'लुट रहे हैं सिनेप्रेमी'

लुट रहे हैं सिनेप्रेमी
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एक न एक दिन फिल्ममेकर कंगाल हो जाएंगे' जी हां आज सिनेमा एवं फ़िल्मकारों की यही स्थिति है. सलमान खान की फ़िल्म टाइगर 3 ने लगभग 270 करोड़ का बिजनैस किया फिर भी जैसे तैसे एवरेज हो पाई. डंकी फ़िल्म ने साढ़े चार सौ करोड़ से अधिक का बिजनैस किया फ़िर भी मुश्किल से एवरेज का टैग हासिल कर सकी! आज के ऐक्टर 100 - 200 करोड़ रुपये अपनी फ़िल्म की फीस कॉर्पोरेट्स से लेते हैं. जिससे फिल्म का बजट 300 - 400 करोड़ हो जाता है, और दोष आम दर्शको पर डालते हैं. आम दर्शक क्या पूरा पैसा सिनेमा में ही झोक दे? जवान, पठान, गदर 2 जैसे हर फिल्म 500 करोड़ नहीं कमा सकती, फ़िल्मकारो के साथ कलाकारों को भी सोचना होगा? मूल्यांकन करना होगा, जिससे आम आदमी फिल्म भी देख ले और अपने बच्चों का भरण पोषण भी कर ले. 

बिडम्बना यही है कि 200- 300 करोड़ कमा कर भी फ़िल्में फ्लॉप क्यों हो रहीं हैं? कोविड के बाद इसी साल कई छोटी बड़ी फ़िल्में दर्शकों के द्वारा साराही गईं हैं. ऐसा भी नहीं है कि सिल्वर स्क्रीन पर फ़िल्में देखने का चलन खत्म हो गया है. आज फ़िल्मों के फ्लॉप होने का सबसे बड़ा कारण है फ़िल्मों का बजट है जो इतना बड़ा होता है कि मुश्किल से ही फ़िल्में अपनी लागत निकाल पाती हैं. आज के दौर में फ़िल्मकार कई फ्लॉप फ़िल्में देने के बाद भी कंगाल नहीं होते, एक प्रश्न हमेशा आम सिने प्रेमियों के मन में आता होगा. जिसका सबसे बड़ा कारण है फ़िल्मों के महंगे ओटीटी राइट्स, म्युज़िक राइट्स 300 - 500 करोड़ तक के बिकते हैं. वहीँ फिल्म के बजट के हिसाब से पैसे कमा लेते हैं. वहीँ विज्ञापनो से ढेर सारा पैसा आता है. इसलिए भी फ्लॉप पर फ्लॉप देने के बाद भी इनका आर्थिक नुकसान नहीं होता, और सिनेमा की गुणवत्ता एवं दर्शकों से खिलवाड़ होता है. पुराने दौर में देखिए कन्टेन्ट में गुणवत्ता होने के बाद भी एक फिल्म के बाद ही फ़िल्मकार दिवालिया हो जाते थे, भारत भूषण, राजकपूर साहब, ऐसे कई उदाहरण है. 

कला फ़िल्मों के ऐक्टर इरफ़ान ने फ़िल्मफेयर अवॉर्ड के मंच से कहा था 'इन सितारों को देखने के चक्कर में कहीं लोगों के गाड़ी घोड़े न बिक जाएं '. इरफ़ान खान ने बिल्कुल सही कहा था. हम याद करते हैं तो याद आता है एक दौर था जब फ़िल्मों के रिलीज होते ही त्योहारों जैसा माहौल होता था. किसी का परिवार में जन्मदिन हो, या छुट्टी हो तो घरों में उत्साह होता था कि हम सिनेमा हॉल में पिक्चर देखने जाएंगे, अब वो आम आदमी का उत्साह ही खत्म हो गया है. क्योंकि ज़रूरत से ज्यादा सिनेमा लोगों को महंगा पड़ता है. सबसे बड़ा कारण है सिनेमा 2डी, 3डी के बाद आम दर्शकों से दूर होता जा रहा है. 250- 500 रू तक का टिकट हो गया है. फिर भी जैसे तैसे आम आदमी अपने पैसे मैनेज कर लेता है, लेकिन जैसे ही सिनेमा हॉल के अंदर जाता है फिर उसकी असल लूट शुरू होती है. 

