सम्पूर्ण नायक भगवान श्री कृष्ण

सम्पूर्ण नायक भगवान श्री कृष्ण
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इस दुनिया में श्री कृष्ण जैसा सम्पूर्ण महानायक कोई दूसरा न हुआ है न होगा. चौसठ कलाओं में निपुण चक्रधारी श्री कृष्ण अपनी अलौकिक दिव्य चेतना के कारण उस द्वापर युग में ही सर्वशक्तिमान के रूप में विश्वविख्यात हुए. श्री कृष्ण किसी भी सीमा से उस पार खड़े दिखाई देते हैं.. महाभारत घोर विध्वंस के बीच ज्ञान आलोकित करने वाले श्री कृष्ण ने ऐसे प्रेम किया कि आज भी प्रत्येक प्रेमिका अपने प्रेमी में कन्हैया को ढूंढती है. पहली गाली पर सिर काटने की शक्ति होने के बाद भी 99 गाली और सुनने की सामर्थ्य हो तो वो कृष्ण हैं - - सुदर्शन चक्र जैसा शस्त्र होने के बाद भी हाथ में मुरली हो तो वो कृष्ण हैं. स्वर्ग जैसे द्वारिका का वैभव होने के बाद भी यदि सुदामा मित्र हो तो वो कृष्ण हैं.. मृत्यु के फन पर होने पर भी यदि नृत्य हो तो वो कृष्ण हैं. सर्वसामर्थ्यवान होने पर भी यदि सारथी बने हैं तो वो कृष्ण हैं. श्री कृष्ण अचिंत्य-धारा के प्रतीकबिंदु हैं. अचिंत्य, ये शब्द बड़ा अदभुत है. चैतन्य महाप्रभु कहते हैं - "अगर यह भी तुमने चिंतन से पाया, तो तुमने कुछ पाया नहीं तो यह सिर्फ सिद्धांत है, कुछ पाया नहीं. अगर सोचने के बाहर पाया है, तो फिर अनुभव में पाया है. 

सारी की सारी भूमिकाओं में श्री कृष्ण जैसा कोई भी नहीं है. मित्र ऐसे की मित्रता का इतिहास लिख डाला, आज भी मित्रता में लोग श्री कृष्ण को ढूढ़ने लगते हैं. बेटा ऐसा की आज भी हर माँ अपने बेटे में कान्हा को देखती है. मार्गदर्शक ऐसे श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान दिया जिनके ज्ञान से पूरी दुनिया आज भी आलोकित हो रही है. नायक ऐसे की बिना शस्त्र उठाए पूरा महाभारत अपनी बुद्धि से बदल दिया, ये वही नायक हैं जिन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी सेना के विरुद्ध पांच योद्धाओं को अपनी छत्र छाया में लेकर विजयी करा दिया. 

श्री कृष्ण कहते हैं - "मैं किसी के कर्मों को नहीं बदल सकता, इसलिए नहीं कि मैं बदल नहीं सकता बल्कि अपने कर्मों-कुकर्मों के लिए व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी होता है. क्या द्रोपदी वस्त्र हरण मैंने चाहा था? बिल्कुल नहीं. हर व्यक्ति को परमब्रम्ह एक ही सांचे में ढ़ालकर बनाता है, यहां आकर दुनिया के हिसाब से अपने-अपने सांचे में लोग ढल जाते हैं. मैं प्रत्यक्ष रूप से यहां आकर उंगली पकड़कर लोगों को रास्ते नहीं दिखाता इसलिए ही मैंने रास्ते बता रखे हैं, चुनने वाले की अपनी स्वतंत्रता है. मैं किसी को बाध्य नहीं कर सकता. हालांकि सारे के सारे बुरे नहीं हो सकते और सारे के सारे अच्छे नहीं हो सकते. मेरे दौर में भी बुरे लोग थे. हालाँकि एक सती का अपमान करने वालों के लिए जितनी निर्मम सजा दे सकता था, दिया. दुनिया की सबसे विकराल सेना को पांच लड़कों के साथ मिलकर मिट्टी में मिला दिया. कुकर्मों का नाश करने धर्म स्थापना के लिए सीमाएं लांघ जाने वाले श्री कृष्ण के पास हर उस प्रश्न का जवाब है. 

कृष्ण कहते हैं - "ऐसा नहीं है कि मैंने यशोदा मैया से बिछड़ते हुए माँ की वेदना महसूस नहीं की.....लेकिन सबकुछ विधिलिखित होता है. मैं सीमाओं में बँध नहीं सकता... क्या भांजे अभिमन्यु को मैं बचा नहीं सकता था? लेकिन मैं तो खुद ही अर्जुन को कई योजन दूर ले गया जिससे अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुसकर अपना अध्याय लिखे. मैं हर प्रश्न का उत्तर दे सकता हूँ, हे मानव लेकिन तुम खुद ही प्रश्नों के उत्तर ढूंढो".

