बेटियों पर ज्यादती मानवता पर प्रश्न चिन्ह है ?? ----------------------------------------------------------
*बेटियों पर ज्यादती मानवता पर प्रश्न चिन्ह है* ??
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कोलकाता में डॉ बेटी से दुष्कर्म, उसकी हत्या के बाद कायदे से आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बाद नज़ीर पेश की जानी चाहिए थी. पश्चिम बंगाल की महिला मुख्यमंत्री जो देश की इकलौती महिला मुख्यमंत्री हैं, उनकी सम्वेदनशीलता भी संदेह के घेरे में हैं. राज्य का कर्ता-धर्ता राज्य का मुख्यमंत्री होता है. फ़िर भी ममता बनर्जी का ड्रामा देखिए ममता बनर्जी बेटी को न्याय दिलाने के लिए पैदल मार्च निकालने लगीं. प्रशासन तो मुख्यमंत्री के अंतर्गत आता है, फिर ममता बनर्जी न्याय किससे मांग रहीं हैं? मुख्यमंत्री क्या अपने ख़िलाफ़ पैदल मार्च निकाल रही हैं. इसको एक तरह से ढोंग ही कहा जाएगा. जब आप मुख्यमन्त्री होते हुए भी एक बेटी को न्याय नहीं दिला पा रहीं तो आपके मुख्यमंत्री होने का क्या ही अर्थ रह जाता है. वैसे सरकारें ऐसे मामलों में हमेशा गैर जिम्मेदाराना साबित होती हैं लेकिन इस बार कोलकाता में तो अति हो गई. ममता बनर्जी ऐसे ड्रामे करके कुछ सालों के लिए सत्ता पर काबिज रह सकती हैं, लेकिन जब इतिहास लिखा जाएगा तो ममता बनर्जी के इस एक्शन को न्यायोचित नहीं कहा जाएगा.
विपक्ष के नेताओ की असंवेदनशीलता भी ज़रा देखिए जब उनके राज्यों में महिलाओ के प्रति ज्यादती के मामले आते हैं, या तो दबा दिए जाते हैं या फ़िर न्याय नहीं मिलता. उत्तरप्रदेश महिलाओ के खिलाफ़ ज्यादती के मामले में टॉप पर है. उन्नाव, बुलंदशहर, मथुरा, गोरखपुर, जैसे शहर बेटियों के खिलाफ़ ज्यादती के लिए खूब जाने गए हैं. अति तो हाथरस में हुई जब पुलिस के द्वारा परिजनों को सौपने की बजाय बलत्कृत बेटी के शव को जला दिया गया. कौन भूल सकता है कठुआ रेप जहां अपराधियों का फूल मालों से स्वागत किया गया. कौन भूल सकता है बिलकिस बानो केस गुजरात में बिलकिस बानो के रेप अपराधियों की उम्रकैद की सजा माफ करके उनकी रिहाई कर दी गई, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया. भाजपा कोलकाता में न्याय मांग रही है, माँगना भी चाहिए लेकिन यही भाजपा जब कोलकाता में आवाज़ उठा रही थी तब इनके ही राज्यों बिहार, उत्तरप्रदेश में बलात्कार की खबरें आ गईं, तब ये चुप हो जाते हैं. महिलाओ के लिए आवाज़ उठाने के मामले में कोई भी राजनीतिक दल ईमानदार नहीं है, सारे के सारे राजनीति करते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन जब भाजपा की बात आती है तो ऐसे मामलों में सबसे ज़्यादा असंवेदनशील राजनीतिक पार्टी सिद्ध होती है. नेताओं के चरित्र पर क्या ही कहा जाए किसी भी पार्टी में देखिए अपराधियों का बोलबाला है. जब राजनीतिक पार्टियों में इस मानसिकता के लोग हावी हैं, सिस्टम में बैठे हुए हैं वो अपने विरुद्ध नियम क्यों ही बनाएंगे?? सोचने वाली बात है, लेकिन हमारे समाज में लोगों की बौध्दिक समृद्धता अभी ज़्यादा नहीं है.
जब तक सिस्टम नहीं बदलेगा, तब तक जागरुकता नहीं आएगी. देश के 70% मिडिल क्लास को अपनी रोजी रोटी से फुर्सत नहीं है, सिस्टम कैसे बदलेगा?? दिन भर हिन्दी न्यूज चैनल देखकर इनसे ज्ञान बांटने के लिए कहिए रसिया, चाइना, यूरोप सारी समस्याएं हल कर देंगे, जबकि अधिकांश लोगों को नैतिक शिक्षा की दरकार है... मुझे भारी मन से कहना पड़ता है देश के 80 % लोगों को नागरिक अधिकारों की समझ नहीं है. वोट देना नागरिक होना नहीं होता नागरिक में एक चेतना होती है, सिस्टम से सवाल करने का आत्मबल होता है. मिडिल क्लास में आत्मबल नहीं है, ये सिर्फ़ टीवी का रिमोट चलाते हुए कमेंट पास कर सकते हैं. सोशल मीडिया में देखिए कोलकाता की बलत्कृत बेटी की तस्वीरें, खुलेआम शेयर कर रहे हैं, यह कितना घृणित है. यह सब किसी भी संवेदनशील इन्सान का कृत्य नहीं हो सकता. ग़र आपको न्याय माँगना है तो उस मृत बेटी की आपत्तिनजक तस्वीरें शेयर करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं? जबकि कई कवि लगातर उस बेटी का नाम लिखकर बार बार कविताएं लिख रहे हैं. माफ़ कीजिए मेरे कवियो यह सिर्फ़ एक अश्लीलता है, ऐसे लगता है जैसे ये सनसनीखेज, ज्यादतियों के मामलों में आप कविताएं रचने के लिए तैयार ही बैठे रहते हैं.. जबकि हर चीज़ का एक माकूल समय होता है.
