*कैनवास में बनी पेंटिग थे स्वामी विवेकानंद के विचार*

*कैनवास में बनी पेंटिग थे स्वामी विवेकानंद के विचार*
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हमारे अध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद अमेरिका में एक सम्मेलन में शामिल होने पहुंचे. स्वामी जी ने एक अमर व्याख्यान दिया... स्वामी जी के दिए गए इस इस भाषण की चर्चा सारी दुनिया में हुई. अमेरिका के एक अखबार 'द न्यूयॉर्क हेराल्ड ने स्वामी विवेकानंद की तारीफ़ करते हुए लिखा था -' इसमे कोई शक नहीं है कि स्वामी विवेकानंद आयोजित धार्मिक संसद में सबसे विद्वान व्यक्ति हैं, उनको सुनना वाकई ज्ञानवर्धक अनुभव रहा. स्वामी जी को सुनने के बाद लग रहा है कि भारत जैसे विद्वान देश में मिशनरी भेजना सिर्फ़ और सिर्फ़ बेवकूफ़ी होगी. स्वामी विवेकानंद अध्यात्मिक गुरु के साथ साथ वैज्ञानिक सोच के तार्किक इंसान थे जो न केवल तर्क करना जानते थे अपितु तर्क करना सिखाते थे.

स्वामी विवेकानंद जी के भगवा वस्त्र पहनते ज़रूर थे, लेकिन वो बहुत प्रोग्रेसिव माइंड के उदारवादी व्यक्ति थे. बंगाल के एक प्रोग्रेसिव अमीर परिवार में पैदा हुए स्वामी विवेकानंद के दादाजी 'दुर्गा चरणदत्त' उच्च शिक्षित कई भाषाओं के जानकार वक़ालत करने के बाद 25 साल की उम्र में ही इन्होंने घर छोड़ दिया था अतः घर छोड़कर सन्यास धारण कर लेना स्वामी विवेकानंद जी के लिए कोई नई बात नहीं थी. स्वामी विवेकानंद जी के पिता 'विश्वनाथ दत्त' कलकत्ता हाइकोर्ट में वकील थे, जो हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, अरबी, फारसी, कई भाषाओं के विद्वान उदारवादी व्यक्ति थे. संस्कृत में हिंदू शास्त्र, इंग्लिश में बाइबिल, पर्शियन भाषा में दीवाने हफीज़, सूफ़ी कवि हफीज़ का कविता संग्रह भी पढ़ा था, जो उनकी पसंदीदा पुस्तक थी. पूरे घर वालों सहित स्वामी विवेकानंद को भी अपने पिता से ये सब सुनने, समझने को मिला, जिससे स्वामी विवेकानंद की सोच उदारवादी रही. स्वामी विवेकानंद जी के भाई भूपेंद्रनाथ दत्त ने बाद में कहा था - 'बहुत लोग हमारे पिताजी की आलोचना करते थे कि बाइबिल, कुरान, दीवाने हफीज़, आदि पढ़ने की क्या आवश्यकता थी?? मुस्लिम, क्रिश्चियन, सूफियों का सम्मान करने की क्या आवश्यकता थी?? लोगों ने उन्हें गुनाहगार बताया, लेकिन दूसरे धर्मों उनके धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना उनकी इज्ज़त करना गुनाह है तो यह गुनाह मेरे पिताजी बार - बार करना चाहेंगे'.

स्वामी विवेकानंद जी के पिताजी चैरिटेबल इंसान थे, जो जरूरतमंदों पर खूब पैसा ख़र्च करते थे. किसी ने इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद से पूछा - 'आप भिखारियों को इतना पैसा क्यों देते हैं? उन पर धन लुटाने की क्या ज़रुरत है? इससे समाज पर गलत असर पड़ता है' स्वामी जी ने कहा - 'देना न देना वो हमारा अधिकार क्षेत्र है, फिर भी तुम इस बात पर क्यों परेशान होते हो, ग़र ये गरीब, जरूरतमंद भीख की जगह चोरी करेंगे तो समाज ज़्यादा प्रभावित होगा. 

