बारिश अब आनन्द नहीं परेशानी का सबब
बारिश किसी के लिए आनन्द तो किसी के लिए परेशानी का सबब
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रिमझिम गिरे सावन, रिमझिम-रिमझिम, सावन आया बादल छाए, बरसात के मौसम में, तरह - तरह के गीत इस बात की पुष्टि करते हैं, कि हमारे देश में बारिश आनन्द का विषय हुआ करती है. बारिश आते ही खुशहाली ले आती है. प्यासी धरती के साथ वन्य जीवों के लिए भी जीवन की एक सौगात लेकर आती है. हमारे देश में आज भी कुछ ऐसी पीढ़ियां हैं जो बारिश को देखते रेडियो में गीत सुनते हुए, बातेँ करते हुए, रातों को जगते हुए समय गुज़ार देते थे. पहले ज़बरदस्त बारिश होती थी, फिर भी अंत्याक्षरी खेलते हुए समय निकाल देते थे... वहीँ गांवों में खूब बारिश होती कुटियों, झोपड़ों में पानी घुस जाता था, बच्चे बाढ़ के इस पानी में छप्प - छप्प खेलते हुए इस त्रासदी में आनन्द ढूढ़ लेते थे. लेकिन आज के दौर में बारिश आनन्द का विषय नहीं अपितु परेशानियों का सबब बन गई है. अभी हाल फ़िलहाल केरल के वायनाड में हुए भूस्खलन के कारण सैकड़ों लोगों की भयावह मृत्यु हो गई, कोई भी संवेदनशील इन्सान वो दृश्य देख नहीं सकता. गुजरात जैसा समृद्ध राज्य बाढ़ की त्रासदी में डूबा हुआ है, इसी बाढ़ ने गुजरात के विकास की कलई खोल दी है. आंध्र प्रदेश जो बंटवारे के बाद अपनी बिगड़ी अर्थव्यवस्था से जूझ रहा था, इस बार राजनीतिक दबाव में अन्य राज्यों की अपेक्षा आन्ध्रप्रदेश को बढ़िया बजट मिला लेकिन आंध्रप्रदेश की बारिश उस बजट के बाहर की बात है. गरीब राज्य बिहार हर साल बाढ़ की त्रासदी से लड़ता है, जहां लोगों का समान्य जीवन औसत से भी ख़राब है, वहाँ बारिश - बाढ़ अब एक श्राप बन गई है... कौन भूल सकता है उत्तराखंड बाढ़ त्रासदी जहां न जाने कितनी जिंदगियां असामयिक दम तोड़ गईं. यह कैसा विषाद है? किसी के लिए बारिश आनन्द का विषय है तो किसी के लिए अभिशाप बन गई है
इस साल पूरे देश में प्रचंड गर्मी हुई, पूरा देश गर्मी से झुलस गया. देश के जिन इलाक़ों में औसतन पारा 40-42°सेंटीग्रेटेड होता था, वहाँ भी इस साल पारा 50° सेंटीग्रेटेड रहा.. वहीँ दिल्ली में इस साल पारा रिकॉर्ड 53 डिग्री दर्ज किया गया
