*लोग कहते हैं सागर को खुदा याद नहीं*


*लोग कहते हैं सागर को खुदा याद नहीं*


शायरी की दुनिया सिर्फ़ मज़े लेने.. दाद देने के लिए ही काफ़ी नहीं है. शायरी समझने का शउर तब तक आ ही नहीं सकता, जब तक साहित्य, दर्शन का अध्ययन और.. शब्दों को लिखना और उनका उपयोग करना , तन्हाई में ख़ुद से बातेँ करना... फिर कहीं शायरी की दुनिया का रुख किया जाए तो बात समझ आती है... और लिखने वालों का वो दर्द तो महसूस कर ही नहीं सकते.. जब तक ज़िन्दगी की क्रूर सच्चाइयों से वाकफा न हो जाए. मैं एक बात हमेशा कहता हूं शायरी समझने का शउर ग़र श्रोताओं में होता तो मंचों में उड़ रही दादों के बीच एक ख़ामोशी होती. 

एक दिन ऐसे ही मित्र 'अबु शहमा फै़ज़' से बात करते हुए मैंने अपनी नाराजगी जाहिर की... "तुम बड़े आवारा किस्म के शायर हो कहाँ चले जाते हो? बड़े दिन हुए तुमने कुछ लिखा ही नहीं ऐसे भला क्यों करते हो... उसने शायरना अंदाज़ में जवाब दिया

एक ही तो हवस रही है हमें
अपनी हालत तबाह की जाए

मैं सुनकर अचंभित तो नहीं हुआ, लेकिन मेरा मित्र है बड़ा भावुक.. 

मैंने ऐसे ही कह "यार मैंने कई बार महसूस किया है, तुम्हारी शायरी में मुझे फक्खड़पना दिखता है, कई बार सोचता हूं कितना महसूस करते हो.. कई बार मुझे लगता है कहीं तुम अपने ही रास्तों में गुम न हो जाओ..तो जवाब देता है 

हर शब ए ग़म की सहर नहीं होती
हो भी तो मेरे घर नहीं होती
ज़िन्दगी अब तू ही मुख्तसर हो जा
शब ए ग़म मुख्तसर नहीं होती,""

मैंने यह शेर समझकर समझा शायर भी दो तरह के होते हैं एक ज़िन्दा रहते हैं दूसरे ज़िन्दा रह जाते हैं.. आज शायरी की दुनिया में ग़ालिब, मीर के बाद सर्वकालिक महान शायर जॉन एलिया अपनी तिलिस्मी शायरी अपने फक्खड़पना अंदाज़, ज़िन्दगी की वास्तविकता को शायरी में कहने वाले... शायर के रूप में याद किए जाते हैं. जॉन साहब की शायरी महज शायरी नहीं है, उनकी जिंदगी का मुखपत्र है... उनके ज़ज्बात हैं. आज लोग खूब फ़ेसबुक पर उन्हें फॉरवर्ड करते हैं, लेकिन क्या कभी गौर किया है कि जॉन साहब ने शायरी के लिए क्या-क्या चुकाया है...जब-जब उम्र के आखिरी पड़ाव में या फ़िर, मरने के बाद दुनिया कसमे खाती है, तो मेरा मन भर आता है.. तब हमेशा शकील बदायूंनी की नज्म याद आती है 

मोहब्बत हमने माना ज़िन्दगी बरबाद करती है 
ये क्या कम है के मर जाने से दुनिया याद करती है

अबु को मैंने ईरानी कवि 'साबिर हका' का उदाहरण दिया कि, लिखने का हुनर सभी को नहीं आता, ये वाकई खुदा की नेमत है, किसी को मिलती है किसी को नहीं... साबिर साहब पेशे से मज़दूर, लेकिन अपने दुख, दर्द, तकलीफ़, ज़ज्बातो को लिखते गए.. लिखते गए, आज पूरी दुनिया साबिर हका साहब से परिचित है.... मैं उसको क्या ही मोटिवेशन देता, वो कहता है, शायरी मकबूल होने के लिए नहीं लिखी जाती दोस्त... कभी कभी मकबूलियत मिलने के बाद भी दुनिया भुला देती है..एक वक़्त आपके कांधे पर हाथ रखे तो समझ आता है.. कभी - कभार आदमी अपने उसी ढर्रे पर चला जाता है.. लिखने की आदत शायर बना देती है... शायरी कोई प्रोफेशन नहीं है...बस यही समझ आया है. 

