*बच्चों को मानसिक कुंद कर रही सोशल मीडिया की लत*

*बच्चों को मानसिक कुंद कर रही सोशल मीडिया की लत*
-----------------------------------------------------------------------

इन्टरनेट, सोशल मीडिया युग परिवर्तन के सबसे मुफ़ीद उदाहरण हैं. जब कोई बहुत बड़ा परिवर्तन होता है तो समाज़ में भी तरह -, तरह के परिवर्तन आते हैं. सोशल मीडिया के आगमन के साथ अन्य सुविधाओं आईं, उनका प्रत्यक्ष फायदा भी दिख रहा है, लेकिन उसके साथ ही इन्टरनेट, सोशल मीडिया की लत पीढ़ियां ख़राब कर रही है. बच्चे, बुजुर्ग, जवान सभी के सभी मोबाइल फोन में ऐसे चिपक गए हैं कि सभी की आभासी दुनिया तो बहुत विशाल हो गई है लेकिन वास्तविक दुनिया सिकुड़ गई है. सबसे ज़्यादा बच्चों की हालत गंभीर है. हम आस-पास अपने घरों में देखते हैं तो हमारे छोटे-छोटे बच्चे मोबाइल में डूबे हुए हैं. बच्चे जिद करते हैं जब तक उन्हें भरपूर मोबाइल न देखने दिया जाए तब तक बच्चे खाना नहीं खाते. 
वहीँ बुजुर्गों मोबाइल की लत एक बड़ी समस्या बन चुकी है. हालाँकि बुजुर्गों के साथ पहले से ही नींद की कमी, बुजुर्गों की सिमटती सामाजिक ज़िन्दगी सोशल मीडिया का अत्यधिक इस्तेमाल कारण हो सकता है. सोशल मीडिया की लत अब गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है. 
सोशल मीडिया पोस्ट पर मिलने वाले लाइक और कमेंट हमारे दिमाग पर बहुत गहरा असर डालते हैं. इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं ज़्यादा प्रभावित करती हैं. दूसरे हमें कितना पसंद और स्वीकार करते हैं. अच्छे फीडबैक पाने के लिए लोग बहुत ज्यादा समय और ऊर्जा रील्स बनाने में खर्च कर देते हैं, वहीँ कुछ लोग रील देखने में घण्टों व्यतीत कर देते हैं. सोशल मीडिया एक ऐसी वर्चुअल दुनिया है, जहां सब कुछ बेहद खुशनुमा और खूबसूरत है. इंटरनेट पर रील्स देखने से हमारे शरीर में डोपामाइन नामक हैप्पी हार्मोन ज्यादा मात्रा में बनने लगता है और हम अच्छा महसूस करते हैं. लेकिन ऐसा करते वक्त समय का ध्यान नहीं रहता और घंटों तक लोग रील्स ही देखते रह जाते हैं. इसके पीछे भी वैज्ञानिक कारण हैं. इंटरनेट पर रोजाना एक नया ट्रेंड छाया होता है, जिसे फॉलो करना सोशल मीडिया यूजर्स के लिए बहुत जरूरी हो जाता है. यदि वह ऐसा ना करें तो उन्हें बाकी दुनिया से पीछे रह जाने का डर सताने लगता है, जिसे फियर ऑफ र्मिंसग आउट के नाम से जाना जाता है. 

