'फ़ादर ऑफ मॉडर्न इंडिया'

'फ़ादर ऑफ मॉडर्न इंडिया' 
------------------------------------

आज आज़ादी के इतने दशकों बाद भी असमानता, अंधविश्वास कई कुप्रथाओं को हम देख सकते हैं. अब तो अधिकांश लोग शिक्षित हो चले हैं. बहुतेरे तो रूढ़िवाद के विरुद्ध सोचने की चेतना का प्रसार भी कर रहे हैं, लेकिन आज से सैकड़ो साल पहले के भारत में क्या रूढ़िवाद, अंधविश्वास का विरोध करना क्या आसान रहा होगा?? बिल्कुल भी आसान नहीं था ! चूँकि तब लोगों में इतनी जागरुकता नहीं थी ; फ़िर  हमारे समाज़ में 22 मई 1772 को एक महानायक हुए 'राजाराम मोहन राय' जिन्होंने पूरे समाज में वैचारिक क्रांति लाई. 'राजा राम मोहन राय' ऐसे समाज सुधारक जिन्होंने लोगों के सोचने समझने की चेतना का प्रसार किया. बंगाल सहित पूरे आधुनिक भारत का पिता कहा जाता है. 

1757 में ब्रिटिश की 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने बंगाल के नवाब को हराया और भारत में ब्रिटिश राज्य की शुरुआत हुई. यह वो दौर था जब भारतीय समाज बहुत रूढ़िवादी, और अंधविश्वास चरम पर था. जातिवाद, बाल विकास,  छोटी-छोटी बच्चियों को शादी के लिए खरीदा - बेचा भी जाता था. एक व्यक्ति कई पत्नियां रखता था, भले ही खाने को रोटियां न हों. सती प्रथा तो ऐसी कि किसी के पति की मृत्यु हो जाए तो उसकी पत्नि को ज़िन्दा जला दिया जाता था. कहते हैं कि पहले जिसकी मर्ज़ी होती थी उसे ही ज़िन्दा जलाया जाता था, बाद में यह प्रथा मज़बूरी और ज़रूरी बनती चली गई, हालांकि तब अंधविश्वासी समाज में रियायत दी जाती थी ग़र कोई महिला गर्भवती है तो उसे छोड़ दिया जाता था. 

अँग्रेज़ी सत्ता आई उसने यह सब देखा और उसने भी इस अंधविश्वास पर कोई लगाम नहीं लगाया, चूंकि उन्हें डर था कि हम किसी धर्म की मान्यताओं में छेड़छाड़ करेगें तो हो सकता है यहाँ की रूढ़िवाद जनता भड़क जाए. जब 1777 में वारेन हेस्टिंग बंगाल के गवर्नर बने तब उन्होंने साफ़ किया - "सामाजिक मान्यताओं के लिए मुस्लिमों के लिए कुरान हिन्दुओ के लिए शास्त्रों का कानून माना जाएगा. अब अंग्रेजों को संस्कृत तो आती नहीं थी, तब उन्होंने हिन्दू पंडितों को रखा उन्होंने जो भी बताया उसे अंग्रेजी सत्ता ने कानून बना दिया. इन्हीं परिस्थितियों के बीच बंगाल में 'राजा राम मोहन राय हुए' इनका जन्म एक अमीर रूढ़िवादी ब्राम्हण परिवार में हुआ था. इन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा गांव से पूरी किया. बाद में पटना के एक मदरसे में पढ़े जहां पर्शियन, अरबी भाषाओं का अध्ययन किया. 'राजा राम मोहन राय' ने कुरान, सूफ़ी दर्शन, के साथ ग्रीक दर्शन भी पढ़ा. 'राजा राम मोहन राय' ने इतना सबकुछ पढ़ रखा था कि उनकी सोच उदारवादी हो गई, इसी सोच के चलते उनकी अपने पिता के साथ मतभेद हुए पहला विद्रोह घर छोड़ने से हुआ था. घर छोड़कर हिमालय पहुंचे जहां उन्होंने बुद्ध धर्म का विस्तृत अध्ययन किया. बाद में बनारस पहुंचे जहां उन्होंने संस्कृत में वेद - पुराण उपनिषदों का अध्ययन किया. 

