'जब सियासत का केंद्र बने देवानंद साहब'

'जब सियासत का केंद्र बने देवानंद साहब'
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आज अभिनेताओं का नेता बन जाना ऐसे ही है जैसे कपड़े बदल लेना, इन्हें कोई मुश्किल नहीं होती. वहीँ राजनीतिक पार्टियों को भी चमकते चेहरे मिल जाते हैं. अभिनेताओं का राजनीति में आना स्मार्टनेस का गेम है, जो अपने फैन्स से वोट लेकर आसानी से जीत जाते हैं. जिसे स्मार्ट गेम फॉर सरवाइवल कहा जाए तो उचित होगा. फ़िल्मों में सबको न्याय दिलाने की इनकी छवि होती है, और जैसे ये राजनीति में आएंगे सारी समस्याएं हल कर देंगे. जबकि इनका जब असलियत में कठिनाइयों से सामना होता है तो अधिकांश सिल्वर स्क्रीन की तरफ़ लौट जाते हैं. अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, बहुतेरे ऐसे उदाहरण हैं, हालांकि कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने खूब राजनीति को जिया, सुनील दत्त, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा आदि. 

वैसे तो अभिनेता से नेता बनने वाले नेताओ की लम्बी लिस्ट है किसी का राजनीति में अनुभव अच्छा है किसी का बुरा है. अधिकांश राजनीति में फिट नहीं बैठते. सनी देओल को ही ले लीजिए, एक भी दिन सदन नहीं पहुंचे.. गौतम गंभीर क्रिकेटर से राजनेता बने थे लेकिन फिर लौट गए अपनी क्रिकेट की दुनिया में.. कुछ ऐसे भी होते हैं चाहकर भी नहीं लौट सकते. 'चिराग पासवान' को ही ले लीजिए. मुश्किल से एक फिल्म में काम किया होगा, आज माननीय सांसद कहे जाते हैं. वैसे सिल्वर स्क्रीन पर इनके लिए कोई ख़ास गुंजाइश बची नहीं है.
कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी स्थिति नाज़ुक होती है जैसे कंगना रानावत पिछले पांच - साल से फ्लॉप - पर फ्लॉप देने वाली कंगना भी मज़बूरी में राजनीति में संभावना तलाश रही हैं. 

आज कोई भी अदाकार असानी से अपनी लोकप्रियता के कारण राजनीतिक पार्टियों में घुस जाते हैं, लेकिन एक ऐसा भी दौर था जब हिन्दी सिनेमा के सितारों ने अपना राजनीतिक दल खड़ा कर दिया था जिसका नाम नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया था. पार्टी की बागडोर देवानंद साहब के हाथ आई. एक ऐसा अभिनेता जो सिर्फ़ प्यार करना जानता था, जिसने अपनी ज़िन्दगी के साथ भी रोमांस किया वो राजनीति की पेचोख़म में उलझ गया. सिल्वर स्क्रीन पर एक अभिनेता अभूतपूर्व परिवर्तन कर देता है, फ़िर राजनीति के धरातल पर उतरते ही उनका वाकफा यथार्थ से होता है. 1977 में आम चुनाव की घोषणा होती है तब रामजेठमलानी ने देवानंद साहब से आग्रह किया 'आप इन्दिरा गांधी के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करते हुए जय प्रकाश नारायण का साथ दीजिए और हमारा मंच साझा कीजिए और इंदिरा गांधी के विरुद्ध एक भाषण दीजिए. देवानंद साहब ने राजनेताओं की अकड़ सीधा करने एवं मुँहतोड़ जवाब देने के लिए जनता पार्टी न जॉइन करते हुए खुद 'नेशनल पार्टी ऑफ इन्डिया' बना डाली. देवानंद साहब ने कल्पना किया जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गज शामिल हों. जब साउथ के अभिनेता 'एमजी रामचंद्रन' अपनी पार्टी बनाकर तमिलनाडु में अपना जादू दिखा सकते हैं तो मैं देश में क्यों नहीं कर सकता'. पढ़े लिखे शिक्षित, विज़न वाले लोगों को देश की संसद में ले जाने का अब समय आ गया है.