स्वामी विवेकानंद जी का मानना था कि उनका उदारवाद, तार्किक होना, साथ ही साथ भारतीय संगीत के प्रति लगाव सब पिताजी के कारण ही हुआ है. स्वामी जी की माँ भुवनेश्वरी देवी एक आस्तिक प्रवृत्ति की धार्मिक महिला थीं, लेकिन वो भी उत्तम सोच की महिला थीं. जिन्होंने बचपन से ही स्वामी विवेकानंद को उत्तम आचरण इंसान बनने की सीख दी. स्वामी जी की माँ ने उनसे कहा था - 'अगर तुम सच के साथ खड़े होगे तो तुम्हें अन्याय सहना पड़ सकता है, चूंकि असत्य का रास्ता बहुत आसान होता है, सत्य का कठिन रास्ता होते हुए भी तुम कभी सच का साथ मत छोड़ना. तुम्हारे बारे में कोई कुछ भी कहे तुम अपना सम्मान बचाने की कोशिश में किसी को ऐसा कुछ मत कहना कि किसी को ठेस पहुंचे. स्वामी विवेकानंद जब 8 साल के थे तब उनका एडमिशन कराया गया जिस संस्थान के प्रमुख ईश्वर चंद्र विद्यासागर थे, ये वही महान समाज़ सुधारक थे, जिनके कारण विधवा विवाह का कानून बना. अब उस उस संस्थान को विद्या सागर कॉलेज के नाम से जाना जाता है. 1879 में स्वामी विवेकानंद ने प्रेसीडेंसी कॉलेज में अध्ययन किया, ये वही हिन्दू कॉलेज था जिसे डेविड हेर, एवं कुछ लोगों ने मिलकर राजा राममोहन राय के मार्गदर्शन में शुरू किया था. स्वामी विवेकानंद ने भारत, एशिया सहित पूरी के दार्शनिकों को पढ़ा.. चार्ल्स डार्विन, इमैनुअल जॉन स्टुअर्ट मिल, हार्बर स्पेंसर' आदि. स्वामी विवेकानंद' हार्बर स्पेंसर' से इतने प्रभावित थे कि स्वामी विवेकानंद ने उनकी पुस्तक का बांग्ला में अनुवाद कर दिया था. 

स्वामी विवेकानंद अपने जीवन काल में राजा राममोहन राय के विचारों जैसे अंधविश्वास, जातिवाद, एवं मूर्तिपूजा का विरोध , एकनिष्ठ, यूनिवर्सल भाईचारा, आदि से काफी प्रभावित रहे हैं. राजा राम मोहन राय का ब्रम्ह समाज अब कई हिस्सों में बंट गया था. कॉलेज के बाद स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिकता की ओर कदम बढ़ाया. कालांतर में आदि शंकराचार्य जी ने उपनिषदों के माध्यम से अद्वैत वेदांत समझाया था 'अहं ब्रम्ह अस्मि त्वम च' मैं भी ब्रम्ह, तुम भी ब्रम्ह, सबकुछ उसी ब्रम्ह से बना हुआ है, आत्मा से परमात्मा है, लेकिन लोगों के बीच इतना फर्क़ क्यों है? खुद को दूसरों में दूसरों को खुद में देखो यही अद्वैत वेदांत है. इसी अद्वैत वेदांत का उपदेश राजा राम मोहन राय ने दिया था... इन्हीं उपदेशों को स्वामी विवेकानंद आगे लेकर गए.. अमेरिका के न्यूयॉर्क में स्वामी विवेकानंद ने वेदांत सोसायटी बनाई. बाद में और भी सेंटर्स बने. 

स्वामी विवेकानंद ने महान राजाराम मोहन राय के बारे में कहा था- 'अगर किसी को कुछ देते हो तो इस तरह दो जैसे गुलाब खुशबू देता है. महान राजाराम मोहन राय निस्वार्थ भाव के सबसे अच्छे इंसान थे, जिन्होंने हिन्दू समाज को राह दिखाई, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया. जिन्होंने सती प्रथा को बंद कराया. उन्होंने ब्रम्ह समाज की स्थापना की, एक यूनिवर्सिटी बनाने के लिए पैसा दिया, और खुद अलग हो गए, उन्होंने कहा 'मेरे बिना ही काम आगे बढ़ाओ. उन्हें प्रसिद्धी का रत्ती भर मोह नहीं था'. 

