'भारत की बहू सोनिया गांधी'
सोनिया गांधी
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इटली के ऑरवैसेनो गांव में एक सैनिक के घर में पैदा होने वाली लड़की का सफ़र अपने आप में एक मुहब्बत एवं मर्म की दास्तान है. इटली के एक गांव से कैंब्रिज होते हुए दिल्ली तक के सफर में सोनियां ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया है जो एक भारतीय संस्कारी बहू, भारतीय पत्नी भी हैं और भारतीय मां भी है. जिस महिला ने अपने जीवनकाल का अधिकांश समय भारत पर खर्च कर दिया. जो महिला भारत के प्रधानमंत्री की बहू बन ब्याह कर आईं, उन्हें देश का एक वर्ग भारतीय मानने से इंकार करता है. हमारे जिस भारतीय समाज में शादी के बाद गोत्र, कुटुंब का नाम स्वत: ही मिल जाता है, आज भी कुछ लोग उन्हें गांधी परिवार का सदस्य नहीं मानते जबकि सोनिया गांधी इन्दिरा गांधी की पसंदीदा बहू थीं.
एक ऐसी महिला जो देश की राजनीति में सशक्त हस्ताक्षर बन कर उभरी, जो भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में देश की दूसरी सबसे ताकतवर महिला के रूप में जानी गईं. पहली तो खुद उनकी सास पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ही थीं. जिस महिला को उम्र के आखिरी पड़ाव यानि बुढ़ापे में भी राष्ट्रभक्ति साबित करने के लिए कहा जाता हो!!! जिस देश में न उसका कोई सगा हो, न कोई सम्बन्धी न कोई हौसला देने वाला रहा हो, जिसके पास सिर्फ़ छोटे-छोटे बच्चे थे , और उस पर ज़िन्दगी असुरक्षित हो.. फ़िर भी देश के सबसे बड़े घराने की विरासत उठाने का दबाव हो, उस महिला का धैर्य सीखने योग्य है कि आपके प्रति दुनिया नर्म तो बिल्कुल भी नहीं होगी बल्कि आपको ही अपनी सहनशीलता अपना धैर्य कायम रखना होगा. बेशक सोनिया गांधी का धैर्य उनका राजनीतिक स्टाइल है, जो उनकी खूबी भी है और ताकत भी है.
पति राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस नेताओ ने सर्वसम्मति से सोनिया से बिना पूछे कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने की घोषणा कर दी. सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया और राजनीतिज्ञों के प्रति अपने अविश्वास को इन शब्दों में व्यक्त किया कि 'मैं अपने बच्चों को भीख मांगते देख लूँगी, परंतु मैं राजनीति में क़दम नहीं रखूँगी'. सास इन्दिरा गाँधी, पति राजीव गांधी जो दोनों प्रधानमंत्री थे, उनकी हत्या हो चुकी थी. बहुत सामान्य सी बात है सोनिया का राजनीति से विश्वास उठ जाना. हालाँकि नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की हार हो गई. इतिहास बताता है जब भी कांग्रेस बिखरने लगती है कोई न कोई गांधी परिवार का सदस्य उसकी अगुवाई करता आया है. टूटे - बिखरे कांग्रेस के कुनबे को बचाने के लिए सोनिया राजनीति में कूद गईं. उसी राजनीति में जहां पति और सास शहीद हो चुके थे. सोनिया ने पार्टी की सदस्यता लेने के 62 दिन बाद ही सरकार बनाने का प्रयास किया, जो असफ़ल रहा. लेकिन सोनिया गांधी ने अपनी वर्किंग स्टाइल से राजनीति को हिला कर रख दिया. और बता दिया कि विपक्षी जिस इन्दिरा गांधी से परेशान था , इंदिरा गांधी तो अब नहीं है लेकिन उनसे ही राजनीति के गुर सीखने वाली सोनिया ने राजनीति में पदार्पण कर दिया था. जिनके लिए नेहरू - इंदिरा की लेगेसी को आगे बढ़ाना आसान तो बिल्कुल भी नहीं रहा होगा. सोनिया की पोलिटिकल वर्किंग स्टाइल से कई नेता अपने राजनीतिक भविष्य के लिए चिंचित हो गए थे. आज सोनिया के विरोधी भी इससे इंकार नहीं कर सकते कि सोनिया गांधी का पिछले 28 सालों से जो भारतीय राजनीति में रसूख कायम है, भारत के लोकतांत्रिक राजनीतिक इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ, जिसका सीधा दखल हो. विदेशी मूल का मुद्दा उठाने वालों के मुँह पर ज़ोरदार तमाचा पड़ा था, जब सोनिया गांधी ने दो बार इस देश में समर्थन से सरकार बनाई. सोनिया गांधी ने अपने ऊपर लगे आक्षेप पर कभी बोलकर नहीं, अपितु अपनी सफ़लता से जवाब दिया है.
