'द' लायन ऑफ हिन्दी सिनेमा
'द' लायन ऑफ हिन्दी सिनेमा
(अजीत साहब)
किसी भी कहानी में प्रमुख दो किरदार होते हैं, एक नायक दूसरा खलनायक एक नायक तब ही पूरा होता है, जब उसके साथ कोई खलनायक हो. फ़िल्म की कहानी एवं कथानक में दोनों की अपनी महनीय भूमिका होती है. हिन्दी सिनेमा में ऐसे कई नायक - खलनायक आए और गए, लेकिन आज भी एक डायलॉग हमारे कानों में पड़ता है - "सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है. और इस शहर में मेरी हैसियत वही है, जो जंगल में शेर की होती है". साथ ही - 'मोना डार्लिंग जो लोग पार्टियों में अलग - थलग रहते हैं, आम तौर पर वो लोग बहुत जिद्दी होते हैं' , ऐसे सौम्य डायलॉग को सुनने के बाद एक तहज़ीब वाला शालीनता के साथ अपने अंदाज़ में संवाद अदायगी के साथ खलनायक 'अजीत खान' हमारे जेहन में आते हैं. अजीत हिन्दी सिनेमा के पहले ऐसे विलेन थे, जो सफेद स्टाइलिश कपड़ों में फ्लूएंट इंग्लिश बोलते थे. अजीत फ़िल्मों में सोने की बिस्किट, हीरे आदि की तस्करी करते हुए खलनायकी करते थे. फ़िल्मों में छोटे काम से परहेज़ करते थे. हमेशा अपने साथ एक महिला सेक्रेट्री भी रखते थे. अजीत साहब ने अपनी ज़िन्दगी बतौर नायक शुरू की, लेकिन बाद में खलनायक बनकर पर्दे पर अपनी अदाकारी से हिन्दी सिनेमा में अपने नाम को अमर कर दिया. अजीत साहब भी जीते जी ही किंवदन्ती बन गए थे. अजीत साहब एक ऐसा विलेन जिसने खलनायिकी के आयाम को बदलकर कर रख दिया. गोल्डन एरा में अपने दौर में मशहूर अभिनेता अजीत साहब ने खुद को हिन्दी फिल्मों में एक कूल और कैजुअल विलेन के रूप में पर्दे पर उतारा. अजीत ने सिल्वर स्क्रीन पर एक ऐसे खलनायक को जन्म दिया, जो तमीज, तहजीब वाला, पढ़ा-लिखा, सूट-बूट वाला एक तगड़ा मास्टरमाइंड हुआ करता था. जो खुद कभी कानून को अपने हाथ में नहीं लेते थे, केएन सिंह के बाद अजीत ही वो विलेन थे, जो अपने गुर्गों से गलत काम करवाते थे, लेकिन खुद अपने हाथ साफ रखते थे. अजीत की गैंग में सहायक विलेन होते थे. जिनमे, प्रेम चोपड़ा, रंजीत, मैकमोहन, जीवन, आदि जो उनके लिए काम करते थे. अजीत साहब ने अपनी बुद्धि एवं शालीनता के साथ खलनायिकी का ट्रेडमार्क स्थापित किया. अक्सर फिल्मों में हीरो, खलनायक को नैतिकता का पाठ पढ़ाता है, लेकिन अजीत के मामले में ये सब उल्टा था, कभी वह हीरो से कहते, 'आशीर्वाद तो बड़े देते हैं...हम तो सिर्फ राय देते हैं.' तो कभी कहते 'उम्र से बढ़कर बातें नहीं करते' उनके हर डायलॉग स्क्रीन पर मशहूर हुए, उनकी आवाज में दम था, जो उनके मुंह से निकाले हर शब्द को और भी हसीन बना देता था. अजीत साहब धमकी भी नफ़ासत के साथ देते थे, वो अंदाज़ उनका अपना सिग्नेचर स्टाइल था.
