकेश्वर, हरिद्वार जाकर आखिरी पिण्डदान करने का भी फल मिलेगा और पूर्वज भी खुश होंगे. 

दिलीप कुमार पाठक 
 

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