आप अपने बच्चों के प्रति क्रूर तो नहीं??

आप अपने बच्चों के प्रति क्रूर तो नहीं?? 

आदमी का सम्पूर्ण जीवन विषम परिस्थितियों में ही बीत जाता है. कभी कोई समस्या कभी कोई परेशानी मतलब इन्हीं उलझनों में जूझते हुए आदमी अपनी सांसे पूरी कर लेता है. आमतौर पर भारत की जीवनशैली ही ऐसी है. हर व्यक्ति की अपनी समस्याएं हैं. हम सभी के अपने - अपने संघर्ष हैं, हम सभी अपने तरीके से निपटने की कला सीख ही लेते हैं, लेकिन युवाओं की घोर समस्याएं हमारे देश की विकराल त्रासदी बनती जा रही है. हम सभी को अपना मूल्यांकन करना चाहिए. कहीं हम बच्चों के प्रति क्रूर तो नहीं है? कहीं हम बच्चों के नाजुक कँधों पर ज़्यादा बोझ तो नहीं डाल रहे! इस बेहद संवेदनशील विषय पर सामाजिक मूल्यांकन की दरकार है..

महान दार्शनिक अरस्तू कह गए हैं - "किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी युवाशक्ति होती है. एक मुल्क की आशाएं अपने युवाओं पर टिकी होती हैं. स्वस्थ समाज के युवा देश की दशा - दिशा दोनों बदल देते हैं. वहीँ जिस देश के युवाओं का मानसिक विकास सुदृढ़ नहीं होता वो समाज कभी भी तरक्की नहीं कर सकता. आज के बदलते हुए युग में युवाओं की बदलती हुई समस्याएं विकराल रूप धारण कर चुकी हैं. सच है बड़ी त्रासद होती है यह उम्र... हम सब यह उम्र जीने के बाद भी नहीं समझ पाते. दुनिया भर के मुकाबले भारतीय पेरेंट्स थोड़ा सख्त होते हैं, वो बच्चों के मन को पढ़ने से चूक जाते हैं. अच्छा जिन आचरणों को सुधारना चाहिए उनमे ही गर्व तलाशते हैं. वैसे हमारे देश में पालकों को भी नैतिक शिक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत है. 

अब तक के अधिकांश विचारकों ने अध्ययन करके यह बताया है "हर उम्र की चुनौतियां कठिन ही होती हैं, लेकिन युवावस्था सबसे ज्यादा कठिन होती है" . जबकि चाणक्य ने लिखा है -
  "दुनिया में तीन कष्ट ही प्रमुखतम हैं. पहला किसी मूर्ख से दोस्ती कर लेना, दूसरा किसी रिश्तेदार के घर में रहते हुए उसके ताने सुनते गुजर बसर करना... तीसरा युवावस्था...हालाँकि युवावस्था सबसे ज़्यादा दुखदायी है. कोई भी व्यक्ति जो परिपक्व हो, वो एक घण्टे भी युवावस्था की पेचीदगियों को झेल नहीं सकता. युवाओं की मनोदशा वाकई बहुत पेचीदा होती है. ख़ासकर युवाओं की 15-30 की यह उम्र बड़ी कष्टकर होती है. मानसिक उलझने, होती हैं, संयम, धैर्य की कमी होती है, गुस्सा जल्दी आना आम बात होती है. भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी रूढ़िवादी सोच संकीर्ण मानसिकता युवाओं के विकास में बाधा बनती है. 

हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा है, बच्चा जैसे ही थोड़ा बड़ा होता है शारीरिक परिवर्तन आता है. माता - पिता की उम्मीदें बढ़ जाती हैं. जैसे अब ये बच्चा परिपक्व आचरण करे. जबकि देश के अधिकांश पेरेंट्स को हार्मोंस परिवर्तन के बारे में पता ही नहीं है. मुहल्ले में किसी का बच्चा ज़्यादा अंक लाया है, फैलाने जी का बेटा /बेटी फलां कम्पनी में इतने बड़े पैकेज के साथ जॉब कर रहा /रही है. तरह - तरह की तुलना की जाती हैं. दर-असल किसी भी माता - पिता के द्वारा बोली गईं ऐसी बातेँ हमारे ही बच्चों का आत्मविश्वास डिगाने के लिए काफी होतीं है. ऐसी ये सब बातेँ कानो पर पड़ती हैं, तो बच्चे कई बार खुद एहसास ए कमतरी के शिकार हो जाते हैं. कई बार खुद को औरों से कमतर पाते हैं. कई बच्चे ऐसी बातेँ स्कूलों, कॉलेजों में भी सुनते हैं तो उनके दिमाग में वो बात घर कर जाती है कि यार मैं सचमुच कमतर हूं. यह भावना बच्चों को क्या किसी भी उम्र के व्यक्ति को खोखला कर सकती है. जबकि बच्चा इस उम्र में सबसे ज्यादा भविष्य को लेकर ही चिंतित रहता है. मन का कॉलेज मिलना, इच्छानुसार इंटर्नशिप लग जाए, और जॉब, बिजनैस तो ऐसी की ज़िन्दगी सैटल हो जाए... कई बच्चे इस पसोपेश में होते हैं कि न तो ढंग का कॉलेज मिला और न ही जॉब मेरी ज़िन्दगी अज़ीब सी संकुचित रही.. युवावस्था इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशते हुए बोझिल रहती है. बदलते हुए दौर में 15-30 के युवाओं में अब नींद की समस्याएं आम बातेँ हो गईं हैं, युवाओं में नशे की लत, देर रात जागना, आदि सब कुछ बहुत नॉर्मल हो गया है. ये सब केवल उनकी उम्र का दोष नहीं है, कुछ घर, परिवार, कुछ समाज का प्रेशर बच्चों की हँसी छीन रहा है. नौकरी/बिजनैस /पढ़ाई का बढ़ता प्रेशर वाकई बहुत बढ़ गया है. केवल पैसा, बड़ा बिजनैस, आर्थिक सफलता सुखी जीवन का सार नहीं है. आज भी बहुत से बड़े बिजनेसमैन, बड़े बड़े पदों पर बैठे व्यक्ति आत्महत्या कर लेते हैं. आज भी बच्चों को बिजनैस, जॉब, के प्रेशर में हम धकेलते हैं, जबकि सबसे ज्यादा नैतिक मूल्यों, बेसिक शिक्षा की जरूरत है. वैसे भी हर कोई अपनी ज़िन्दगी में रोटी, कपड़ा, मकान बना ही लेता है... 

ग़र आप विश्वविद्यालयों में बच्चों को गौर से देखें, गार्डन में, खेल ग्राउण्ड में, लाइब्रेरी में वो लटके हुए चेहरे खूब दिखते हैं. सच बताऊँ तो वो चेहरे मुझे अंदर तक झकझोरते हैं, कभी - कभार किसी भी बच्चे का उदास चेहरा मेरे सामने झूलने लगता है, जो कई प्रश्न करता है मैं जिनके उत्तर नहीं दे पाता. यूं तो कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर रिसर्चर, बौद्धिक लोग होते हैं, कुछ वाकई इन सब संवेदनशील विषयो पर नर्म होते हैं तो कुछ सख्त होते हैं. हालाँकि अब प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान में प्रशिक्षित काउंसलर की नियुक्ति की जानी चाहिए. टेली-काउंसलिंग सेवाओं को बढ़ावा देकर दूरदराज के क्षेत्रों में भी मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाई जा सकती हैं. साथ ही, समाज में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण बदलने के लिए मीडिया और सेलिब्रिटी एंडोर्समेंट का उपयोग किया जा सकता है..हालाँकि कुछ बदलाव दिखते भी लेकिन इसके लिए क्रान्तिकारी बदलाव चाहिए. 

एक बेसिक बात समझना चाहिए, कि बच्चों में हार्मोंस चेंज हो रहे हैं. बच्चे खुद को व्यस्क मानने लगते हैं, वो चाहते हैं कि उन्हें अब कोई डांट कर न समझाए. डांटने का अधिकार माता - पिता को होता है लेकिन ध्यान रखना चाहिए. युवा वर्ग को धन से अधिक सम्मान और विजय प्रिय होती है. महान दार्शनिक *अरस्तू* ने भी यही कहा था.. इस उम्र में आत्मसम्मान को जल्दी ही धक्का लगता है अतः उन्हें कभी किसी के सामने न डाँटा जाए. घर के बड़े लोग एवं माता-पिता मित्रवत आचरण करें... उनके साथ बातेँ करें उनकी समस्याओं के बारे में जाने, उन्हें समय देने की दरकार होती है, कभी - कभार हँसी मज़ाक करना चाहिए, जिससे उनका मन हल्का रहे. वो चाहते हैं आप रिश्तेदारों के साथ उनकी बातेँ शेयर न करें भले ही वो बात कोई भी हो, क्योंकि अपनी कमियों पर वही विजय पाएगा, जबकि रिश्तेदार हो या कोई और मज़ा ही लेते हैं. 