मोना डार्लिंग और रॉबर्ट के आका और सिल्वर स्क्रीन के बहुचर्चित मोना डार्लिंग और रॉबर्ट के बहुचर्चित डॉन 'अजीत साहब' के वन-लाइनर्स ने चुटकुलों की एक नई शैली को ईजाद किया. जो दशकों तक लोगों का मनोरंजन करता रहेगा. अब तक स्क्रीन पर धोती - कुर्ते पर लंबी - लंबी मूछें, गंदी पतलून, कैरेक्टर के हिसाब से हाथ में हिंसक हथियार, एवं मुँह से जहरीली आग उगलती गालियाँ देते हुए विलेन होते थे, लेकिन अजीत साहब ने 1970 के दशक के दौरान एक बिल्कुल नया खलनायक देखा - जो विनम्र, शिक्षित, सूट और सफेद जूते पहनते थे. और क्लार्क-गेबल शैली की मूंछें रखते थे. जब बोलते थे, तो शालीनता मुँह से टपकती है. वह एक ठहरी आवाज में मृदुभाषी भाव के साथ बेहतरीन संवाद अदायगी में माहिर थे. उनसे पहले हिंग्लिश में भाषीय रूप से पहले कभी सुनने को नहीं मिले. अजीत साहब के कुछ कालजयी डायलॉग याद आते हैं. "लिली डोंट बी सिली" ( ज़ंजीर ) या " सारा शहर मुझे लायन के नाम से जनता है " (कालीचरण) आदि में बेहतरीन डायलॉग अदायगी से अजीत साहब याद आते रहेंगे.
अजीत साहब के लिए आकस्मिक खलनायक बनना आसान नहीं था. हालांकि, अजीत साहब संयोग से पैदा नहीं हुए थे. अजीत साहब को लगा कि हिन्दी फिल्मों के खलनायक बहुत चिल्लाते हैं, गंदी - गंदी गालियाँ बकते हैं, इसलिए उनको जब खलनायिकी के लिए मौका मिला तो उन्होंने खुद को मृदुभाषी खलनायक बनाया. फ़िल्मों में अंडरवर्ल्ड के डॉन अजीत अक्सर बड़ी विनम्रता के साथ बात करते थे. फिल्म जंजीर के साथ , अजीत ने खलनायकों के बोलने के तरीके में क्रांति ला दी थी.
अजीत साहब हैदराबाद के गोलकुंडा के पास हामिद अली खान के रूप में 27 जनवरी 1922 को उनका जन्म हुआ था. उनके पिता बशीर अली खान निजाम की सेना में थे. अभिनेता बनने के लिए, अभिनय को लेकर जुनून की हद तक दीवानगी रखते थे. एक दौर में अदाकारी कोई पेशा नहीं था, बल्कि औसत दर्जे का काम माना जाता था. आजादी के बाद या पहले हिन्दी सिनेमा में काम करने के लिए न जाने कितने अभिनेताओं को घर से ही बगावत करना पड़ा. अजीत साहब को अदाकारी के लिए घर से ही बगावत करना पड़ा. अपने पिता के कड़े विरोध का सामना करते हुए, ठान लिया कि हीरो ही बनना हैं. अब बंबई हीरो बनने तो जाना था, लेकिन किराया नहीं था. कहते हैं सृजनशीलता अपना हर्जाना वसूल करती है. अंततः अजीत साहब ने अपनी कॉलेज की किताबें बेचीं और बंबई का रुख कर लिया. हिन्दी सिनेमा में बिना पहिचान के अजीत ने अपने पहले कुछ दिन सपनों के शहर में एक खाली नाले के अंदर बिताए थे. इस स्तर का जुनून व्यक्ति को उस मुकाम तक ले जाने के लिए काफी होता है , वहीँ मेहनत के साथ खुद के लिए ईमानदार कोशिश जरूरी होती है... अंततः हामिद अली खान ने बंबई में खुद को स्थापित करने के लिए शहर के खाली पाइपों में ज़िन्दगी की उन रातों का ठिकाना बनाया एवं स्टुडियो के चक्कर काटने लगे, इतना आसान नहीं होता, फ़िल्मों में स्थान बनाना न जाने संघर्ष के नाम पर अजीत साहब कितनी रातें सड़कों पर धूल फांकते थे.
