'बचपन की तरह बुढ़ापे का भी स्वागत होना चाहिए'

बचपन की तरह बुढ़ापे का भी स्वागत होना चाहिए'

 'अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस विशेष' 


जब बच्चा पैदा होता है तो खुशियाँ मनाई जाती हैं, वहीँ व्यक्ति 
जब जवान हो जाता है तो उसके ऊपर तमाम तरह की पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियां आ जाती हैं. तब उस अवस्था में व्यक्ति किसी पर आश्रित नहीं होता, व्यक्ति खुदमुख्तार होता है. हालांकि जब वही व्यक्ति बुज़ुर्ग हो जाता है तो समाज एवं परिवार के लिए बोझ बन जाता है. जबकि होना यह चाहिए कि जैसे जन्म और बचपन का बड़ी उत्सुकता से स्वागत किया जाता है, उसी तरह बुढ़ापे का स्वागत होना चाहिए. अगर यह नहीं हो पा रहा तो कम से कम बुढ़ापे को दुत्कारा न जाए. एक आदमी पूरी ज़िंदगी बच्चों, परिवार का बोझ उठाता है, परिवार के सामने खुद को कभी भी प्राथमिकता नहीं देता, बाद में वही बुजुर्ग परिवार के लिए बोझ बन जाता है, इसलिए ही बुढ़ापा बहुत क्रूर होता है, या क्रूर बना दिया जाता है. दोनों बातों में बहुत अन्तर स्पष्ट झलकता है. जिन बुजुर्गों की घर में इज्ज़त, होती है, उनकी देखभाल,  जरूरतों को पूरा करने के लिए ध्यान दिया जाता है, उनके लिए बुढ़ापा एक अवस्था माना जाता है, लेकिन जिन बुजुर्गों की घर में इज्ज़त नहीं होती, जरूरतें पूरी नहीं होतीं उनके लिए बुढ़ापा अभिशाप बन जाता है. 

आदमी की अवस्था में परिवर्तन होना प्राकृतिक होता है. यह तय होता है कि आज जो जवान है कल बूढ़ा होगा. हम इन बातों को जानते, समझते हुए भी सहज नहीं होते. हम बुढ़ापा बहुत जल्दी स्वीकार नहीं कर पाते. हमारा समाज़ बुजुर्गों के लिए दिन प्रति दिन क्रूर होता जा रहा है, आज के बदलते हुए दौर में बुढ़ापा किसी अभिशाप से कम नहीं है. वृद्ध होने के बाद इंसान को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है. बढ़ती हुई उम्र के साथ आदमी बीमारियो से जूझता है. शरीर का प्रत्येक अंग प्रभावित होता है. शारीरिक शक्ति क्षीण होती है, देखने की क्षमता सीमित हो जाती है, कईयों की तो देखने की शक्ति ही खत्म हो जाती है. सुन पाने में असमर्थता होती है. चलने - फिरने की हिम्मत नहीं होती, कई बुजुर्ग तो अपने बच्चों पर इतने आश्रित हो जाते हैं कि उन्हें दैनिक नित्यकर्म के लिए भी अपने बच्चों की आवश्यकता होती है. जो माता - पिता हमारे बुज़ुर्ग हमारे लिए हर तरह से तत्पर रहते हैं. बदलते हुए दौर के साथ हम सब अपने बुजुर्गों के लिए समय नहीं निकाल पाते. हमें समझना चाहिए कि वरिष्‍ठ नागरिक समाज की अमूल्‍य विरासत होते हैं. उन्होंने देश और समाज को बहुत कुछ दिया होता है. उन्‍हें जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों का व्‍यापक अनुभव होता है. आज का युवा वर्ग राष्‍ट्र को उंचाइयों पर ले जाने के लिए वरिष्‍ठ नागरिकों के अनुभव से लाभ उठा सकता है. अपने जीवन की इस अवस्‍था में उन्‍हें देखभाल और यह अहसास कराए जाने की ज़रूरत होती है कि वे हमारे लिए बहुत ख़ास महत्त्व रखते हैं. हमारे शास्त्रों में भी बुजुर्गों का सम्मान करने की राह दिखलायी गई है. यजुर्वेद का निम्न मंत्र संतान को अपने माता-पिता की सेवा और उनका सम्मान करने की शिक्षा देता है-

यदापि पोष मातरं पुत्र: प्रभुदितो धयान्।
इतदगे अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ ममां॥