एक बात जो सबसे ज़्यादा क्रूर है कि हम सब हँसकर मज़ाक उड़ाते है कि देखो दूध के दांत नहीं आए और ये बच्चा इश्क़ कर रहा है! अभी तेरी उम्र ही क्या है? भला प्रेम उम्र देखती है? और कच्ची उम्र में जो आकर्षण होता है, भला मैच्योर आदमी वो कर सकता है?? वो मासूमियत एक उम्र में ही अच्छी लगती है. एक युवा जो घर परिवार, माता-पिता से समाज से छिपकर इश्क़ करे या दोस्तों के साथ घूमने निकल जाए या देर रात सिनेमा देखने निकल जाए या सब उसके आने वाले वक़्त की पूंजी हैं जिसे वो ताउम्र याद करते हुए अपने कमसिन उम्र को संजो लेना चाहता है. हमें सिर्फ एहसास करने की दरकार होती है. जबकि हम भूल जाते हैं कि यह उम्र हमने भी जिया है. हमने भी इन चुनौतियों का सामना किया है. हमारा समाज आज भी सहज नहीं है जबकि सहज होना बड़ा कठिन होता जा रहा है. बच्चों को सही - गलत का फर्क बताइए हर बात को अपने तरीके से करवाना छोड़ दीजिए, ग़र आप उनके दिमाग को फ्री रखते हुए सही गलत समझाएंगे लिबर्टी देंगे बच्चा कभी भी गलत डायरेक्शन में नहीं जा सकता... कुछ अनैतिक कर रहा हो तो ज़रूर रोकते हुए सही मार्ग दिखाएं. ग़र बच्चा अनैतिक मार्ग में न हो तो अनावश्यक दख़ल नहीं देना चाहिए.. बच्चों की ज़िन्दगी में एक स्पेस रखना चाहिए. ज़्यादा कुछ करने की कोशिश मत कीजिए, बच्चों के साथ सहज रहिए. बस कांधे पर हाथ रखिए उन्हें एहसास दिलाएं कि कोई भी कठिन परिस्थिति क्यों न हो हम आपके साथ हैं. उनकी जिज्ञासा को शांत करें. उनके दिमाग में हजारों प्रश्न उठते हैं. उन्हें अपनी समझ पर समझाएं, इससे पहले बच्चा किसी और से अपना मंतव्य प्रकट करे, उसके अंतर्मन में अपनी जगह बनाएं. ग़र आप यह सब कर पाते हैं तो आप बच्चों को अवसाद से बचा सकते हैं. थ्री इडियट, तारे जमीन जैसी फ़िल्में स्कूल, यूनिवर्सिटी आदि में बच्चों के साथ माता - पिता को दिखाई जाएं.. कई बार माता - पिता का इगो आड़े आता है कि तुम मुझे सिखाओगे? हमने दुनिया देखी है! जबकि समझने की दरकार होती है. इस दुनिया की कोई भी शै कुछ भी सिखा समझा सकती है, बच्चा तो फिर भी संवेदनाओं से भरा एक इंसान है...

जिस दिन देश भर में माता - पिता बच्चों की तुलना पड़ोसियों से करना, उन्हें सभी के सामने डांटना, मेरिट के आधार पर नीचा दिखाना, जॉब, बिजनैस की उपयोगिता समझाने के पहले ही उस अंधी दौर में शामिल करते रहेंगे तब तक हमारे मुल्क में युवावस्था एक त्रासदी बनी रहेगी...इस त्रासदी पर विजय आपको खुद पाना है, सरकार के भरोसे मत बैठिए अपने बच्चों के मित्र बन जाइए आपके बच्चों की ज़िन्दगी हसीन हो जाएगी. 

दिलीप कुमार पाठक

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