'अजीत साहब' ने पहले सहायक अभिनेता के रूप में अपनी सिनेमाई यात्रा शुरू की. हालाँकि आकर्षित व्यक्तित्व, कृतित्व, के साथ शालीन लहजे के कारण उन्होंने खुद को पहली पंक्ति में शामिल कर लिया. महेश भट्ट के पिता नानाभाई भट्ट ने उन्हें एक फिल्म में हीरो के तौर पर ब्रेक दिया था. जिन्होंने अजीत नाम दिया, क्योंकि हामिद अली खान "बहुत लंबा" था. उनकी गैंगस्टर,से बहुत पहले, मुग़ल-ए-आज़म , नया दौर और सोने की चिड़िया जैसी फ़िल्मों ने उन्हें निर्देशकों की नज़रों में ला दिया था. नायक के रूप में अजीत की भूमिका, तथापि, उसे सफलता तक पहुँचाने में विफल रही. और उन्हें अपनी असल कामयाबी दिलाने वाली फ़िल्म सालों बाद मिली, जब उन्हें फ़िल्म सूरज में खलनायक के रूप में काम मिला. हालाँकि उनके विलेन बनने की प्रक्रिया बड़ी दिलचस्प है. पहले अजीत साहब नायक के रूप में उभरे थे. अभी भी उनके हिस्से का संघर्ष जारी था. लंबे कड़े संघर्ष के दौरान एक दिन अजीत साहब फ़िल्मकार मज़हर खान के पास पहुंचे. मजहर खान उन दिनों एक फ़िल्म 'बड़ी बात' 1944 बना रहे थे. अजीत ने उनसे काम मांगा तो अजीत की कद काठी और आवाज़ को देखते हुए मज़हर खान ने हामिद को एक टीचर का छोटा सा रोल दे दिया. संघर्ष के दिनों में अजीत साहब के दोस्तों में गोविंद राम सेठी भी प्रमुख थे. एक बार सेठी को फिल्म शाहे मिस्र 1946 डायरेक्ट करने का मौका मिला और उन्होंने अजीत साहब को फ़िल्म का लीड ऐक्टर बना दिया. "शाहे मिस्र" तो फ्लॉप हो गयी, लेकिन इस फ़िल्म से अजीत की पहचान ज़रूर बन गयी जिसके कारण अजीत को दूसरी कुछ फ़िल्मों में काम मिला.
"जन्मपत्री" "हातिमताई", "आपबीती", चिलमन, और "जीवन साथी" जैसी फ़िल्मों में अजीत साहब बतौर हीरो नज़र आए. अब अजीत साहब कुछ ख्याति प्राप्त करने में सफल रहे. आगे चल कर अजीत ने नूतन और नरगिस को छोड़ उस दौर की सभी हिरोइनों के साथ काम किया था. लेकिन अजीत की फिल्म नास्तिक को छोड़ कोई फिल्म सुपर हिट नहीं हुई. हीरो के आखिरी दौर में अजीत के पास सिर्फ़ बी ग्रेड की फ़िल्में बची थीं. ऐसे में उनके दोस्त और अभिनेता राजेंद्र कुमार ने एक दिन उन्हें फ़ोन कर बताया कि उन्हें हीरो के रूप में दक्षिण की एक फ़िल्म मिली है, और वे चाहते हैं कि उसमें विलेन का रोल अजीत करें. अजित ने फ़िल्म के लिये हामी भर दी. वो राजेन्द्र कुमार स्टार्टर फ़िल्म सूरज थी. इस फ़िल्म से हिन्दी सिनेमा में एक नए खलनायक का जन्म हुआ. ऐसा खलनायक जिसकी धारदार आवाज़ और सख्त चेहरे के हाव - भाव से दर्शको में सिरहन पैदा होती थी.
फ़िल्म 'सूरज' सुपरहिट हो जाने के बाद अजीत साहब ने "राजा और रंक" "जीवन मृत्यु" और "प्रिंस" जैसी कई फिल्मों में सफल अभिनय किया, लेकिन हिन्दी सिनेमा में में उनकी एक दमदार अभिनय एवं शख्सियत की पहिचान उनसे काफी दूर थी. फिर उनके जीवन में अहम मोड़ लेकर फ़िल्म "ज़ंजीर" 1973 आई. इस फिल्म में अजीत ने एक ऐसे उद्योगपति धर्मदास तेजा की भूमिका निभायी जो बहुत नापतौल कर नफ़ासत के साथ बोलता है. जंजीर के खलनायक का अंदाज़ रुआबदार, शालीन, शिक्षित, लहजा और बर्फ की तरह ठंडी आवाज लोगों के दिलो दिमाग में भर गई थी. ये खलनायक ठंडे सुर वाला क्रूर आदमी था. अजीत साहब ने अपनी खास संवाद अदायगी से किरदार को अमर कर दिया. यूँ तो गोल्डन एरा के दौर से हीरो के रूप में बाद में खलनायक के रूप में वैसे भी उनकी सिनेमाई यात्रा बहुत लंबी थी, लेकिन इस फिल्म के बाद अजीत साहब कभी न भुलाए जा सकने वाले अदाकार के रूप में जीते जी किंवदन्ती बन गए. यह आला मुकाम उँगलियों पर गिने जाने वाले लोगों को मिला है. फिर तो उनके पास फ़िल्मों में काम करने के लिए एक - से बढ़कर एक भूमिकाओं के लिए लाइन लग गई. अजीत पर्दे पर शांति के साथ अपने गुर्गों के ज़रिये सारे बदमाशी के काम करवाते थे. खुद लड़ने - झगड़ने में यकीन नहीं रखते थे, और वो फ़िल्मों में खुद कानून को हाथ में नहीं लेते थे. यातना देने और आतंक पैदा करने के नए नए तरीक़े उनकी फिल्मों का अहम हिस्सा रहा है. छिछोरी हरकतें करने वाले किसी भी रोल को उन्होंने कभी नहीं स्वीकारा. बलात्कार के सीन से वे हमेशा बचते रहे. शालीनता का लिबास ओढ़े हुए पर्दे पर आते थे. उनकी अपनी अदाकारी जीवंत है.