आज श्री कृष्ण को महाभारत कराने वाले नायक के रूप में याद किया जाता है कितना दुर्भाग्य है लोग अपने आराध्य भगवान को ढंग से जानते ही नहीं. जबकि देखा जाए तो महाभारत में केवल एक कृष्ण ही थे, जो शांति की बात कर रहे थे, इसलिए नहीं कि श्रीकृष्ण द्रोपदी के अपमान को भूल गए थे, अपितु वे आम जनमानस को समझाना चाहते थे कि युद्ध आखिरी विकल्प होता है. श्री कृष्ण ने भीम अर्जुन को कहा - "ज़न कल्याण से ज़रूरी तुम्हारी प्रतिज्ञाएं नहीं हैं. अगर युद्घ रुक जाता है तो रुक जाना चाहिए. 

द्रोपदी से श्री कृष्ण कहते हैं - " शांति कोई विकल्प नहीं है आवश्यकता है. ग़र शांति मिलती है तो समझो सस्ती है. और जनकल्याण के लिए युद्घ कोई रास्ता नहीं होता... हस्तिनापुर एक सागर है, और तुम एक बूंद...

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

हालांकि जब-जब धर्म की ग्लानि-हानि यानी उसका क्षय होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं श्रीकृष्ण धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं.

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥

सीधे साधे सरल पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए...धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं.

आज के युग में कोई भी अत्याचार सहते हुए जब संयम खो देता है तो वो भी अत्याचारी बनकर खुद को सही बताने के छोटे प्रयास करता है. वीरगति प्राप्ति से पहले अंगराज कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा - "हे भगवन आप अर्जुन को अपना प्रिय कह्ते हैं आप मुझे अपना प्रिय नहीं मानते जबकि अनन्य भक्त तो आपका मैं भी हूँ. तब श्री कृष्ण कहते हैं - "अधर्म का साथ देने वाले को मैं अपना प्रिय नहीं मानता कर्ण. तब कर्ण कहते हैं - "भगवन मेरे साथ कितना गलत हुआ है बचपन में माँ ने त्याग दिया, आचार्य द्रोण ने मुझे शिक्षा नहीं दी, पूरी दुनिया मुझे शूद्र कहकर अपमानित करती रही, जब मैंने कुछ भी अपने पौरुष से हासिल किया तो भगवन आज मैं अधर्मी कहा जा रहा हूं, अगर आप ही मुझे शरण में नहीं लेंगे तो मेरी मुक्ति का मार्ग क्या होगा? तब श्री कृष्ण कहते हैं - "तुम्हारा जन्म तो निर्विघ्न हुआ था जबकि मेरे जन्म के पहले ही मृत्यु का साया था, मेरी माँ से दूर हो गया तुम्हारी तरह मैं भी एक माँ के द्वारा अपनाया बच्चा था, दुनिया मुझे यदुवंश कुल का कहकर अपमानित करती रही लेकिन मैंने अपमान जैसा कुछ माना ही नहीं...जब तक हम न माने कोई भी हमारा अपमान नहीं कर सकता. मैं हमेशा धर्म के मार्ग पर चला हूं.. धर्म के मार्ग को कभी नहीं त्यागना चाहिए.. ध्यान रहे पांडवों ने अगर कभी भी धर्म त्यागा होता तो मैंने उन्हें कब का त्याग दिया होता. धर्म का रास्ता कठिन होता है लेकिन मैं धर्म के रास्ते पर चलने वाले के हमेशा साथ होता हूँ. तुम सभी योद्धाओं के लिए ही अंतिम विकल्प कुरुक्षेत्र चुना है, कदाचित मैं तुम सभी को क्षमा भी कर देता लेकिन सती का अपमान किए जाने के बाद क्षमा का कोई मार्ग नहीं रहा यही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग है. 

हे मानव धर्म का त्याग कभी मत करना, ग़र धर्म के रास्ते पर चलते हुए कोई भी कष्ट उठाना पड़े तो उठा, ग़र धर्म के रास्ते पर देश निकाला भी मिले तो निकल जा.. ग़र गुरु द्रोण का सामना करना पड़े तो उन्हें न केवल प्रणाम कर बल्कि प्रणाम करते हुए उनका सामना भी कर.. ग़र पितामह भीष्म के लिए बाणों की सैय्या बनाना पड़े तो बना. अगर मानव कल्याण के लिए अपने अधर्मी रिश्तेदारों को मारना पड़े तो मार... और ये सब केवल तेरे बस का रोग नहीं है, क्योंकि मैं शिशुपाल की निन्यानवे गालियाँ ही नहीं सुनता, अपितु शांति के लिए निन्यानबे प्रयास करने के बाद महाभारत का बिगुल मैं ही फूंकता हूं... मुझे कोई भी निष्पक्ष न माने क्योंकि मैं एक पक्ष धर्म की ओर सदा ही रहा हूं... और रहूँगा. 

दिलीप कुमार पाठक

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