आप संगीत के महासागर थे 'मन्ना दा'
आप संगीत के महासागर थे 'मन्ना दा'
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प्रतिभा अपना मुकाम बना ही लेती है. भले ही थोड़ा समय लगे, लेकिन एक कहावत यह भी है "सतही शै जल्दी प्रचारित हो जाती हैं. हिन्दी सिनेमा हमेशा से ही प्रतिभाशाली लोगों को सही मुकाम नहीं दे सका. शास्त्रीय संगीत जिस स्तर पर लोगों तक पहुंचना चाहिए था वैसे नहीं पहुंचा. ख़ैर सिनेमा के अपने व्यपारिक हित तो रहे ही हैं. परिणामस्वरूप प्रतिभाशाली होने के बावज़ूद मन्ना दा को वो मान-सम्मान या श्रेय नहीं मिला. जिसके कि वे हकदार थे. मन्ना दा जिस दौर में सक्रिय थे, उस दौर में हर संगीतकार का कोई न कोई प्रिय गायक था, और हर संगीतकार का अपना ग्रुप होता था. जो फ़िल्म के अधिकांश गीत उससे गवाता था. मन्ना डे की प्रतिभा के सभी कायल थे. लेकिन सहायक हीरो, कॉमेडियन, भिखारी, साधु यानि कैरेक्टर रोल पर कोई गीत फ़िल्माना हो तो 'मन्ना दा' को याद किया जाता था. 'मन्ना दा' गायिकी को लेकर आला सोच रखते थे, उनका मानना था गायिकी खुदा की नेमत है, जो गाना मिलता उसे गा देना चाहिए. यही 'मन्ना दा' की गायिकी का तिलिस्म है, उनकी प्रतिभा का कमाल है कि उन गीतों को भी लोकप्रियता मिली. आज भी "लागा चुनरी में दाग'' मन्ना दा' की याद में एक भावनात्मक स्मारक का काम करता है.
प्रबोध चन्द्र डे उर्फ मन्ना डे का जन्म 1 मई 1920 को कोलकाता में हुआ. कोलकाता ने साहित्य, संगीत कला के क्षेत्र में एक से बढ़कर एक रत्नों को जन्म दिया.' मन्ना दा' कला - संगीत की पृष्ठभूमि से उपजे थे. लिहाज़ा उन्हें गायक बनना ही था. कहते हैं नियति भी अपनी गोटियाँ चलती है, फिर आदमी उसी ढर्रे पर चलता है, आज नाम सोचिए 'प्रबोध चंद्र डे' एक वकील नाम ही साउंड नहीं कर रहा. जैसे ही गायक' मन्ना दा' का नाम आता है, अचानक से एक म्युज़िक अंतर्मन में बजने लगता है.' मन्ना दा' के पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे. अपने जीवन में आदर्श जीवन जीने वाले 'मन्ना दा' कहते हैं "मैं गायक नियति के कारण बना था, क्योंकि बचपन से ही मुझे संगीत की संगति वो माहौल मिला इसका कारण तो है ही लेकिन मैंने अपना बचपन खेलते हुए अपने दोस्तों के साथ झगड़ते हुए बिताया वो वक्त यादगार है. लेकिन बाद में मेरा रुझान संगीत की ओर हुआ, फिर मैं भी इसी क्षेत्र में अपना कॅरियर बनाना चाहता था". 'उस्ताद अब्दुल रहमान ख़ान' और 'उस्ताद अमन अली ख़ान' से 'मन्ना दा' ने शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को सीखा. 'मन्ना दा' ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा अपने चाचा 'के सी डे' से हासिल की.