ऐसे कवियों, लेखकों से मैं पूछना चाहता हूं.
कभी - कभार लगता है बहुत मुश्किल नहीं है किसी दूसरे की भूख पर कविता लिखना? वैसे भी भूख की आवश्यकता
केवल और केवल रोटी है... अन्यथा भूख का कविता से
क्या वास्ता? वैसे भी किसी भूखे को रोटी देने से भी आसान है कविताएं लिखना... उत्सवधर्मी समाज में कोई कठिन काम नहीं है किसी दूसरे की मौत पर मर्सिये गाकर कवि बन जाना..
अन्यथा टूट पड़ी विपदाओं में किसी को कविता लिखना
क्या खाक सूझेगा?? किसी दूसरे की बेबसी किसी ज्यादती पर कविताएं लिखने को क्यों न अश्लीलता की श्रेणी में रखा जाए??
अब जब देश के अधिकांश पढ़े लिखे लोगों को नैतिक समझ नहीं है तो कैसे सुधार हो सकता है? जिस देश के अधिकांश लोगों को इन संवेदनशील मुद्दो पर कैसे भाव व्यक्त करना हैं, इसकी समझ नहीं है तो समाज में कैसे परिवर्तन आ सकता है? लोग बेधड़क बलत्कृत बेटी की आपत्तिनजक तस्वीरों को सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं, यह बहुत बीभत्स है. हम सब की जिम्मेदारी होती है हम सब ऐसे मुद्दो पर राजनीति, अनैतिकता को हावी न होने दें. ऐसी तस्वीरें, शेयर करने से बचें. ग़र न्याय मांगना चाहते हैं तो सड़कों पर उतर कर न्याय मांगिये, समाज में फैल रही घृणित मानसिकता को खत्म करने के लिए इसके विरुद्ध लड़ने की आवश्यकता है. ध्यान रहे राष्ट्र निर्माण की ज़िम्मेदारी सत्ता में बैठे लोगों से ज़्यादा नागरिको की होती है. रेप एक घृणित मानसिकता होती है, जो विकराल होती जा रही है. इसके ख़िलाफ़ हमें लड़ना हैं तो क़ानून सख्त तो होना ही चाहिए. हालाँकि केवल क़ानून से ख़त्म नहीं कर पाएंगे, इसके लिए शिक्षा, ज्ञान से समाज में परिवर्तन आता है. हमें पहल करनी होगी. क्योंकि किसी भी अपराध, अंधकार से लड़ने के लिए चेतना सम्पन्न लोगों का होना आवश्यक है.
शाहरुख ने माधुरी दीक्षित से देवदास फिल्म में कहा था - "औरत माँ होती है, पत्नी होती है, बहिन होती है, बेटी होती है, दोस्त होती है, पत्नी होती है, दोस्त होती है. जब वो कुछ नहीं होती तो वो वेश्या होती है. जबकि आजतक कोई नहीं कह पाया - "पुरुष या तो पिता होता है या भाई, या बेटा होता है या दोस्त होता है, जब कुछ नहीं होता तो वो बलात्कारी होता है. ये शब्द इसलिए उपयोग किया क्योंकि हमारी हिन्दी, उर्दू भाषा में वैश्या जैसा शब्द पुरुषों के लिए है ही नहीं. हालाँकि मंटो ने जो कहा है ज़माने में कोई नहीं कह पाया-"उर्दू, अरबी ने स्त्रियों को तवायफ़ तो कहा, लेकिन पुरुषों को कुछ नहीं कहा. देखिए बहुत महत्वपूर्ण बात उठाई है आपने देश के कवि, साहित्यकार सिर्फ़ महिलाओं पर चुटकुले बनाते हैं. 80 - 90 के दशक से सिनेमा सिर्फ महिलाओ को उत्तेजक सामाग्री के रूप में उपयोग कर रहा है, कुछ ऐक्ट्रिस को छोड़कर... इसके बाद आई फ़िल्म थ्री इडियट्स कल्ट क्लासिक फिल्म कही जाती है लेकिन उसका एक सीन है जिसमें बार-बार बलात्कार शब्द पर दर्शकों के ठहाके सोचने पर मजबूर करते हैं. बार - बार इस शब्द को बोला जाता है. यह शब्द इतना असंवेदनशील होता है कि सुनने वाला सिहर जाए. ये फूहड़ संवाद समाज़ की हक़ीक़त बयां करता है. क्या हम इतने बेहिस हैं कि कॉमेडी के नाम पर ऐसे संवेदनशील विषयों पर भी विचार नहीं कर पाते? क्या हम चुपके-चुपके, तेरे घर के सामने, पड़ोसन, चलती का नाम गाड़ी नहीं बना सकते... सिनेमा ने हद्द गन्दगी मचा रखी है. हम केवल कानून से कुछ नहीं कर सकते. हमें बहुत कुछ बदलने की जरूरत है, हर वो चीज बदल डालने की आवश्यकता है जिससे सड़े हुए समाज की मानसिकता बदले.
हमें अपने समाज में महिलाओं की स्थिति उनकी सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए, अन्यथा समाज कितना भी कुछ हासिल कर ले जिस समाज में महिलाएं खौफ़ में होती हैं वो समाज़ कभी आदर्श नहीं कहा जा सकता. किसी भी महिला का अपमान पूरे देश का अपमान है. किसी भी बेटी से ज्यादती पूरी सभ्यता पर कलंक है.महिलाओं के ख़िलाफ़ ज्यादती पूरे समाज पर एक प्रश्न चिह्न है.
दिलीप कुमार पाठक
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