1980 के लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर देवानंद साहब देश के लिए बड़े - बड़े ख्वाब देख रहे थे. देशहित के विचार देवानंद व्यक्त भी करते रहते थे. देवानंद साहब भारत के ऐसे गांवों की कल्पना करने लगे जहां साफ - सफाई, शिक्षा, स्वास्थ्य रोज़गार के साथ गांव शहरों के लिए साथ जुड़ें. गांवों एवं शहरों के लोग सब इंग्लिश बोलें. मजदूर किसान हर कोई गाडियों में घूमें. समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण हो. देवानंद साहब ने अपनी आत्मकथा इस पर लिखा है - "ये सब एक एक नागरिक होने के नाते मेरी यूटोपिक दूरदृष्टि थी मैं राजनीति में शामिल होकर इसे यथार्थ के धरातल पर उतारना चाहता था. देवानंद साहब के ये विचार अचानक नहीं आए ये सब आपातकाल के दौरान की बेचैनी थी. देश में जब आपातकाल लगा उस दौर में इंदिरा गांधी के सूचना प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल की तानाशाही के किस्से खूब सुनाए जाते थे. विद्या चरण शुक्ला अपनी मनमानी हिन्दी सिनेमा पर भी थोपना चाहते थे, जिसका नमूना था शुक्ल ने फिल्मी हस्तियों की एक बैठक बुलाई , जिसमें कहा गया कि आप सभी हमारी सरकार का प्रचार कीजिए. प्रचार करना तो बहुत दूर की बात है, देवानंद साहब इस बैठक में शामिल भी नहीं हुए. बैठक में शामिल न होने का परिणाम देवानंद साहब को भुगतना पड़ा. शुक्ल ने अगला आदेश दे दिया किसी भी सरकारी मीडिया से देवानंद साहब के गाने एवं फ़िल्मों का प्रसारण पर बैन लगा दिया. देवानंद साहब दिल्ली पहुंचे शुक्ल से मुलाकात करते हुए कहा - "ये लोकतांत्रिक देश है आप अपनी मनमानी बंद कीजिए, आप हिन्दी सिनेमा पर अपनी मनमानी करना चाहते हैं, आप भूल रहे हैं मेरा नाम देवानंद है, मैंने अपना भरपूर समय सिनेमा में जी लिया है, ग़र आपने यह तानाशाही नहीं छोड़ी मैं आपके विरुद्ध सड़कों पर उतर जाऊँगा. देवानंद साहब मुंबई नहीं पहुंच पाए और उनकी फ़िल्मों से बैन हट गया. 

आपातकाल से प्रभावित होकर देवानंद साहब ने सरकार के विरुद्ध कई भाषण दिए जिसकी चर्चा देश - विदेश में हुई. आपातकाल के बाद देश की राजनीति में बहुत बदलाव आया. देश में जनता पार्टी की सरकार बनी. जनता पार्टी को देवानंद साहब सहित फिल्मी हस्तियों का खूब समर्थन मिला. लेकिन पार्टी में आपसी कलह के कारण यह सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी. देवानंद साहब का जनता पार्टी से मोह भंग हो गया. नए चुनाव का एलान हुआ फिल्मी हस्तियों में एक डर व्याप्त था कि आपातकाल के बाद ग़र इन्दिरा गांधी फिर से पीएम बनेगी तो हमारे लिए यह अच्छा नहीं होगा. फिल्मी हस्तियों ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध एक अभियान चलाया उस अभियान के नेता देवानंद साहब बने. 04 सितंबर 1979 को मुंबई के ताज होटेल में फिल्मी हस्तियों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस किया, जिसमें देवानंद साहब ने नई पार्टी का एलान कर दिया. इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में देवानंद साहब ने पार्टी का घोषणा पत्र जारी किया साथ ही एक रू वाला की सदस्यता वाला फॉर्म भी जारी किया जिसमें देवानंद साहब का चित्र था. पार्टी का मुख्यालय राज कमल स्टूडियो को बनाया गया लेकिन पार्टी का संचालन देवानंद साहब अपने स्टूडियो से ही करते थे. मुंबई के शिवाजी पार्क में देवानंद साहब की नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया की एतिहासिक रैली का आयोजन किया गया. जिसमें ग्रेट प्राण साहब, संजीव कुमार, डैनी, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेंद्र, विजय आनन्द, प्रकाश मेहरा, सुबोध मुखर्जी, राजेन्द्र नाथ, श्रीराम बोहरा, शर्मिला टैगोर, दारा सिंह सहित लगभग पूरा का पूरा हिन्दी सिनेमा इकट्टा हुआ. इस रैली में तब तक कि सबसे ज्यादा जनता एकत्र हुई थी. रैली की भीड़ देखकर पक्ष - विपक्ष के नेताओ की नींद उड़ गई. 