' मन्ना' भी हम जैसे ही आम बच्चों जैसे गुनगुनाते थे. बचपन में क्या ही संगीत की समझ होती है.' उनके बचपन की एक नाटकीय घटनाक्रम उनकी आत्मकथा में दर्ज़ है. उस्ताद बादल ख़ान और' मन्ना दा' के चाचा एक बार साथ में संगीत रियाज कर रहे थे. सहसा बादल ख़ान ने एक आवाज़ सुनी. बादल साहब ने उनके चाचा से पूछा, "यह कौन गा रहा है? जब मन्ना डे को बुलाया गया, तो उन्होंने कहा कि बस, ऐसे ही गा लेता हूं. उस्तादों को उस्ताद यूँ ही नहीं कहा जाता, एक पारखी नज़र भी होती है. बादल ख़ान ने मन्ना में छिपी प्रतिभा को पहचान लिया. इसके बाद वह अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे. मन्ना दा' 'स्कॉटिश चर्च कॉलिजियेट स्कूल' व 'स्कॉटिश चर्च कॉलेज' से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने कोलकाता के 'विद्यासागर कॉलेज' से स्नातक की शिक्षा पूरी की. किसी ने कहाँ से क्या शिक्षा की. अब भला हमारा क्या काम!! उनके स्कूल, कॉलेज से लेकिन जिक्र करना जरूरी है, क्योंकि' मन्ना की गायिकी, संगीत के आत्मविश्वास का बीज़ यहीं से प्रस्फुटन हुआ था. अपने स्कॉटिश चर्च कॉलेज के दिनों में उनकी गायकी की प्रतिभा लोगों के सामने आयी. मन्ना अपने साथ के विद्यार्थियों को मनोरंजन रूप गाकर सुनाया करते थे. यही वो दौर था, जब उन्होंने तीन साल तक लगातार 'अंतर-महाविद्यालय गायन-प्रतियोगिताओं' में अव्वल स्थान प्राप्त किया था. बचपन से ही मन्ना को कुश्ती, मुक्केबाजी का शौक रहा है. बंगाली लोगों में फुटबॉल का शौक़ अपने अद्भुत स्तर पर होता है. उन्होंने फुटबॉल में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया. उनका हँसमुख, स्वभाव मस्ती मिजाज़, जिंदादिली छवि वाला व्यक्तित्व रहा है. हालाँकि शालीनता, भी उनके व्यक्तिव पर अलंकृत होती थी.
'मन्ना दा' कॅरियर के शुरुआत में सचिन देव बर्मन उर्फ़ बर्मन दादा के सहायक के रूप में जुड़े. बाद में उन्होंने और भी कई संगीत निर्देशकों के साथ काम किया और फिर स्वयं ही संगीत निर्देशन करने लगे. कई फ़िल्मों में संगीत निर्देशन का काम करते हुए भी मन्ना ने उस्ताद अमान अली और उस्ताद अब्दुल रहमान ख़ान से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेना सुचारु रूप से कायम रखा. 'मन्ना दा'1940 के दशक में अपने चाचा के साथ अपने ख्वाबों की ताबीर मुकम्मिल करने के लिए बंबई का रुख किया. वर्ष 1943 में फ़िल्म 'तमन्ना' में बतौर पार्श्व गायक उन्हें महान गायिका सुरैया जी के साथ गाने का मौका मिला. हालांकि इससे पहले वह फ़िल्म 'रामराज्य' में कोरस (सामूहिक) गीत में गाने का मौका मिला था. इतिहास में एक संदर्भ दर्ज़ है, जो बहुत ही दिलचस्प है. यही एकमात्र वो फ़िल्म थी, हमारे महान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने देखा था. मन्ना की प्रतिभा को खास मुकाम पर लाने के लिए संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन जी का नाम याद आता है. इस जोडी़ ने उनसे अलग-अलग शैली में गीत गाने के मौके दिये. उन्होंने मन्ना से 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम...' जैसे रुमानी गीत और 'केतकी गुलाब जूही...' जैसे शास्त्रीय राग पर आधारित गीत भी गाने का मंच प्रदान किया. हालाँकि यह भी एक अद्भुत सच है कि शुरुआत में 'मन्ना दा' ने यह गीत गाने से मना कर दिया था. 1950 की 'मशाल' में उन्होंने एकल गीत 'ऊपर गगन विशाल' गाया, जिसका संगीत महान बर्मन दादा ने तैयार किया. 1952 में मन्ना डे ने बंगाली और मराठी फ़िल्म में गाना गाया. ये दोनों फ़िल्म एक ही नाम 'अमर भूपाली' और एक ही कहानी पर आधारित थीं. अब तक मन्ना दा' ने हिन्दी सिनेमा के पार्श्वगायन में स्थापित हो चुके थे.