स्वामी विवेकानंद ने बहुत कम उम्र में ही बहुत कुछ हासिल कर लिया था. उनका मानना था कि हर समय दिमाग लगाने से काम नहीं चलता. कोई आंतरिक भावनाएं भी होती हैं. स्वामी जी का कथन है - "इस बात से क्या फर्क़ पड़ता है कि' जीसस क्राइस्ट' किसी समय पर रहते थे या नहीं! अगर मोसेस ने जलती हुई झाड़ी में भगवान को देख लिया तो क्या तुमने देख किया? फिर तो मोसेस का खाना खा लेना भी तुम्हारे लिए खाना हो गया, फिर तो तुम्हें खाना - खाना भी छोड़ देना चाहिए. महान दार्शनिकों के जीवन से हमारे जीवन में रत्ती भर फर्क़ नहीं पड़ने वाला, जब तक हम उनकी तरह कुछ न करें. स्वामी विवेकानंद जी के विचार एक कैनवास पर पेंटिंग की तरह थे, जिसमें अद्वैत वेदांत, बाइबिल, हिन्दू वेद उपनिषद, सूफी संत हफीज की कविताएं, राजाराम मोहन राय का वेदांत सिद्धांत, पश्चिमी दर्शन, यूनिवर्सल भाईचारा, पश्चिमी गूढ़वाद, आत्मवाद, आदि सभी मिलाकर स्वामी विवेकानंद जी के विचार कैनवास पर बनी एक पेंटिग जैसे लगते हैं. स्वामी विवेकानंद इतने बहुमुखी, ज्ञानी इंसान थे कि अमेरिका जापान, इजिप्त, यूरोप पूरी दुनिया घूमें लेकिन उन्हें कभी नहीं लगा कि वो दुनिया के दूसरे मुल्कों में हैं. 

एक बार स्वामी विवेकानंद की कॉलेज में क्लास चल रही थी, जहां प्रोफ़ेसर विलियम हेस्टी एक कविता 'दी इक्स्कर्श़न' पढ़ा रहे थे. जिसे विलियम वर्ड्सवर्थ ने लिखा था. इस कविता में एक शब्द 'ट्रांस' आया. स्वामी विवेकानंद तब के नरेन्द्रनाथ को यह शब्द समझ नहीं आया तब प्रोफ़ेसर ने कहा तुम्हें यह शब्द समझ नहीं आएगा. जाओ रामकृष्ण परमहंस को देखो तब तुम्हें समझ आएगा इसका मतलब क्या होता है. स्वामी विवेकानंद के जेहन में 'रामकृष्ण परमहंस' नाम घर कर गया. इत्तेफ़ाकन 'रामकृष्ण परमहंस' एक बार एक जगह आध्यात्मिक भाषण देने आए थे, तब स्वामी विवेकानंद अपने दोस्तों के साथ वहाँ चले गए. वहाँ एक भजन गायक को भी आना था वो नहीं आए तो स्वामी विवेकानंद ने खुद ही गाना शुरू कर दिया. रामकृष्ण परमहंस को स्वामी विवेकानंद का भजन बहुत पसंद आया. उन्होंने स्वामी को दक्षिणेश्वर आने के लिए कहा 'जब स्वामी विवेकानंद वहाँ पहुंचे तो रामकृष्ण परमहंस ने वही भजन फिर से गाने के लिए कहा, जब स्वामी विवेकानंद ने वही भजन फिर से गाया तो रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा 'मुझे तुममे नारायण दिखते हैं'. बचपन में स्वामी जी ने यह प्रश्न बहुत लोगों से किया था क्या तुमने भगवान को देखा है?? क्या तुम्हें भगवान दिखते हैं?? लोग इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते थे. भला भगवान देखने का जवाब क्या ही हो सकता है! यह सवाल स्वामी विवेकानंद को खासा पसंद था. फ़िर स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस से पूछा क्या आपने भगवान को देखा है?? उन्होंने जवाब दिया हाँ जिस तरह मैं तुम्हें यहां देख रहा हूँ, उसी तरह मैंने भगवान को भी देखा है एकदम स्पस्ट!!! स्वामी विवेकानंद बार - बार रामकृष्ण से मिलने जाने लगे, उनसे बातेँ करते. एक बार स्वामी विवेकानंद ने कहा 'मैं आपका टेस्ट लेना चाहता हूं, सुनकर रामकृष्ण नाराज नहीं हुए और कहा कि ज़रूर.' रामकृष्ण परमहंस' से प्रभावित होकर एक दिन स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस को अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार कर लिया. 