मौसम विभाग ने चेतावनी दी है 'आने वाले सालो में देश का तापमान 60 डिग्री तक पहुंच सकता है. सच यह भी है 60 डिग्री तापमान एक साधारण इंसान बरदाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि इससे शरीर की त्वचा जलने लगती है!!! और जैसे तापमान निरंतर बढ़ रहा है, दो चार सालो में वहाँ तक पहुंच सकता है. देश गर्मी से त्रस्त हो गया, आख़िरकार देश में मानसून ने दस्तक दी.. देश मानसून के फुहारों में भीगा ही था कि देश के कोने-कोने से बाढ़ जैसी त्रासदी की खबरें आने लगीं. बारिश का असंतुलन हो जाना बदलते हुए दौर के सबस बड़े नुकसानो में प्रमुख है. जलवायु परिवर्तन के कारण अब वैसी बारिश नहीं होती जैसी सालों पहले होती थी. हमारे ही देश में पंद्रह - पंद्रह दिनों तक लगातार बारिश होती थी, धूप नहीं निकलती थी, फिर भी लोगों में बारिश को लेकर कोई खौफ़ नहीं था, क्योंकि बारिश संतुलित रहती थी. गांवों में बारिश के समय गरीबो के बच्चों को भी बारिश की बूँदों के साथ नाचते, कूदते, महिलाएं मानसून के दस्तक के साथ खूब गाती थीं. देश में चौमासे के त्योहारों को लेकर एक अलग ही रोमांच होता था, बेशक मूलभूत सुविधाएं ज़रूरत से कम थीं, लेकिन उत्साह देखते ही बनता था. नदी किनारे के गांवों में रहने वालों के घर ज़रूर हर साल बह जाते थे, लेकिन नदियों में लकड़ियां पकड़ना किसी पर्व से कम नहीं होता था. कुछ असंवेदनशील इलाकों को बाढ़ प्रभावित इलाकों के रूप में चिन्हित किया जाता था, तो सरकारें सीमित संसाधनो के बावजूद भी व्यवस्था चुस्त - दुरुस्त तो नहीं लेकिन काफी सम्भाल लेती थीं. लोगों में बारिश को लेकर एक उत्साह होता था. बदलते हुए दौर के साथ वो उत्साह कम होता गया.
हमारे देश की जलवायु को देखते हुए बारिश के सीज़न को चौमासे के रूप में जानते हैं, चूंकि पहले चार महीने तक बारिश होती थी. पूरे देश में बारिश एक आंनद का विषय मानी जाती थी, क्योंकि गर्मी के सीज़न में देश गर्मी से झुलस जाता था तो बारिश की ज़रूरत अत्यधिक समझ आती थी. हालाँकि अब बारिश के प्रति लोगों में कम होता उत्साह का कारण बारिश का असंतुलन हो जाना है. गांवों में कस्बों, सिटी, मेट्रो सिटीज़ कहीं भी देखिए थोड़ी ही बारिश के बाद सडकें तालाब बन जाती हैं. बदलते हुए दौर में बढ़ती जा रही सुविधाओं के बीच में अब बारिश दो चार दिनों के बाद सिरदर्द बन जाती है. बच्चों के स्कूल, ऑफिस, बारिश से प्रभावित होते हैं. जिनके पास आवागमन सुगम है उनके लिए भी समस्याएं कम नहीं है. ऐसा नहीं है कि यह सब पहले नहीं होता था, लेकिन अब जलवायु की समस्याएं विकराल रूप धारण कर रही हैं. क्या शहर क्या गांव.. सारे के सारे दो चार दिनों के बाद ही बारिश से त्रस्त हो जाते हैं.