'मन्ना दा' हर रेंज के गीत गाने में सक्षम थे, जब वह ऊंचा सुर लगाते थे, तो ऐसा लगता है कि सारा आसमान उनके साथ गा रहा है, जब वो नीचा सुर लगाते है तो लगता है उसमें पाताल जितनी गहराई है और यदि वह मध्यम सुर लगाते है तो लगता है उनके साथ सारी धरती झूम रही है'. 'मन्ना दा' केवल शब्दों को ही नहीं गाते थे, अपने गायन से वह शब्द के पीछे छिपे भाव को भी ख़ूबसूरती से सामने लाते थे.' मन्ना दा' के गीतों में गज़ब का आस्था भाव था, उनको गाते हुए सुनकर लगता है, जैसे कोई खुदा की बंदगी कर रहा है. इतनी ईमानदारी, संगीत की मर्यादा का हमेशा ख्याल रखा. 'मन्ना का संगीत के प्रति बड़ा आदर का भाव था. जिससे प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन भी खूब प्रभावित थे. उन्होंने अपनी अमर कृति मधुशाला को स्वर देने के लिए 'मन्ना दा' का चयन किया. भारतीय संगीत विधा में अनिल विश्वास को संगीतकारों का भीष्म पितामह कहा जाता है. उन्होंने तुलनात्मक रूप से कहा था कि "मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाए हों, लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नहीं गा सकता. आवाज़ की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफ़ी ने एक बार कहा था कि 'आप लोग मेरे गीत सुनते हैं, लेकिन यदि मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूंगा कि मैं मन्ना डे के गीतों को ही सुनता हूं. महेंद्र कपूर ने कहा 'हम सभी उन्हें आज भी मन्ना दा के नाम सही पुकारते है. शास्त्रीय गायकी में उनका कोई सानी नहीं है. निर्माता को जब भी शास्त्रीय गायक की ज़रूरत होती थी, वे सबसे पहले गीत मन्ना दा से ही गवाना चाहते थे. यह अलग बात है कि दादा बहुत ज्यादा गीत नहीं गाते थे. मुझे भी उनके साथ बहुत ज्यादा गीत गाने का अवसर नहीं मिला, लेकिन जो भी गाया, सभी हिट हुए".
'मन्ना दा' शास्त्रीय संगीत की विधा में पारंगत थे, संगीत की हर बारीकी को समझते थे, किस गाने को किस अंदाज में गाना है यह उन्हें बहुत अच्छे से पता था. हमेशा से ही संगीतकारों के पास कोई मुश्किल गाना होता था, तो उन्हें सबसे पहले 'मन्ना दा' की याद आती थी. मुश्किल गानों को भी मन्ना बड़े सहज भाव से गा लिया करते थे. मन्ना दा' ने कभी भी संगीत में अनावश्यक मिलावट नहीं की. जो शुद्घ था, वही किया, बेमतलब के प्रयोगों से हमेशा बचते थे. वो नायाब हीरा, जिन्होंने गायिकी का एक युग रचा है. जिदंगी कैसी है पहेली हाय और ये रात भीगी भीगी जैसे एवरग्रीन गानों को मन्ना दा ने ही अपनी आवाज दी है. शास्त्रीय संगीत में परांगत होने के बावजूद जहां उनकी गायकी को कुछ लोगों ने नकारा तो वहीं टाइपकास्ट होने पर ये कभी रफी साहब जैसा मुकाम नहीं पा सके. करियर का एक बुरा दौर ऐसा भी रहा जब इन्हें गाने नहीं मिलते थे, कभी इन्हें राज कपूर की सिफारिश पर गाने मिले. हिन्दी सिनेमा ने 'मन्ना दा' के साथ कभी भी न्याय नहीं किया.
1968 में आई कालजयी फिल्म ‘पड़ोसन’ का गाना ‘एक चतुर नार…’ को आज भी मुश्किल गानों में गिना किया जाता है. जब इस गाने के लिए गायक की तलाश की जा रही थी, तो सबसे पहले मन्ना डे का नाम ही जेहन में आया था. शुरुआत में इस गाने के लिए उन्होंने मना कर दिया था. इस गाने में बीच-बीच में कुछ मजाकिया अंदाज वाले शब्द डाले गए थे, जिसे गाने के बीच में कहना था. जब ये बात मन्ना डे को बताई गई, तो वो इस बात के लिए राजी नहीं हुए और इधर किशोर कुमार मजाकिया अंदाज वाले शब्द के लिए राजी हो गए. मन्ना दा' का मानना था कि वह संगीत के साथ मजाक नहीं कर सकते. अंततः उनकी बात मान ली गई और गाने की रिकॉर्डिंग शुरू हुई. गाने की शुरुआत में तो सब कुछ 'मन्ना दा' के मुताबिक ही हुआ, लेकिन जब बाद में किशोर कुमार ने मजाकिया अंदाज वाला गाना शुरू किया तो 'मन्ना दा' चुप हो गए. उन्होंने पूछा कि ये कौन सा राग है??? तब किशोर दा कोई जवाब नहीं दे सके!! जब मेकर्स ने समझाया कि यह फिल्म के सीन के मुताबिक है, हालाँकि किशोर कुमार महान गायक हैं, लेकिन कई बार उन्होंने संगीत की बंदिशें नहीं मानी. लेकिन 'मन्ना दा' ने संगीत की बंदिशें क्रॉस नहीं कीं. बड़ी मुश्किल से राजी हुए थे. दरअसल, वे संगीत को इबादत मानते थे, और इसका अपमान उन्हें पसंद नहीं था. मन्ना दादा फिर भी राजी नहीं हुए और उन्होंने किसी तरह अपने हिस्से का गाना गाया लेकिन उन्होंने उन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया, जो उन्हें पसंद नहीं थे.