सिनेमा के नाम पर देश भर के सिनेमाघर और मल्टीप्लैक्स दर्शकों को अनैतिक रूप से लूट रहे हैं. आजकल दर्शकों को लुभाने के लिए ये फिल्म के टिकट की दरें कम करने का ड्रामा ज़रूर करते हैं, लेकिन जैसे एक दर्शक सिनेमा हॉल व मल्टीप्लैक्स में पहुंचता है तब उसकी असल लूट शुरू होती है. सबसे ज्यादा खाने पीने की चीज़ों से लोगों को लूटते हैं. सिनेमा हॉल में दर्शकों को पानी की बोतल तक साथ नहीं ले जाने देते, खाने - पीने की चीजें ले जाना तो बहुत बड़ी बात है. और इसी के साथ सिनेमा हॉल एवं मल्टिप्लेक्स वाले अपने खुद के रेस्टोरेंट चलाते हैं, जिससे बदले में कई गुना महंगी चीजें देते हैं. 

हालांकि दर्शकों के सिनेमा हॉल एवं मल्टीप्लैक्स में किसी तरह के खाद्य पदार्थ नहीं ले जाने को लेकर कोई कानूनी नियम नहीं है. हाँ सिनेमा हॉल के अन्दर सामान बेचने की मनाही ज़रूर है. फिर भी मल्टीप्लैक्स चलाने वाली कंपनियों ने अपने नियम बनाकर खाद्य पदार्थों को साथ ले जाने पर रोक लगा रखी है. यह भी एक तानाशाही है. वैसे भी हमारे यहां किसी भी बात की परंपरा बन जाती है. एक वक़्त आएगा, जब आने वाली पीढ़ी को लगेगा सिनेमा हॉल के अन्दर पानी एवं खाद्य पदार्थों को भी न ले जाने की परंपरा है. 

सिनेमा हॉल, मल्टीप्लेक्स के अंदर किसी भी प्रकार की सामाग्री बेचने की कानूनन मनाही है. लेकिन मल्टीप्लेक्स वालों के द्वारा सरेआम कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं. सिनेमा हाल में प्रवेश से पहले चेकिंग का उद्देश्य होता था कि कोई हथियार लेकर अंदर न जाए, लेकिन अब चेकिंग दूसरे उद्देश्य से होती है कहीं कोई खाद्य सामग्री लेकर अंदर प्रवेश तो नहीं कर रहा. बाज़ार में समोसे की कीमत 10-20 रूपए होती है, लेकिन वही समोसा मल्टीप्लेक्स वाले 50-60 रूपए में बेचते हैं. एक लीटर कोलड्रिंक की कीमत 70-80 रूपए होती है, लेकिन यही कोलड्रिंक सिनेमा हॉल के अंदर 200 - 250 होती है. पानी की बोतल 20 रुपये में मिलती है लेकिन सिनेमा हॉल के अंदर वही बोतल 50-80 रूपए में मिलती है.. 20 रुपए का पॉपकॉर्न मल्टिप्लेक्स में 150 - 200 - 300 का मिल रहा है. जब एक आम सिने प्रेमी पर यह सब लूट गुज़रती होगी, पता नहीं उसकी मनोदशा क्या होती होगी! 

अब सिनेमा आम दर्शको से काफी दूर होता चला जा रहा है, शायद हो गया है. अब वो उत्साह भी नहीं रहा. मुम्बई हाइकोर्ट में इस मामले में याचिका डाली गई थी, जिस पर कोर्ट ने सरकार से सवाल किया था कि कानून की धज्जियाँ क्यों उड़ रहीं हैं?? लेकिन सरकार तो सरकार है! एक वक़्त आने वाला है मल्टीप्लेक्स में आम सिने प्रेमी जाने के लिए भी सोचना छोड़ देंगे. क्योंकि उनके बजट से काफी दूर हो जाएगा. 

दिलीप कुमार

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