हम सब सोचते हैं कि हमने काफी कुछ पढ़ लिया है, या काफी कुछ जान चुके हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि हम दुनिया की एक पॉइंट सच्चाई को नहीं जानते. विमर्श में एक दरवेश शायर का नाम आता है 'सागर सिद्दीकी'... सागर सिद्दीकी से प्रेरित रहे जॉन एलिया ने मरणोपरांत उनकी जीवनी तक लिख डाली.. आज सागर सिद्दीकी शायरी की दुनिया में जॉन एलिया से भी ज्यादा तिलिस्मी नाम हैं... कभी यह महान शायर खूब लोकप्रिय थे, महफ़िलों की दाद पाते थे, तालियां बटोरते थे... लेकिन वक़्त ने ऐसी करवट बदली शब्दों का शहंशाह सड़क पर आ गया था. सडकों पर सोता जो मिल जाता खाता... लेकिन लिखता गया.. लिखता गया.. लिखता गया.. सागर साहब की ज़िन्दगी जितनी गुमनाम, जितनी ख़ामोश थी, उतनी ही गुमनाम मौत भी उन्हें नसीब हुई... जो एक सड़क किनारे मृत पाए गए थे. सागर साहब का शुमार उर्दू अदब के उन चंद शायरों में होता है, जिनके शेर तो लोगों को याद हैं, लेकिन वो उन शेर के खालिक को नहीं जानते.. सागर की ज़िन्दगी भी एक भुला दिए गए शायर की है.. यहां तक कि इस शायर ने अपनी ज़िन्दगी का आधे से ज्यादा का समय फुटपाथ पर बसर किया.. उर्दू, अरबी, फारसी जुबान को लताफत बख्शने वाले इस अजीम शायर का कलाम आज भी ज़िन्दा है.. 

भूली हुई सदा हूं मुझे याद कीजिए, 
तुमसे कहीं मिला हूँ मुझे याद कीजिए 

मंज़िल नहीं हूँ ख़िज़्र नहीं राहज़न नहीं 
मंज़िल का रास्ता हूँ मुझे याद कीजिए. 

सागर सिद्दीकी साहब का असल नाम मुहम्मद अख्तर था, वो 14 अगस्त 1928 को अंबाला में एक ग़रीब घर में पैदा हुए थे. सागर का बचपना बहुत ही गरीबी, तंगहाली में गुजरा...कहते हैं ज़िन्दगी में कोई बचपन से ही तंगहाली से गुजर जाए, और उस वक़्त काग़ज - क़लम मयस्सर हो तो ज़िन्दगी शायर बना देती है. सागर बचपन से ही पढ़ने के साथ - साथ मजदूरी करते हुए बड़े हो रहे थे.. लेकिन ज़ज्बात लिखना आ गया था. बचपन से ही दोस्तों के साथ उठना बैठना.. खूब दाद देते दोस्त थे.. सागर साहब को लगा कि इसी दोस्ती के सहारे शायद ज़िन्दगी बसर हो जाएगी, अफ़सोस वही दोस्ती का गुमान उन्हें ले डूबा. 

सागर साहब की इब्तिदाई ज़िन्दगी का ज्यादा कुछ पता नहीं है, लेकिन उन्होंने कम उम्र में ही शायरी लिखना शुरू कर दिया था. शायरी के शुरुआती दौर में उन्होंने नासिर हज्जाजी के तखल्लुस से लिखना शुरू किया, लेकिन बाद में खुद को सागर सिद्दीकी के नाम से मनवाया. सागर साहब कम उम्र 16 साल की उम्र से ही मुशायरों में हिस्सा लेने लगे थे. अंबाला, लुधियाना, अमृतसर, आदि में खूब पहिचाने जाते थे. सागर की आवाज़ में एक कशिश थी, जो लोगों को खींच लाती थी. वो अपनी शायरी को एक तरन्नुम के साथ पढ़ते थे... सागर को असल में शोहरत 1944 में मिली, जब अमृतसर में उन्होंने एक बड़े मुशायरे में हिस्सा लिया. उस महफ़िल को सागर ने लूट लिया था.

अभी सागर के नौजवानी का आलम ही था, कि 1947 में मुल्क ही तकसीम हो गया.. बँटवारे के बाद साग़र हिजरत करते हुए लाहौर चले गए. अब तक सागर मुशायरे की दुनिया के एक बड़े शायर बन चुके थे. पाकिस्तान में भी सागर सिद्दीकी की शोहरत में इजाफ़ा हो रहा था. यहां शायरी की दुनिया से मुंसलिक लोगों ने सागर को हाथो हाथ लिया. उनके कलाम विभिन्न - विभिन्न अखबारो में खूब छपने लगे. फ़िल्मों से गीत लिखने के आग्रह पर उन्होंने खूब गीत लिखे. सागर के गीत सुपरहिट हुए. सागर साहब के गीतों को पाकिस्तान फिल्म इंडस्ट्री में वही पहिचान मिली, जो भारत में साहिर लुधियानवी, मजरुह सुल्तानपुरी, आदि को मिली. 