फ़िल्म 'यादो की बारात' में अजीत साहब की अदाकारी इतनी शानदार थी, कि फ़िल्मकार नासिर हुसैन ने कहा था "फिल्म में सभी की अदाकारी यादगार रही है, लेकिन अजीत साहब के बिना इस कालजयी फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती". सच कहा है नासिर हुसैन साहब ने इस फिल्म के किरदार में अजीत साहब ने सभी से ज्यादा तालियां बटोरी थीं, यहां तक कि फिल्म में ग्लैमर जीनत अमान, नीतू सिंह, से कहीं अधिक अजीत साहब के किरदार की तारीफ हुई थी. ख़ासकर ही मैन धर्मेंद्र, से कहीं ज्यादा प्रभावी थे, लेकिन इस फिल्म में अजीत साहब मरते - मरते बचे थे.... हुआ हूं कि रेल्वे ट्रैक पर अजीत साहब का पैर फंस जाता है, यह सीन फिल्म के लिए रियल में फ़िल्माया गया, था लेकिन तब सचमुच रेल्वे ट्रैक पर उनका पैर फंस गया, और ट्रेन गुजर गई, सभी यूनिट वालों की चीखें निकल गईं, कि अब अजीत साहब नहीं रहे, लेकिन नियति ने अभी उनकी मौत नहीं लिखी थी, अंततः ट्रेन गुजरने से पहले अजीत साहब का पैर निकल गया था, और उन्होंने ट्रैक से छलांग लगा दी, बाद में यूनिट ने देखा कि अजीत साहब स्वस्थ हैं...
इतनी बेहतरीन सिनेमाई सफलता के बाद 'अजीत साहब' सिल्वर स्क्रीन के सबसे व्यस्त खलनायक के रूप में शुमार हो गए थे. यूँ तो सत्तर के दशक से सिल्वर स्क्रीन पूरी तरह बदल चुका था, गोल्डन एरा के सितारें धूमिल हो रहे थे, वही इस नए सिनेमा की दौड़ में शामिल था, जो खुद को बदल कर समय के साथ खुद को ढालकर पर्दे पर उतारने में सहज था. अब सिनेमा आदर्श दौर से बाहर आ चुका था. अजीत साहब अक्सर मेकअप कर शॉट देने के लिये सेट पर बैठे रहते और हीरो समय पर नहीं पहुंचते. करीब 40 साल का फ़िल्मी सफ़र तय कर चुके अजीत ने एक दिन फ़ैसला किया कि अब वो फ़िल्मों में काम नहीं करेंगे.वे आत्मसम्मान से समझौता करने को राज़ी नहीं थे. अंततः अजीत साहब जिनके अन्दर बंबई को लेकर बेशुमार मुहब्बत थी, लेकिन अब बंबई मुंबई बन चुकी थी. अब अजीत साहब को मुंबई में सिरहन होने लगी थी. हैदराबाद में अपने फार्म हाउस पर समय बिताने लगे थे. जब अजीत साहब फ़िल्मों से दूर हो गए तब उनके बोले हुए डॉयलाग सबसे ज़्यादा चर्चित हो गए. उनका जंजीर में खास अंदाज़ में बोला गया वाक्य 'मोना डार्लिंग' तो लोगों को इतना भाया कि बरसों तक इसकी पैरोडी बनती रही. उनके बोले गए डायलाग को कॉपी करते हुए चुटकुले गढ़े जाने लगे. यह अजीत की संवाद अदायगी की लोकप्रियता का चरम प्रभाव था.
फ़िल्मकार हर्मेश मल्होत्रा अपनी हर फिल्म में हिन्दी सिनेमा के लायन अभिनेता अजीत साहब को जरूर लिया करते थे. अंततः हर्मेश मल्होत्रा ने अमरीश पुरी से पहले अजीत साहब के पास इस भूमिका के लिए उनके पास आजिजी कर रहे थे, उनकी दिली इच्छा थी, कि अजीत साहब इस बेहतरीन रोल को ज़रूर करें! क्योंकि उन्होंने यह अजीत साहब के लिए ही गढ़ा था. लेकिन ‘नगीना’ बनने के समय अजीत साहब फिल्मों से सन्यास ले चुके थे. चूंकि हर्मेश मल्होत्रा अपनी फ़िल्मों में अजीत साहब को देखना चाहते थे, इसलिए फिल्म में अजीत साहब की इजाजत से अजीत साहब को ऋषि कपूर के स्वर्गीय पिता के तौर पर दिखाया गया था. और कई सीन में उनकी फोटो भी देखने को मिलती है. यह वही तस्वीर है जो फिल्म 'कालीचरण' में भी उपयोग की गई है.