हालाँकि इसके विपरीत हमारा समाज़ बुजुर्गों के प्रति नर्म होने के बदले निर्मम होता जा रहा है. टीवी, अखबारों में  बढ़ती हुई बुजुर्गों के प्रति क्रूरता की खबरें खूब सुनाई देती हैं. बढ़ते वृद्धाश्रम हमारे समाज की एक सच्चाई है. कई एकल परिवारों में बुजुर्गों को कोई पूछने वाला, सुनने वाला नहीं है. जबकि इस अवस्था में वरिष्ठ नागरिक चाहते हैं कि हमारी सुनी जाए, बच्चे हमें समय दे, बुजुर्गों को इस उम्र में काफी प्रेम की आवश्यकता होती है, इस बढ़ती हुई उम्र में सहनशक्ति कम हो जाती है. अतः कई पढ़े -, लिखे बुजुर्ग तो खुद को परिस्थितियों में ढाल लेते हैं, लेकिन कई अनपढ़ बुज़ुर्ग खुद को नहीं ढ़ाल पाते. और यहीं से बुजुर्ग अपने परिवार के लिए कम ज़रूरी होते जाते हैं. आज बहुतेरे बुजुर्गों को हम देखते हैं, गुमसुम, स्तब्ध, शारीरिक रूप से कमज़ोर अकेले बैठे हुए निराशा में डूबे हुए जी रहे हैं. कई बुजुर्ग, गार्डन, मन्दिर, परिसर के बाहर बैठे हुए दिखते हैं उनके साथ उनकी ज़िन्दगी का योगदान बुला देने के बाद उनके हिस्से आता है तो सिर्फ और सिर्फ़ तिरस्कार... तिरस्कृत जीवन अपने आप में बोझ बन जाता है. बुजुर्ग ज़्यादा कुछ नहीं चाहते वे चाहते हैं कि हमारी बातेँ सुनी जाएं, वैसे भी उनके पास इतना विशाल अनुभव, ज्ञान होता है, अतः वे नई पीढ़ी के साथ बांटना चाहते हैं, जो ज़िन्दगी जिम्मेदारियों में बीत गई. अब उसके बाद वो चाहते हैं कि हमारा तजुर्बा हम से कोई बांट ले. वृद्धजन सम्पूर्ण समाज के लिए अतीत के प्रतीक, अनुभवों के भंडार तथा सभी की श्रद्धा के पात्र होने चाहिए. समाज में यदि उपयुक्त सम्मान मिले और उनके अनुभवों का लाभ उठाया जाए तो वे हमारी प्रगति में विशेष भागीदारी भी कर सकते हैं. इसलिए बुजुर्गों की बढ़ती संख्या हमारे लिए चिंतनीय नहीं है. चिंता केवल इस बात की होनी चाहिए कि वे स्वस्थ, सुखी और सदैव सक्रिय रहें.

संयुक्तराष्ट्र संघ ने पूरी दुनिया में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरुकता फैलाने के लिए 14 दिसम्बर, 1990 को यह निर्णय लिया कि हर साल '1 अक्टूबर' को 'अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस' के रूप में मनाकर हम बुजुर्गों को उनका सही स्थान दिलाने की कोशिश करेंगे. 1 अक्टूबर, 1991 को पहली बार 'अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस' मनाया गया, जिसके बाद से इसे हर साल इसी दिन मनाया जाता है. इसके बाद दुनिया में कुछ हद तक बुजुर्गों के प्रति संवेदनशीलता के लिए काम भी किया गया है, इसके बाद हमारे देश में भी समय - समय पर हमारी सरकारों ने बुजुर्गों के लिए तरह - तरह के विधेयक पारित किए हैं. भारत सरकार ने देश भर में वरिष्‍ठ नागरिकों के आरोग्‍यता और कल्‍याण को बढ़ावा देने के लिए सन 1999 में वृद्ध सदस्‍यों के लिए राष्‍ट्रीय नीति तैयार की थी इस नीति का उद्देश्‍य बुजुर्गों के प्रति कृतज्ञता का भाव बढ़े बुजुर्गों के प्रति कुछ संवेदनशीलता बढ़े. इसके साथ ही 2007 में वरिष्‍ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक' संसद में पारित किया गया इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्‍थापना, चिकित्‍सा सुविधा की व्‍यवस्‍था और वरिष्‍ठ नागरिकों के जीवन और सं‍पत्ति की सुरक्षा के इंतज़ाम करने का इंतजाम किया गया. लेकिन इन सब के बावजूद हमें अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में वृद्धों की हत्या और लूटमार की घटनाएं देखने को मिलती हैं. वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस बात का साफ सबूत है कि वृद्धों को परिवार एवं समाज में उपेक्षित किया जा रहा है. 