जिस महिला ने भारत के प्रधानमंत्री का पद दो - दो बार ठुकराया हो, उस महिला पर कुछ विपक्षी नेता आक्षेप लगाते हुए सचमुच बच्चे लगते हैं. विपक्षियों को सबसे बड़ा आघात तब लगा जब अब्दुल कलाम ने अपनी किताब में खुलासा किया. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने इस राजनीतिक मिथक को तो़ड़ दिया है कि वे सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के ख़िलाफ़ थे. उन्होंने लिखा - "सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश किया होता तो मेरे पास उन्हें नियुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता" कलाम ने लिखा - 'मेरे पास कई राजनीतिक व्यक्तियों, संस्थाओं और राजनीतिक दलों की ओर से कई ईमेल आए और चिट्ठियाँ आईं थीं' ; जिसमें सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री का पद दिए जाने का विरोध किया गया था. लेकिन ये मांगें 'संवैधानिक रुप से स्वीकार किए जाने योग्य नहीं थीं'. अतः मैंने चिट्ठियों को कोई अहमियत नहीं दी.
कलाम अपनी पुस्तक में लिखते हैं - "मई, 2004 में हुए चुनाव के नतीजों के बाद जब सोनिया गांधी मुझसे मिलने आईं तो राष्ट्रपति भवन की ओर से उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने को लेकर चिट्ठी तैयार कर रखी थी. लेकिन जब सोनिया गांधी अपने साथ मनमोहन सिंह को लेकर पहुँचीं तो मुझे आश्चर्य हुआ. सोनिया गांधी ने मुझे कई दलों के समर्थन के पत्र दिखाए. इस पर मैंने कहा कि ये स्वागत योग्य है, और राष्ट्रपति आपकी सुविधा के समय पर शपथ ग्रहण करवाने के लिए तैयार है. इसके बाद सोनिया ने कहा - "मैं डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर मनोनीत करना चाहूँगी". ये मेरे लिए आश्चर्य का विषय था कि सोनिया पीएम पद का त्याग कर रहीं हैं! और राष्ट्रपति भवन के सचिवालय को चिट्ठियाँ फिर से तैयार करनी पड़ीं. ये घटनाक्रम उस समय का है जब नवगठित गठबंधन यूपीए का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के संसदीय दल ने सोनिया गांधी को सर्वसम्मति से अपना नेता चुन लिया था. यूपीए को बाहर से समर्थन दे रहे वाममोर्चे ने भी कह दिया था कि हमें सोनिया गांधी के नाम पर आपत्ति नहीं है. जब प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा मौका था, तब सोनिया गांधी ने पीएम न बनना स्वीकार किया.
सोनिया ने यह त्याग तब किया, जब अपनी हार पर ख़ीजे हुए एनडीए नेताओं ने सोनिया गाँधी पर विदेशी मूल का होने के आक्षेप लगाए. सुषमा स्वराज और उमा भारती जैसी नेताओं ने ऐसी घोषणा कर दी कि यदि सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री बनीं तो वो अपना सिर मुँडवा लेंगीं. कांग्रेस पार्टी ने सर्वसम्मति से संसद में सोनिया गाँधी को अपना नेता चुना तथा जनता की अपेक्षा थी कि वे प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगी परंतु उन्होंने पीएम पद के लेने से इंकार किया और यह घोषित किया कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती. 18 मई को उन्होंने मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का आव्हान किया. सबने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फ़ैसले को बदलने की गुज़ारिश की गई पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था. आज जब कोई ब्रिटेन में कोई भारतीय प्रवासी पीएम बन जाता है, या अमेरिका में कोई प्रवासी उपराष्ट्रपति बन जाता है तो हम खुशी से उछलने लगते हैं, लेकिन आज़ादी के 75 साल बाद भी हम इतने उदारवादी नहीं हो सके कि हम किसी विदेशी मूल के व्यक्ति को पीएम, राष्ट्रपति, आदि बना सकें दर-असल दुनिया शिक्षित होकर लिबरल हो चली है लेकिन हम आज भी अपने गर्व करने के दायरे में बंधे हुए हैं. अपना जीवन खपा देने के बाद भी जब उनके पीएम बनने पर रोड़ा अटकाने की कोशिशें हुईं इस बात पर कभी सोनिया गांधी ने असंतोष नहीं जताया. यहां तक कि कांग्रेस की कई महिला नेताओं ने बताया कि सोनिया गांधी हमेशा कांग्रेस की महिला नेताओं को कहती हैं कि अपनी बात मजबूती से कैसे रखनी है यह बात सुषमा स्वराज से सीखना चाहिए. आप सभी उनको फॉलो कीजिए.