किशोर विवेकानन्द का जीवन सीखते हुए बढ़ रहा था कि 1884 में स्वामी विवेकानंद जब 21 साल के थे तब अचानक उन्हें खबर मिलती है कि उनके पिताजी की मृत्यु हो गई है. साथ ही पता चलता है कि कई तरह के कर्ज़ हैं जो चुकाए जाने बांकी हैं.. साथ ही उनके रिश्तेदारों ने संपत्ति को लेकर केस कर रखे हैं. स्वामी विवेकानंद काम ढूढ़ने के लिए निकल पड़ते हैं, लेकिन कोई काम नहीं मिलता पहली बार स्वामी विवेकानंद को ग़रीबी का अनुभव होता है उसे खुद जीते हैं. यूँ तो पहले से भी उनमे गरीबो के लिए संवेदनाएं थीं, लेकिन अब वो उस दर्द को खुद भी महसूस कर रहे थे. बाद में उन्होंने अपनी इस स्थिति को कुछ इस तरह व्यक्त किया था - 'मैं भूख से तड़प रहा था नंगे पैर मैं एक दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर मैं फिरता रहा और हर जगह इंकार मिला, तब मैंने जाना करुणा क्या चीज़ होती है. ज़िन्दगी की सच्चाइयों से यह मेरा पहला वाकफा था, तब मैंने जाना कमज़ोर, गरीब, बहिष्कृत लोगों के लिए इस दुनिया में कोई जगह नहीं है. इस नाजुक दौर में स्वामी विवेकानंद भगवान के अस्तित्व को ही नकारने लगे. जाहिर है विपत्तियों में सबसे ज्यादा ईश्वर ही दिखते हैं. और मुश्किल के समय रामकृष्ण परमहंस के पास और ज़्यादा आना-जाना शुरू हुआ. उन्होंने ही स्वामी विवेकानंद को सम्भालने में खासी मदद की. स्वामी विवेकानंद ने एक दिन अपने गुरु से कहा कि 'मुझे निर्विकल्प समाधि सिखाइए', यूँ तो बचपन से ही योग करने वाले स्वामी विवेकानंद ने जब गुरु के साथ योग किया तो वो और पारंगत हो गए. गुरु ने कहा - 'समाधि में लीन होने की इच्छा छोटे दिमाग के लोगों का काम है. सबसे बड़ा योग मानवता के लिए काम करना हैं. जाओ दुनिया देखो, मानवता के लिए काम करो.. 

स्वामी विवेकानंद 1888 में गुरु से प्रभावित होकर अपना मठ छोड़कर भारत भ्रमण पर निकलते हैं. तब स्वामी विवेकानंद के एक हाथ में कमंडल, एक हाथ में लाठी, और उनके पास उनकी दो पसन्दीदा पुस्तकें भगवद्गीता, 'दी इमिटेशन ऑफ क्राईस्ट', लेकर लाहौर से कन्याकुमारी तक घूमते हैं. कहीं भिक्षा मांगते हैं कहीं भिक्षा देते भी हैं. अपनी यात्रा में कभी पैदल, कभी ट्रेन में लाखो लोगों से मिलते हैं, सभी से बातेँ करते हैं जिसमें सभी समुदाय, धर्मों, जाति के लोग थे. जिसमें राजा, रंक फकीर, कभी विद्वान, कभी दरबान, कभी दीवान, कभी सरकारी कर्मचारियों से मिलते हैं. स्वामी विवेकानंद जातियों, धर्मों, फिरको में बंटे पूरे भारत को अपनी नज़रों से देखते हैं. देखा जाए तो ये यात्रा स्वामी विवेकानंद के जीवन की एक पूंजी थी. 

अब तक की ज़िन्दगी की सीख भारत भ्रमण आदि का ज्ञान स्वामी विवेकानंद 1893 अमेरिका में आयोजित विश्व धार्मिक सम्मेलन में उड़ेल देते हैं. तब उन्होंने अद्वैत वेदांत, भारतीय दर्शन से पूरी दुनिया का परिचय कराते हैं. गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था अगर आपको भारत को जानना है तो आप स्वामी विवेकानंद को पढ़िए. 