यह पहला मौका था जब फिल्मी हस्तियां स्क्रिप्ट, ऐक्टिंग, रोमांस, गीत संगीत से हटकर राजनीति की बातेँ कर रहे थे. शिवाजी पार्क की रैली में पंडित नेहरू जी की बहन विजयालक्ष्मी पंडित भी शामिल हुईं. सफल रैली के आयोजन के बाद बारी थी प्रत्याशियों को मैदान में उतारने की जिसमें चौधरी चरण सिंह के विरुद्ध धर्मेंद्र, भोपाल से शर्मिला टैगोर को, अमृतसर से दारा सिंह को प्रत्याशी बनाया गया. इस तरह देवानंद साहब की नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया ने बहुत से अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे. ज़मीन पर उतर रही पार्टी से घबराकर सभी पार्टियों ने पार्टी में सेंधमारी शुरू कर दी. कांग्रेस ने विश्वास दिलाया कि अब देश में पुनः कभी आपातकाल जैसी स्थिति पैदा नहीं होगी. इंदिरा गांधी ने नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया का कांग्रेस में विलय करने का आग्रह किया. देवानंद साहब ने आमंत्रण अस्वीकार कर दिया, परिणामस्वरूप पार्टी के लोगों पर दबाव भी बनाए गए, तब ही दो लोगों ने देवानंद साहब को झटका दिया. नेहरू जी की बहन विजयालक्ष्मी पण्डित और ननी पालकीवाला ने चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया. दूसरी ओर नेताओ की ओर से अभिनेताओं को धमकी मिलने लगीं तो पार्टी फायनेंशरो ने भी धीरे धीरे पार्टी से किनारा कर लिया. पार्टी कमज़ोर होते देख कई अभिनेताओं ने पार्टी छोड़ कांग्रेस को ही जॉइन कर लिया. सबकुछ देवानंद साहब बर्दास्त कर रहे थे. इतना सब गुज़र जाने के बाद देवानंद साहब को ज्ञात हुआ कि राजनीति हमारे जैसे कोमल हृदय के लोगों के लिए नहीं है. फिर देव साहब ने राजनीति को छोड़कर पुनः अपना रुख फ़िल्मों की तरफ मोड़ लिया... कभी न रोने वाले देवानंद साहब ज़िन्दगी में तीन बार ही रोए... अपने पिता, अपनी प्रेमिका सुरैया जी , और अपने पसन्दीदा नेता नेहरू जी के देहांत पर रोए थे. देवानंद साहब नेहरू जी के सपनों का भारत बनाना चाहते थे, अफ़सोस उनका सपना पूरा न हो सका. आज अधिकांश अभिनेताओं को राजनीति पर उतरा देखकर देवानंद साहब की बातेँ गूंजने लगती हैं 'राजनीति हम जैसे कोमल भावनाओं के लोगों के लिए नहीं है. 

दिलीप कुमार 


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