हालाँकि तात्कालिक सरकार ने भी बुजुर्गों के लिए ज़रूरी आवास, पेंशन, उपचार की सुविधाएं मुहैया करने की मुहिम चलाई हुई हैं. हालाँकि ये सब समाज में फैली मानसिकता को बदलने के लिए काफ़ी नहीं है. हमारे देश में भी अब बुजुर्गों की अच्छी खासी तादाद है, अतः हमारे देश की सरकार को और भी गहराई से सोचने की आवश्यकता है. हमें सबसे पहले तो उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाने पर जोर देना होगा. कुछ बुजुर्ग तो इतने स्वाभिमानी होते हैं कि अपने बच्चों से अपनी जरूरतें मांगने के लिए संकोच करते हैं कई तो खुद को शर्मिंदा महसूस करते हैं, ऐसे सभी बुजुर्गों के लिए सरकार विशेष ध्यान दे, हालांकि सबकुछ सरकार नहीं कर सकती कुछ बातेँ लोगों को खुद से ही सोचना होगा हालांकि इसके लिए तमाम जागरूक अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है. 

इस संदर्भ में देखा जाए तो वे बुजुर्ग ज़्यादा परेशान हैं जो न ही कुछ कर पाते हैं और न ही कुछ कर पाने में सक्षम है, न ही उन्हें कोई पेंशन मिलती. इनमें कुछ लोग शक्तिहीन और निर्बल हो चुके हैं, ऐसे बेसहारा वृद्ध व्यक्तियों के लिए सरकार की ओर से आवश्यक रूप से और सहज रूप मे मिल सकने वाली पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था की जानी चाहिए. अभी भी सरकार बुजुर्गों को वृद्धा पेंशन देती है लेकिन वो काफ़ी नहीं है. बुढ़ापे में तरह तरह की दवा लेने में ही खर्च हो जाते हैं अतः सरकर बुजुर्गों को इतनी पेंशन तो दे कि एक बुजुर्ग अपनी आवश्यक जरूरतें पूरी कर ले..कुछ ऐसे वृद्ध व्यक्ति जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हैं, उनके लिए समाज को कम परिश्रम वाले हल्के-फुल्के रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए  जिससे बुजुर्ग लोग व्यस्त रहें और खुद को निराश्रित महसूस न करें.

हालांकि कुछ बुजुर्ग ज़रूरत से ज़्यादा परिवार एवं समाज में हस्तक्षेप करते हैं. बदलते हुए दौर के साथ कई बुजुर्ग ये बात समझ नहीं पाते कि नई पीढ़ी को ज़्यादा रोक टोक पसंद नहीं होती है, अतः उन्हें अपने मन की ज़िन्दगी जीने देने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए. हालांकि जहां जरूरत हो तो बोलें अन्यथा चुप्पी की उत्तम है. खुद की उम्र के हिसाब से स्वस्थ्य आहार लें, शाम - सुबह टहलने के लिए निकल जाएं हल्का योग, व्यायाम करें, जिससे शरीर चलता रहे. अपने आप को नकारात्मकता में न जाने दें, इस उम्र में नकारात्मकता आना स्वाभाविक है. जाहिर है ज़िन्दगी संकुचित हो जाती है, निर्णय लेने के अधिकार छीन लिए जाते हैं. अतः खुद को स्वस्थ्य रखें. हाँ लोगों को अपने बुजुर्गों की इस मनोदशा को भी समझने की कोशिश करना चाहिए क्योंकि बुढ़ापा और बचपन दोनों एक जैसे ही होते हैं, अतः हमारे माता - पिता बुजुर्गों को बच्चों की तरह रखना होता है कुलमिलाकर बुजुर्गों को अपनी सन्तान की तरह स्नेह से रखने की आवश्यकता है... जिस घर में बुजुर्ग खुश होते हैं वो घर ही उत्तम माना जाता है... 

दिलीप कुमार पाठक 

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