भला इतना पढ़ा - लिखा विद्वान व्यक्ति जिसमें छोड़ने, विद्रोह की भी ताकत हो वो एक छोटी सी नौकरी कैसे कर सकता है! राजा राम मोहन राय ने 1815 में अपनी पहली क्लर्क की नौकरी छोड़ कर उन्होंने अपना पूरा समय शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक सुधार में लगाया. 'राजा राम मोहन राय' ने जातिवाद, बाल विवाह, सती प्रथा, पर रोक लगाने, विधवा विवाह को शुरू करने... महिलाओं की शिक्षा, बेटियों का पिता की संपत्ति में हक मिलने तक के लिए समाज में जागरुकता पैदा की, लेकिन सबसे ज़्यादा 'राजा राम मोहन राय' को सती प्रथा को बंद कराने के लिए याद किया जाता है. साल 1811 में 'राजा राम मोहन राय' के बड़े भाई 'जगमोहन राय' की मृत्यु हो जाती है, उदास राजा राम मोहन राय को दूसरा झटका तब लगता है, जब देखते हैं कि उनकी भाभी नई साड़ी पहनकर जलने के लिए जा रही हैं. 'राजा राम मोहन राय' अपने परिवार, रिश्तेदारों में अकेले थे जिन्होंने इसका विरोध किया, हालांकि वो इसे रोक नहीं पाए. तब वहाँ खड़े लोग महा सती... महा सती का नारा लगाते हैं. नारे सुनकर 'राजा राम मोहन राय' विचलित होते हैं, तब ही उन्होंने सोच लिया कि इसे बंद कराकर रहूँगा.

जब पूरा का पूरा समाज आपके विरुद्ध हो सबसे बड़ी बात जब आपका घर - परिवार आपके विरुद्ध हो ख़ासकर  पूरा समाज रूढ़िवादी हो जो अंधविश्वास पर ही जीता हो, तब किसी 'राजा राम मोहन राय' का अकेला खड़ा होना उनकी हिम्मत को दिखाता है. 1814 में इन्होंने एक आत्मीय सभा बनाई. इस समूह का प्रमुख उद्देश्य था, समाज के प्रबुद्ध लोगों को इक्ट्ठा किया जाए जो यहां अपने - अपने विचार प्रस्तुत करें. इस समूह के एक गणमान्य सदस्य 'द्वारिकानाथ टैगोर थे' जो गुरुदेव 'रवींद्रनाथ टैगोर' के ग्रेट दादाजी थे. 'राजा राम मोहन राय' ने 1818 में बांग्ला भाषा में एक आर्टिकल लिखा जिसमें दो लोगों की डिबेट थी, दो कैरेक्टर थे जिनमे एक सती प्रथा के समर्थक प्रथा के विरुद्घ थे, दोनों के पक्ष शास्त्रों से प्रेरित बताए गए लेकिन सती प्रथा के विरुद्ध वाला पक्ष तर्को में विजयी होता है. इस आर्टिकल से पूरे बंगाल में बहुत प्रभाव पड़ा. इससे पहले भी हमारे देश में सती प्रथा को बैन करने के कई प्रयास किए गए, जिनमे तुगलक, जहांगीर, अकबर, औरंगजेब आदि ने भी बंद कराने के प्रयास किए थे और इसके विरुद्ध कानून बनाए थे, लेकिन ब्रिटिश सत्ता ने इसके विरुद्ध कोई कानून नहीं बनाया उन्हें डर था कि कहीं हिन्दू बहुल देश में जहां अधिकांश कम पढ़े लिखे रूढ़िवादी हैं, जो सती प्रथा के फेवरे में हैं कहीं भड़क न जाएं, इसलिए यह नहीं हो सका. 