अजीत साहब ने अपने जीवन में संघर्ष के साथ मेहनत करते हुए खुद को फर्श से अर्श तक के कर गए, लेकिन अजीत साहब के अंदर अज़ीब सी बेचैनी रही जो उनको कभी भी सुकून नहीं पाने देती थी. यूँ तो उस दौर के अदाकारों में शायद ही किसी के पिता ने इस काम के लिए सहमती दी हो. अजीत साहब के पिता ने उनको कभी भी फ़िल्मों में काम करने के लिए इजाजत नहीं दी. इस बात के लिए अजीत साहब हमेशा दुःखी थे, अजीत साहब जब अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे तब उन्होंने अपने पिता को उनके जन्मदिन पर हमेशा एक उपहार भेजते थे, सालों के बहुत सारे उपहार हो चुके थे. एक बार अजीत साहब हैदराबाद गए तो उन्होंने देखा कि एक अलमारी में उनके द्वारा भेजे गए उपहार आज तक उनके पिता ने खोलकर देखा भी नहीं है, तो उन्होंने कारण पूछा उनके पिता ने कहा "हराम के पैसे से तुम्हारे खरीदे गए उपहार मैं छुना भी गंवारा नहीं समझता". यह सुनकर अजीत साहब बहुत दुःखी हुए, अतः उन्होंने कभी भी नहीं चाहा कि उनके बच्चे फ़िल्मों में काम करें, वो अपने बच्चों से कहते थे," अगर फ़िल्मों में काम करना हैं तो अपनी दम पर कुछ करो किसी से सिफारिश करने के लिए नहीं कहना.... अजीत साहब खुद हमेशा शोर में भी इस खामोशी से बच नहीं पाए.
कलाकार भले ही सुकून की तलाश में अपनी रचनात्मकता से मुँह मोड़ लें, लेकिन एक कलाकार को अपनी सृजन करने की कला से ही सुकून आता है. हैदराबाद में अजीत साहब के पास मकान, फार्म हाउस, भरे पूरे परिवार सहित तमाम सहूलियतें मौजूद थीं, उन्हें फिल्मी दुनिया की जिंदगी शिद्दत से याद आती रहती थी. फिर एक दिन अजीत साहब ने दोबारा बड़े पर्दे का रूख कर लिया. निर्माता निर्देशक सलीम-अख्तर उनसे उनकी फिल्म में काम करने का अनुरोध करते ही रहते थे. एक दिन अजीत साहब ने उनकी फ़िल्म "पुलिस अफ़सर" में काम करने के लिए हाँ कर दिया. इसके बाद अजीत ने कई फिल्में कीं, लेकिन अब लायन बहुत बूढ़ा हो चुका था. पर्दे पर नए खलनायकों की नई जमात कब्ज़ा जमा चुकी थी. 22 अक्टूबर 1998 को अजीत का निधन हो गया. उनके मरने के 23 साल बाद भी उनके अंदाज़ में चुटकले बनाने का सिलसिला जारी है. मिसाल के लिये – “ राबर्ट इसे अंडर कंस्ट्रक्शन फ्लैट दिलवा दो. बैंक की क़िस्तें इसे जीने नहीं देंगी. मकान का पज़ेशन मिलने की उम्मीद इसे मरने नहीं देगी. अजीत साहब अपने संवादों के ऊपर बने जोक्स सुनकर खूब आनन्दित होते थे. जैसे-जैसे उनके डायलॉग्स सामने आए, वैसे-वैसे हास्य भी सामने आए. जबकि जावेद जाफ़री ने मैगी के लिए " बास , पास द सास " टैगलाइन लिखी थी, पारले-जी के पास एक बिस्किट अभियान था जो अजीत के लिए " माल लाये हो ? लिखा गया था. अजीत साहब के निधन हो जाने के बाद भी लेकिन उनकी शैली जीवित है. अजीत साहब हिन्दी सिनेमा में उदात्त शख्सियत के रूप में जाने जाते हैं. हिन्दी सिनेमा के 'लायन' 'अजीत साहब' को मेरा सलाम
दिलीप कुमार
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