स्वामी विवेकानंद जी भगवा वस्त्रों के केवल संत नहीं थे वो महान दार्शनिक थे. स्वामी विवेकानंद ने कहा था भगवद्गीता पढ़ने से अच्छा है कि फुटबाल खेल लो तो स्वर्ग के नज़दीक जल्दी पहुंच जाओगे. स्वामी विवेकानंद खुले विचारों के इंसान थे इस कथन से उनका मानना था कि आप पहले खुद को मानसिक रूप से और शारीरिक रूप से खुद को मजबूत कीजिए... बाद में भगवद्गीता पढ़िए तो आप ज़्यादा कुछ समझ पाएंगे... स्वामी विवेकानंद कहते थे पाखंडी लोगों ने तरह - तरह के अंधविश्वास बना रखे हैं और वो इस बात का तर्क भी गढ लेते हैं कि दर-असल यह तो वेदों में दिया हुआ है. आप आस्थावान हैं इसका मतलब यह नहीं है कि आप अपना दिमाग तज दें इससे अच्छा है नास्तिक बन जाओ क्योंकि नास्तिक कुछ कुछ वास्तविकता के करीब होते हैं लेकिन अंधविश्वास वाला व्यक्ति खुद के साथ दूसरों को भी ले डूबता है ". स्वामी विवेकानंद कहते थे "रहस्यवाद से बचिए, वेदों उपनिषदों, में कोई रहस्य नहीं है, प्रकृति के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है. इससे कुछ बातेँ ज़्यादा प्राकृतिक लगती हैं, लेकिन इनमे से कोई भी बात रहस्य नहीं है. आप हिमालय नहीं गए मैं हिमालय गया हूं मैंने पूरा भारत देखा है कोई भी सोसायटी रहस्य नहीं है. 

स्वामी विवेकानंद ज्योतिष को महत्व नहीं देते थे उनका कहना था - 'आसमान में बैठा कोई तारा मेरी ज़िन्दगी कैसे प्रभावित कर सकता है? ज्योतिष और ये सब रहस्यवाद की बातेँ एक कमज़ोर दिमाग की निशानी हैं. कमज़ोर लोग जब सबकुछ खो देते हैं तो वो इस तरह से विचित्र तरीके इस्तेमाल करते हैं. मज़बूत लोग अपनी किस्मत खुद बनाते हैं. बुजुर्ग लोग ज्यादातर ज्योतिषी लोगों के बीच पास जाते हैं, लेकिन जवान लोग कम जाते हैं. जब भी ऐसा लगे चिकित्सक के पास जाना चाहिए, और आराम करना चाहिए. आप खाओ, पियो, पहनो, जो अच्छा लगे कुछ गलत नहीं है, लेकिन आपके आचरण से किसी को कोई प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष हानि न हो. हाँ शराब, धुम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, लेकिन यह पाप पुण्य जैसा कोई मामला नहीं है. सदियों पहले भी स्वामी विवेकानंद कितने उदारवादी थे, सोचकर हम खुद को कहां पाते हैं, हैरत होती है. 

स्वामी विवेकानंद कहते थे - 'किसी के पीछे मत भागो कि भगवान से मेरी मुक्ति दिला दो. खुद को देखिए. धरती में रहे सबसे महान इंसान गौतम बुद्ध ही इकलौते व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा कि मैं कोई भगवान नहीं हूं मुझे जपने से मुक्ति नहीं मिलेगी बल्कि आप अपनी खुद की सहायता करिए और मुक्ति का मार्ग ढूँढ़िये. आप खुद ही मदद कीजिए. 

 स्वामी विवेकानंद का मानना था कि राम, कृष्ण, बुद्घ, कबीर, नानक सब असली अवतार हैं, जिनके दिल आसमान जितने बड़े हैं. 'अहं ब्रम्ह अस्मि त्वम च' मैं भी ब्रम्ह तुम भी ब्रम्ह सबकुछ उसी ब्रम्ह से बना हुआ है, आत्मा से परमात्मा है. धर्म की सही परिभाषा यही है कि आदमी मानवता, समानता, भाईचारा, प्रेम पर विश्वास करे... ग़र एक आदमी दूसरे के प्रति संकीर्ण सोच को रखता है तो न खुद को समझ पाएगा न भगवान को समझ पाएगा. 

दिलीप कुमार

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