बड़ी बात है कि सती प्रथा के समर्थक हिन्दू शास्त्रों का उल्लेख करते थे. हालाँकि जब 'राजा राम मोहन राय' ने सती प्रथा के विरुद्ध आर्टिकल तर्को सहित लिखा तो लोग हैरान रह गए! कोई भला ऐसा भी लिख सकता है! वो भी हिन्दू शास्त्रों के अनुसार तर्क भी प्रस्तुत किए. साल 1820 में 'राजा राम मोहन राय' ने इसी आर्टिकल का अगला भाग लिखा, जिसमें उनके एक क्रिश्चियन दोस्त विलियम कैरी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. समाज में आर्टिकल्स के ज़रिए जागरुकता के लिए काम तो कर ही रहे थे, लेकिन जैसे ही उन्हें कोई मृत्यु का समाचार मिलता वो शारीरिक रूप से वहाँ पहुँच जाते और ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को सती होने से बचाते. उनके परिजनों को समझाते शास्त्रों का हवाला देते हुए. 'राजा राम मोहन राय' सती प्रथा के विरुद्ध क्रांति ला चुके थे, उनके इन्हीं प्रयासों से प्रभावित होकर गवर्नर ने 1829 में बंगाल सती विरोधी कानून बनाया और सती प्रथा को बंद कर दिया. तब ही 'राधाकांत देव' ने सहित कुछ कट्टर हिन्दुओ ने एक संगठन बनाया, जिसका नाम धर्म सभा था, इस संगठन का उद्देश्य था कि सती प्रथा को फ़िर से बहाल कराया जाए, उन्होंने पुनः विचार याचिका लगा दी. यह सुनकर 'राजा राम मोहन राय' इंग्लैंड पहुंचे यह तय कराने की इस प्रथा के विरुद्ध बने कानून को वापस न लिया जाए. राममोहन ‘राजा’ शब्द के प्रचलित अर्थों में राजा नहीं थे. उनके नाम के साथ यह शब्द तब जुड़ा जब दिल्ली के तत्कालीन मुग़ल शासक बादशाह अकबर द्वितीय ने उन्हें राजा की उपाधि दी.

'राजा राम मोहन राय' का ब्रिटेन में संघर्ष कामयाब रहा, 1829 को धर्म सभा की अपील को प्राईवी काउंसिल खारिज कर दिया गया. दुर्भाग्यपूर्ण 27 सितम्बर 1833 को ब्रिटेन में ही महान समाज सुधारक 'राजा राम मोहन राय' की मृत्यु हो जाती है. ब्रिटेन ने महान समाज सुधारक के सम्मान में इंग्लैंड के ब्रिस्टल में एक स्टैचू बनाया. आज भी ब्रिस्टल में स्टैचू मौजूद है. 'राजा राम मोहन राय' की मृत्यु के बाद 'ईश्वर चंद्र विद्यासागर' ने उनके समाज सुधार के अभियान एवं कार्यो को आगे बढ़ाया. इतना सब होने के बाद इतनी क्रांति के सैकड़ों साल बाद भी हमारे समाज में आज भी अन्धविश्वास पाखंड देखा जा सकता है, जबकि देखा जाए तो हमारे समाज को एक बार फ़िर से 'राजा राम मोहन राय' की ज़रूरत है जो इस समाज को धर्मान्धता से मुक्ति दिला सकें. जिनके विचार आदिगुरु शंकराचार्य के विचार 'अहम ब्रम्ह अस्मि त्वं च' से प्रभावित थे, मतलब एक - दूसरे में ईश्वर को देखना.. इसी को आगे बढ़ाते हुए 'राजा राम मोहन राय ने कई उपनिषदों का बांग्ला अँग्रेजी में अनुवाद किया. यही कारण था कि 1828 में इन्होंने ब्रम्ह सभा का गठन किया जिसे बाद में ब्रम्ह समाज के नाम से जाना गया. जिसका एक यह भी उद्देश्य यूनिवर्सल भाईचारा था, जिसमें एक - दूसरे से कोई बड़ा न हो जाति - धर्म का कोई भेद न हो. 'स्वामी विवेकानंद' भी 'राजा राम मोहन राय' के अनुयायी थे, जो उनकी तरह ही विचार रखते थे, और कट्टरवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करते थे. 