इन्हीं सोनिया गांधी ने मज़बूरी में टूट रही कांग्रेस के कुनबे को बचाने के लिए राजनीति में कूद गईं थीं. अपने राजनीतिक कौशल का परिचय देते हुए दो बार कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया. बड़ी बात यह भी है कि उनके अध्यक्ष होते हुए नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध कांग्रेस की हार तो हुई ही साथ ही कांग्रेस राज्यों में भी चुनाव हार रही थी. 2011 के बाद से सोनिया गांधी का गिरता स्वास्थ्य भी कारण रहा कि सोनिया गांधी प्रचार - प्रसार आदि पर उस तरह सक्रिय नहीं रहीं जैसे पहले होती थीं. लिहाज़ा प्रधानमंत्री मोदी का विजयरथ दक्षिण भारत को छोड़ कर पूरे भारत को फतेह कर रहा था. सोनिया गांधी अटल बिहारी वाजपेयी के दौर की नेता थीं, उन्होंने मोदी के सामने कभी खुद को उनका प्रतिद्वंदी नहीं माना.. राहुल गांधी को राजनीतिक विरासत सौंप चुकीं सोनिया गांधी ने अपनी राजनीतिक पारी को ऐसे खेला है कि उसकी धमक भारत ही नहीं समस्त विश्व में सुनाई दी. सोनिया के विरोधी भी उनकी राजनीतिक समझ की तारीफ़ करते हैं. कुछ छुटभैये नेताओ को छोड़ दिया जाए तो आज पूरे देश के पक्ष - विपक्ष में सभी सोनिया की इज्ज़त करते हैं. सोनिया के राजनीतिक जीवन की आलोचना - तारीफें होती रहेंगी, फिर भी उन्होंने अपने राजनीति के उरुज़ को क्या खूब जिया है. इटली के छोटे से गांव से लेकर दिल्ली की राजनीति फतेह करने तक का रास्ता बिल्कुल भी आसान नहीं रहा होगा.
सोनिया गांधी किसी भी मुद्दे पर असहज नहीं होतीं. उन्होंने अपनी हर आलोचना को बड़ी सहजता से सह लिया है, उनका धैर्य अद्भुत है. लेकिन उनके ऊपर एक आरोप लगता है कि उन्होंने अपने बेटे राहुल गांधी को भारतीय राजनीति एवं कांग्रेस में थोपा है. तब-तब सोनिया गांधी को कोई जवाब नहीं देते बनता, सोनिया निरुत्तर हो जाती हैं, क्योंकि राहुल गांधी लगभग दस साल से कांग्रेस की धुरी बने हुए हैं लेकिन उन्हें सोनिया गांधी की तरह अभी तक बड़ी सफ़लता नहीं मिली.
हालाँकि अब परिदृश्य थोड़ा बदला ज़रूर है. राहुल गांधी बतौर राजनेता भारत जोड़ों यात्रा - भारत जोड़ों न्याय यात्रा के बाद भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के मुकाबले खुद को मजबूत कर चुके हैं. राहुल को अपरिपक्व राजनेता बोलने वाली उनकी चिर प्रतिद्वंदी भाजपा अब राहुल के एक बयान से बैकफुट पर आ जाती है. आईटी सेल, पूरी भाजपा, केंद्र के सारे मंत्री, मुख्यमंत्री आदि सारे के सारे राहुल गांधी पर हमलावर हो जाते हैं.. ख़ासकर पीएम मोदी की रैलियों में निशाने पर राहुल गांधी ही होते हैं. जाहिर है पीएम मोदी ने अपने जितने निर्णयों को एतिहासिक करार दिया है राहुल ने उन सारे एतिहासिक कामों रूपी गुब्बारों में हमेशा पिन चुभोते रहे हैं. फिर चाहे वो नोटबंदी हो, जीएसटी हो, आर्टिकल 370 हो, किसानो के तीन कानून हों... कोरोना त्रासदी में की गई लापरवाही हो.. राहुल गांधी ने पीएम मोदी को हमेशा चेताया है, राहुल को अगंभीर नेता मानने वाले पीएम मोदी हमेशा राहुल की वज़ह से मुश्किलों में फंसे हैं. यही बात भारतीय राजनीति में राहुल को खास राजनेता बनाती है. राहुल गांधी को लेकर किए जाने सवाल पर चुप रहने वाली माँ सोनिया गांधी पर तब तक प्रश्न चिन्ह है, जब तक राहुल गांधी भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष नहीं बन जाते. जाहिर है राहुल गांधी को सिद्ध करना ही होगा कि राहुल को राजनीति में लाने का उनकी माँ का फैसला गलत नहीं था.