आंकड़ों से पता चलता है कि सोशल साइट्स पर घंटों सक्रिय रहने की लत एक गंभीर समस्या बनती जा रही है, जिससे दुनिया भर के देश परेशान हैं. विभिन्न शोध बताते हैं कि भारत में करीब 22 फीसदी बच्चे और किशोर एक दिन में छह घंटे तक इंटरनेट पर बिता देते हैं. एक सर्वे के अनुसार महाराष्ट्र में 9 से 17 आयु वर्ग के औसतन 10 में से 6 बच्चे रोजाना तीन से छह घंटे सोशल मीडिया पर वक्त बिता रहे हैं.  अमेरिका में करीब 40 प्रतिशत बच्चे सोशल मीडिया या र्गेंमग की लत की गिरफ्त में कैद हो चुके हैं. सोशल मीडिया की लत बच्चों में अवसाद और अकेलेपन की समस्या को बढ़ा रही है, जिसे कोरोना काल में हुई ऑनलाइन पढ़ाई ने और ज्यादा बढ़ा दिया. हालांकि, उस समय ऑनलाइन पढ़ाई हालात की मांग थी लेकिन इससे बच्चों में स्क्रीन टाइम अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया है. अब हालात यह हैं कि कम उम्र में ही सिर दर्द, पीठ दर्द या गर्दन में दर्द सहित आक्रामक व्यवहार जैसे बदलाव बच्चों में देखने को मिल रहे हैं. बहुतेरे बच्चे न ढंग से सोते हैं, और न ही खाना खाते हैं. 

सोशल मीडिया की लत को लेकर डॉ कहते हैं “हम इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस्तेमाल करने वालों में चार 'सी' ढूँढते हैं. पहला है क्रेविंग यानी सोशल मीडिया पर जाने और इंटरनेट के इस्तेमाल की ज़बरदस्त तलब. दूसरा है कंट्रोल यानी जब आप सोशल मीडिया पर होते हैं तो अपना संतुलन खो देते हैं, आपको समय का पता नहीं चलता.”“तीसरा है कम्पल्शन यानी अगर आप को इंटरनेट पर जाने की या अपने मोबाइल फ़ोन पर मेल चेक करने की या फेसबुक पर अपडेट लिखते रहने और तस्वीरें अपलोड करने की ज़रूरत नहीं है तब भी आप इसका इस्तेमाल करते हैं और चौथा है कॉन्सिक्वेंसेज़ मतलब इस आदत के कारण हुआ नुक़सान. दोस्तों और रिश्तेदारों को खोने से लेकर ख़ुद का क़ीमती समय बर्बाद करना, इसमें सभी तरह का नुक़सान हो सकता है.”

बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं - " नई पीढ़ी टेक्नॉलॉजी के अनुचित इस्तेमाल की शिकार है जिसके कारण उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई है. वह किसी भी समस्या का समाधान तुरंत चाहते हैं क्योंकि उन्हें इंटरनेट पर हर प्रश्न का उत्तर फ़ौरन मिल जाता है. यही कारण है कि बच्चे अब दिमाग लगाना नहीं चाहते. जब सबकुछ बिना दिमाग लगाए मिल जाता है तो दिमाग लगाने की आवश्यकता ही क्या है! यही कारण है कि सोशल मीडिया जितनी उपयोगी है, नई पीढ़ी के लिए उतनी ही खतरनाक होती जा रही है. किसी पोस्ट पर लाइक या कमेंट मिलने से जुड़ा नोटिफिकेशन यूजर के शरीर में डोपामाइन का स्राव बढ़ाता है. यह हार्मोन फील गुड का एहसास कराता है, जो सोशल मीडिया की लत को बढ़ावा देता है. सोशल मीडिया अकाउंट खंगालने की तलब हो, तो फोन उठाने के बजाय दिल को भानेवाली किसी गतिविधि में मन उलझाने की कोशिश करें. घूमने-फिरने के लिए बाहर निकल जाएं. पसंदीदा पकवान पकाएं. इस्तेमाल का समय निर्धारित करें. सकारात्मक एहसास और नकारात्मक भावनाओं वाले पोस्ट के बीच अंतर पहचानें.

दिलीप कुमार पाठक 

Comments

Popular posts from this blog

*ग्लूमी संडे 200 लोगों को मारने वाला गीत*

मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया

राम - एक युगपुरुष मर्यादापुरुषोत्तम की अनंत कथा