"कोई बच्चा अगर अच्छी बात कह रहा हैं तो उसे ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए और सीखना चाहिए. यदि कोई भगवान भी  अतार्किक बात करता है तो उस बात को नहीं सुनना चाहिए". कोई भी परिस्थिति हो हमें अपनी बौध्दिक चेतना को जाग्रत रखना चाहिए ", 'राजा राम मोहन राय' का मानना था कि भले ही आप किसी भी धर्म में आस्था रखते हों, लेकिन आपकी तार्किकता भी साथ में जिवित रह सकती है, उसके लिए आपको अपने भगवान अल्लाह से मुक्ति का मार्ग खुद प्रशस्त करना होगा, और जब आप यह कर कर लेंगे तो आपको रूढ़िवाद, अंधविश्वास को भी त्यागना होगा. वैसे भी रूढ़िवाद, अंधविश्वास ने हिन्दू धर्म को विकृत बना दिया है. जब 'राजा राम मोहन राय' हिन्दू समाज को उदारवाद एवं धर्म का असली मतलब समझा रहे थे, तब धर्म के कई ठेकेदारों को उनकी उदारवाद सोच पसंद नहीं आई अतः कईयों ने 'राजा राम मोहन राय' को हिन्दू विरोधी घोषित कर दिया. कई पूछते थे - 'आप हिन्दू विरोधी हैं? राय कहते - 'मैं ब्राम्हण हूं भाई हिन्दू विरोधी कैसे हो सकता हूँ, मैं तो सुधार की बातेँ करता हूँ, तो विरोधी पूछते आप हमेशा कुरान बाइबिल का उदहारण क्यों देते हैं?? राय कहते मैं वेदों-उपनिषदों का भी तो उदाहरण देता हूं'. बड़ी बात बुद्ध धर्म के ठेकेदारों ने भी 'राजा राम मोहन राय' को बुद्ध धर्म का विरोधी घोषित कर दिया. क्रिश्चियन भी इन्हें क्रिस्चियन विरोधी मानते थे, ये सब इसलिए होता था कि 'राजा राम मोहन राय' एकनिष्ठ (एक ईश्वर में विश्वास करने वाले) थे. 

'राजा राम मोहन राय' ईश्वर को लेकर कहते थे - "ईश्वर एक है उसका कोई अंत नहीं है, उसका सभी जिवित प्राणियों में उसी परमात्मा का अस्तित्व है. पवित्र आत्मा त्रिमूर्ति का तीसरा व्यक्ति है.इसका मतलब यह है कि पवित्र आत्मा ईश्वर है, पिता ईश्वर और पुत्र ईश्वर के बराबर है ,और एक ही सार है. क्रिश्चियनो को 'राजा राम मोहन राय' की एकनिष्ठ  बात खलती थी, सबसे ज्यादा यूरोपीय लोगों को  यह बुरा लगता था कि एक पिछड़े हिन्दू समुदाय का एक इंसान हमें ईसाइयत सिखा रहा है यही कारण है कि हर धर्म के कट्टर लोग 'राजा राम मोहन राय' का विरोध करते थे. यही कारण था कि इतनी सारी भगाएं आने के बाद भी 'राजा राम मोहन राय' ने हिब्रू और ग्रीक भगाएं सीख ली, ताकि ये पुरानी बाइबिल को हिब्रू की भाषा में पढ़ पाएं, जिसके बाद 'राजा राम मोहन राय' ने अपनी किताब 'प्रीस्ट ऑफ जीसस' लिखा, जिसमें उन्होंने बाइबिल की समीक्षा ही कर डाली थी बाद में दुनियाभर के मिशनरियो ने 'राजा राम मोहन राय' का विरोध किया, लेकिन 'राजा राम मोहन राय' ने दुनिया भर के ईसाइयों से आव्हान किया कि आप यूनिवर्सल भाईचारा, समानता, एकनिष्ठता में यकीन कीजिए. वैसे हमारे देश में भी दो तरह के लोग रहते हैं जो सोचते हैं कि पश्चिमी देशों में कुछ भी ऐसा नहीं है जो अपनाने लायक हो, दूसरे ऐसे भी हैं जो सोचते हैं कि पश्चिमी सभ्यता में कोई खामी ही नहीं है. यह 'राजा राम मोहन राय' के दौर में भी था, तब यही बात उन्होंने भारत के हिन्दुओ भाईचारा, समानता, एक निष्ठता सिखाया. 

समाज़ हर सदी में नए तरीके से बनता है, हर नए समाज की अलग - अलग चुनौतियां होती हैं. यह तो प्राकृतिक है. लेकिन बड़ी बात यह होती है कि उन्हें चुनौती कौन देता है? समाज में सकारात्मक बदलाव की क्रांति कौन लाता है. आज भी लोग समाज की कुरीतियों से लड़ते हुए दिखते हैं तो आभास होता है कि 'राजा राम मोहन राय' जैसे महान लोग ऐसे ही होते रहे होंगे... 

दिलीप कुमार 





Comments

Popular posts from this blog

*ग्लूमी संडे 200 लोगों को मारने वाला गीत*

मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया

राम - एक युगपुरुष मर्यादापुरुषोत्तम की अनंत कथा