बुजुर्ग सोनिया गांधी के पास भारतीय राजनीति में कुछ भी पाने के लिए शेष नहीं रह गया है, उन्होंने वो सबकुछ हासिल कर लिया, जो उन्हें हासिल करना चाहिए था. लेकिन कभी - कभार सोचता हूं जिस महिला ने अपने प्रेमी पति का शरीर टुकड़ों में उठाया हो, जिसकी सास, पति दोनों पीएम होते हुए भी वतन के लिए शहीद हो गए हों, उन्होंने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया. कभी कोई नाराज़गी जाहिर नहीं की. जिस माँ के बच्चों ने अपने पिता अपनी दादी को बचपन में खो दिया हो, जिन बच्चों ने डर के साये में बचपना चार दीवारी में काटा हो, उस माँ के बच्चे किसी से घृणा नहीं करते बल्कि अपने पिता के हत्यारों को मुआफ करने की दिलेरी रखते हैं. नफ़रत के दौर में सभी के लिए प्रेम बांटने निकल पड़ते हैं, जिन पर हर पल मौत का साया मंडराता हो वो अपने बच्चों को पैदल पूरे मुल्क की धूल फांकने की आज्ञा दे देती है. उस माँ का क्या कोई जिगर माप सकता है?? बिल्कुल नहीं मापा जा सकता ग़र कोई महसूस करे तो महसूस कर ले...
माँ तो फ़िर भी सभी सोनिया गांधी जैसी ही होती हैं, लेकिन सोनिया गांधी जैसी लड़की जो अपने प्रेमी के लिए अपने पिता का घर छोड़कर अनजान मुल्क में रहने आ गईं. सोनिया ने शायद एक ही बात कही होगी, मेरे पति का कतरा - कतरा इस मुल्क में निसार है, भला मैं इस मुल्क को छोड़कर जाऊँ तो कहाँ जाऊँ? इसी अनजान मुल्क में सोनिया ने खुद को पूरी तरह से ढाल लिया, भले ही सोनिया ढंग से हिन्दी नहीं बोल पातीं, लेकिन जब वो थोड़ी बहुत भी हिन्दी बोलती हैं मुझे लगता है कि वो हमारी अपनी हैं. ममतामयी सोनिया जब साड़ी पहने हुए किसी मन्दिर में शीश झुकाते हुए, भारतीय सभ्यता में पूरी तरह घुली-मिली देखता हूं, तो उनके लिए आदर और बढ़ जाता है. क्या किसी के लिए यह सब आसान होता होगा? ग़र किसी को यह सब आसान लगता हो तो एक दिन सोचकर देखे सोनिया ने जो भी खोया है क्या वो सब खो देने के बाद मजबूत बना रहना क्या आसान होता है?
भला एक पश्चिमी महिला को हिन्दू भारतीय सभ्यता का क्या पता? ग़र नहीं भी पता हो तो क्या ज़रूरी है कि पता होना ही चाहिए. फिर भी उस महिला के बच्चे देश की समानता, भाइचारे, भारतीय संस्कृति, इतिहास को बखूबी जानते हैं. मुझे इस बात पर गर्व तो नहीं लेकिन अत्यंत प्रसन्नता होती है कि एक राजनीतिक जीवन जीते हुए भी सोनिया ने अपने बच्चों की आला तरबियत की है. और उन्हें बखूबी समय दिया है. कुछ महिलाओ को देखता हूं कि वो कितनी सहजता से सोनिया गांधी की आलोचना करती हैं, तब लगता है कि महिलाओ की दुश्मन महिलाएं ही रही हैं दौर कोई भी रहा हो... हालाँकि सोनिया गांधी ने कभी भी अपनी आलोचना, उनके ऊपर लगे हुए आरोपों के प्रति कभी नाराजगी जाहिर नहीं की. ग़र कभी सोनिया गांधी ने उनके प्रति की गई चारित्रिक, अनैतिक क्रूरता का हिसाब मांगा तो समस्त भारत से जवाब देते हुए नहीं बनेगा!! वैसे भी सोनिया ने भारतीय इतिहास, संस्कृति को खूब पढ़ समझ लिया है. जिस समाज ने माता सीता, द्रोपदी, तक से चरित्र प्रमाण माँगा हो, भला वो सोनिया गांधी के प्रति नर्म कैसे हो सकता है! जब पूरा मुल्क सोनिया गांधी की ख़ामोशी का ज़वाब नहीं दे सकता, तो उनके सवालों का क्या ही जवाब देगा!!! हालाँकि इतिहास सभी का निष्पक्ष न्याय करता है ग़र ऐसा हुआ तो भारत अपनी बहू सोनिया गांधी पर गर्व करेगा, और अपनी क्रूरता पर माफी मांगेगा.. वो समय पर छोड़ देते हैं इतिहास सोनिया गांधी को कैसे याद करता है.
दिलीप कुमार पाठक
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