गायिकी को पूजने वाले 'मन्ना' ने एक यह भी समय देखा, जब उनकी गायकी का भी अपमान किया गया. यह वाक़या क्लासिकल कल्ट फिल्म चोरी चोरी के गीत ‘ये रात भीगी भीगी’ का है. इस गीत के लिए फिल्म निर्माता 'ए.वी. मय्यपन चेट्टियार' लता मंगेशकर के साथ मुकेश जी की आवाज के पैरोकार थे. वो खासतौर पर इस गीत की रिकॉर्डिंग के लिए मद्रास से बंबई आए थे, लेकिन संगीतकार शंकर-जयकिशन जी की महान जोड़ी इस गीत को लता मंगेशकर के साथ ', मन्ना दा' से गवाना चाहती थी. इसलिए रिकॉडिंग रूम में मुकेश को न पाकर निर्माता मय्यपन तुरंत शंकर - जय किशनजी के पास गए और पूछा कि मुकेश जी कहां हैं???? शंकर ने कहा कि इस गाने के लिए 'मन्ना डे' उम्दा हैं, लेकिन वह नहीं माने तब राजकपूर ने निर्माता को समझाया और कहा कि यह गाना 'मन्ना दा' ही रिकॉर्ड करेंगे, राज कपूर साहब यह सुझाव दे भी सकते थे, क्योंकि उनकी संगीत की समझ कमाल थी. गाने की रिकॉर्डिंग हुई और गाना सुनकर मय्यपन के मुंह से भी यह निकल पड़ा कि उन्हें गर्व होगा, अगर यह गाना उनकी फिल्म से जुड़ेगा..... हालाँकि ये बात 'मन्ना दा' को अच्छी नहीं लगी थी, उन्होंने कुछ व्यक्त नहीं किया था. उन्होंने सोचा ज़रूर होगा कि यह अपमान मेरे हिस्से क्यों आया???
अपनी 5 दशक की लंबी गायिकी में मन्ना दा' ने मौसम की हर मार खाने के बाद अपमान से सम्मानित इंसान तक का रास्ता तय किया था. संगीत की दुनिया में आज भी' मन्ना दा' के स्तर पर कोई दूसरा गायक हुआ नहीं है, न होगा.... लेकिन हमेशा ही ये बात विमर्श का विषय रही, कि इतनी महान गायकी के बाद भी मन्ना दा' कभी ए-लिस्टर सिंगर नहीं बन सके. दौर ऐसा भी था कि रफी, किशोर और मुकेश जैसे लीजेंडरी सिंगर की भी पहली पसंद' मन्ना दा' ही थे. इतनी ही नहीं, रफी साहब ने एक बार कहा था कि पूरी दुनिया मेरे गाने सुनती है, और मुझे बस सुकून मन्ना डे के ही गाने से मिलता है. कठिन से कठिन गीत को मन्ना डे इतनी सहजता से गाते थे, कि लगता ही नहीं था कि उन्होंने कोई एक्स्ट्रा एफर्ट लिया हो. लागा चुनरी में दाग गाने के लिए जब मन्ना डे को कोई अवॉर्ड नहीं मिला तो उन्हें बुरा लगा, जबकि ‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ के लिए जब उन्हें अवॉर्ड मिला तो उन्हें ज़ररआ श्चर्य हुआ.
हिंदी के अलावा बांग्ला और मराठी गीत भी गाए हैं. उन्होंने अपने जीवन काल में 4000 से ज्यादा गीत गाए हैं मन्ना ने अंतिम फ़िल्मी गीत 'प्रहार' फ़िल्म के लिए गाया था. मन्ना दा लम्बी बीमारी के बाद 24 अक्टूबर को इस नाटकीय दुनिया से रुख़सत कर गए.. और रच गए गायिकी का एक अलग संसार जहां हमारे जैसे सिरफिरे सुकून की तलाश में निकल जाते है.. आज भी उनके कुछ महान गीत कर्णप्रिय बने हुए हैं. शास्त्रीय संगीत, एवं पार्श्व गायन की दुनिया के सबसे महान गायक 'मन्ना दा' को मेरा सादर प्रणाम
ये रात भीगी-भीगी
कस्मे वादे प्यार वफा सब
लागा चुनरी में दाग़
ज़िंदगी कैसी है पहली हाय
प्यार हुआ इकरार हुआ
ऐ मेरी जोहरां जबी
ऐ मेरे प्यारे वतन
पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई
यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी
इक चतुर नार करके सिंगार
तू प्यार का सागर है.
दिलीप कुमार
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