तब ही सागर की निजी ज़िन्दगी के उरूज़ में तूफान आया...जब सब कुछ अच्छा चल रहा था, तब तक सागर साहब के पास न जाने कितने दोस्त थे, और उन्हीं दोस्तों ने खूब लूटा.. आख़िरकार डिप्रेस्ड हुए, और बदहाली की ज़िन्दगी में पहुंच गए. फिर सागर को व्यसन की लत लग गई, व्यसन ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा.. फिर निकल ही नहीं सके.. और यही उनकी मौत का कारण बनी. 

कुछ हाल के अंधे साथी थे 
कुछ माज़ी के अय्यार सजन 
अहबाब की चाहत क्या कहिए 
कुछ याद रहीं कुछ भूल गए 

मुफलिसी, तंगहाली ने सागर को खड़ा नहीं होने दिया, लेकिन इस दौर में भी उनकी शायरी कमाल की थी. उनके दोस्तों ने तंगहाली में भी उन्हें लूटा, दोस्ती के एवज में उनसे खूब गजलें, गीत लिखवाए.. कईयों ने उनकी नज्में अपने नाम से पब्लिश करवा डाला, फिर भी उन कमज़र्फ लोगों को कोई नहीं जानता, लेकिन सागर साहब का कलाम आज भी ज़िन्दा है. 

जिस अहद में लुट जाए फकीरों की कमाई 
उस दौर के सुल्तान से कुछ भूल हुई है

उन की शायरी में उनका दुःख तो झलकता ही है. सागर सिद्दीकी के मरणोपरांत उनकी शायरी, उनकी नज्में दुनिया के सामने आईं. दुनिया ने जाना. जब दुनिया के बहुतेरे लोग भीख माँगकर खाना खाते थे, तब यह दरवेश शायर.. तंगहाली में मलंग बन कर फकीरी में सड़कों पर खाक छानते हुए, भीख मांग कर गुजारा करते थे. ऐसे होते हैं शायर ? कि ज़माना टूटा हुआ तारा बना डाले.

महफिलें लुट गईं ज़ज्बात ने दम तोड़ दिया 
साँस ख़ामोश हैं नगमात ने दम तोड़ दिया 

है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं 
मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं 

शायरी की दुनिया की मिलती हुई दाद मुझे बड़ी रहस्यमयी लगती हैं. जब भी किसी को शायरी पर ऐसे ही किसी को दाद देते हुए देखता हूं, अनायास ही सागर सिद्दीकी जैसे दरवेश शायर याद आते हैं.. कि ये दाद किस काम की.. ग़र भूखे वक़्त में रोटी न मिली. ग़र मूसलाधार बारिश में छिपाने के लिए जगह न मिली और बदन को ढंकने के लिए कपड़ा नसीब न हुआ...तो शायरी किस काम की ऐसी दाद किस काम की जो हवा में उड़ जाए.. लोग आज भी शायरी को याद रखते हैं, लेकिन उन्हें रचने वाले सागर जैसे खालिक को भूल जाते हैं..

मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू 
हम से कहते हैं वही अहद-ए-वफ़ा याद नहीं

उनकी फकीरी का आलम कुछ ऐसा था, कि गर्मियों में भी शॉल ओढ़े रहते थे. फकीरी में भी सड़कों पर सिगरेट के रैपर आदि बीनकर लाते और शायरी लिखते जाते.. मज़ारो पर दो वक़्त की रोटी के तलबगार सागर साहब से एक बार पाकिस्तान के सदर ए पाकिस्तान ने मिलने की इच्छा जाहिर की, लेकिन उन्होंने मिलने से मना कर दिया था.. 
समाज से एकदम अलग हो चुके शायर सागर साहब भीख मांग कर गुजारा करते हुए सड़क पर अपनी ज़िन्दगी बसर कर दी.. और असामयिक 46 साल की ही 19 जुलाई सन 1974 को इस क्रूर दुनिया को अलविदा कह दिया. क्या सदर ए पाकिस्तान को पता नहीं था कि यह शायर किस स्थिति में है! क्या उनकी खबर नहीं लेनी चाहिए थी? वैसे भी ज़िन्दगी की समझ का हासिल यह भी कहता है, किसी शायर के लिए सियासतदान के अंदर संवेदनाएं नहीं हो सकतीं! वक़्त की क्रूरता में टूट चुके शायर सागर साहब इसीलिए शायद लिख गए हैं. 

मैं ने पलकों से दर-ए-यार पे दस्तक दी है 
मैं वो साइल हूँ जिसे कोई सदा याद नहीं
आओ इक सज्दा करें आलम-ए-मदहोशी में 
लोग कहते हैं कि 'साग़र' को ख़ुदा याद नहीं

सागर साहब मेरे दिमाग से शायद कभी निकल नहीं सकते, जब भी मुशायरे, एवं ज़िन्दगी में कोई दाद देगा.. तब तब सागर सिद्दीकी साहब याद आएंगे. दरवेश शायर सागर सिद्दीकी को जन्म जयंति पर मेरा सलाम.. 

दिलीप कुमार पाठक 

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