देश की जलवायु ऐसी है कि कहीं कम बारिश होती है तो कहीं अतिवृष्टि होती है. पानी का आवंटन भी राजनीतिक दलों की वोट बैंक नीतियों की तहत होता है भले ही लोगों को चाहे जितना नुकसान हो जाए. इस साल बंगाल, जयपुर में रिकॉर्ड स्तर पर बारिश हुई है, तो वहीँ दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड में बारिश बहुत कम हुई है. जहां बारिश कम हुई है वहाँ बाढ़ की खबरें अज़ीब लगती हैं, कहीं सूखा पड़ा हुआ है तो कहीं नदियां उफान मार रही हैं. इस साल मैदानी इलाकों में बारिश बहुत कम हुई है लेकिन बाढ़ जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है. मैदानी इलाकों में रहने वाले कम पढ़े लिखे लोगों के लिए यह बात पचा पाना भी बड़ा कठिन है. जब कभी बारिश के आनन्द में डूबने लगता हूँ अनायास मुझे अपने गांव की वो गलियाँ याद आ जाती हैं जो कभी बारिश के कारण सीमित हो जाती थीं. बारिश से जूझते, पलायन करते वो लोग याद आते हैं. जो हर साल मुश्किल से घास-फूस का घर बना पाते हैं, जिन्हें बारिश हर साल अपने साथ बहाकर ले जाती है. मुझे याद आते हैं वो लोग जो बारिश की त्रासदी सहते हुए अपने अससबाब को बचाते हुए पक्के घर की कामनाएं करते हैं, काश हमारे भी होता पक्का मकान तो हम भी इस बारिश में जद्दोजहद की जगह मुद्दतों आई इस बारिश का आनन्द लेते. कितनी विसंगति है कुछ लोगों के लिए बारिश आनन्द का विषय होती है तो कुछ लोगों का सम्पूर्ण आशियाना ही उजाड़ देती है.. जब इन सभी उलझनों से जूझते हुए बारिश को देखता हूं तो बारिश के उस शोर में मुझे नदी किनारों, निचले इलाकों का चित्कार सुनाई देता है... इस त्रासदी पर कवि केदारनाथ सिंह की कविता याद आती है जो बारिश की त्रासदी को कुछ इस तरह से व्यक्त करती है.
पानी में घिरे हुए लोग प्रार्थना नहीं करते वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को और एक दिन बिना किसी सूचना के
खच्चर, बैल या भैंस की पीठ पर घर-असबाब लादकर चल देते हैं कहीं और यह कितना अद्भुत है कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह ज़रूर मिल जाती है
थोड़ी-सा आसमान फिर वे गाड़ देते हैं खंभे तान देते हैं बोरे
उलझा देते हैं मूँज की रस्सियाँ और टाट पानी में घिरे हुए लोग
अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध वे ले आते हैं आम की गुठलियाँ ख़ाली टीन भुने हुए चने वे ले आते हैं चिलम और आग फिर बह जाते हैं उनके मवेशी उनकी पूजा की घंटी बह जाती है बह जाती है महावीर जी की आदमक़द मूर्ति
घरों की कच्ची दीवारें दीवारों पर बने हुए हाथी-घोड़े
फूल-पत्ते पाट-पटोरे सब बह जाते हैं मगर पानी में घिरे हुए लोग शिकायत नहीं करते वे हर क़ीमत पर अपनी चिलम के छेद में कहीं न कहीं बचा रखते हैं थोड़ी-सी आग
फिर डूब जाता है सूरज...
कहीं से आती हैं पानी पर तैरती हुई
लोगों के बोलने की तेज़ आवाज़ें
कहीं से उठता है धुआँ पेड़ों पर मँडराता हुआ
और पानी में घिरे हुए लोग हो जाते हैं बेचैन
वे जला देते हैं एक टुटही लालटेन
टाँग देते हैं किसी ऊँचे बाँस पर
ताकि उनके होने के ख़बर पानी के पार तक पहुँचती रहे
फिर उस मद्धिम रोशनी में पानी की आँखों में
आँखें डाले हुए वे रात-भर खड़े रहते हैं
पानी के सामने पानी की तरफ़ पानी के ख़िलाफ़
सिर्फ़ उनके अंदर अरार की तरह हर बार कुछ टूटता है
हर बार पानी में कुछ गिरता है छपाक्...छपाक्...
केदारनाथ सिंह की यह कविता सोचने पर मजबूर कर देती है, बचपन से लेकर अब तक की समझ का हासिल यही कहता है, बारिश आती है तो ले आती है जीवन की तमाम सम्भावनाएं, लेकिन एवज़ में ले जाती है बहुत कुछ.... जिसकी कीमत चुकाती हैं पीढ़ियां.. बाढ़ की त्रासदी बारिश की बूँदों से निकलते हुए संगीत को भी मामूली बना देती है.
दिलीप कुमार पाठक
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