सूफ़ी गायिकी के सम्राट उस्ताद नुसरत फतेह अली खान
सूफ़ी गायिकी के सम्राट उस्ताद नुसरत फतेह अली खान
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान... कव्वाली के सम्राट इनकी आवाज़ का जादू ऐसा है, कोई एक बार सुन ले तो इनकी आवाज़ का दीवाना हो जाए... नुसरत साहब को जब सुनते हैं तो लगता है कि कव्वाली का दूसरा नाम नुसरत साहब हैं.. या तो कव्वाली ने नुसरत साहब की बनाया है, या नुसरत साहब को कव्वाली ने बनाया है. पिछली सदी से अब तक शायद ही कोई होगा हो जो साहब की आवाज़ के तिलिस्म से बच पाया हो. ग़र गायक की गायिकी में जुनून तो वो संगीत ईश्वर की इबादत बन जाता है.. सूफ़ी गायिकी में इनका पूरी दुनिया में कोई जवाब नहीं है.. पूर्व से पश्चिम... उत्तर से दक्षिण दसों दिशाओं में जलवा कायम है. आज भी उनकी आवाज़ हिंदुस्तान - पाकिस्तान के बीच खाई पाटने का काम करती है.
नुसरत साहब जन्मे तो पाकिस्तान में थे, लेकिन अपनी गायिकी के कारण अपने मुल्क की सरहदें लांघ कर भारत सहित पूरी दुनिया के कोने-कोने में अपनी आवाज़ के ज़रिए पहुँच गए. वैसे भी देखा जाए तो संगीत को कोई सरहदें रोक भी नहीं सकतीं... कव्वाली की पहुंच क्लासिकल संगीत, ग़ज़ल की अपेक्षा कहीं अधिक है. दोनों का अपना - अपना एक श्रोता वर्ग है, लेकिन जहां दोनों रस घुल जाएं तो क्या ही कहने.. यूँ तो अमीर खुशरो कव्वाली जनक के रूप में याद किए जाते हैं, लेकिन कव्वाली को आम लोगों की पसंद के साथ जोड़ देने का कमाल तो नुसरत साहब को ही आता था.
नुसरत साहब 1948 फैसलाबाद पाकिस्तान में जन्मे... नुसरत साहब का संगीत के साथ कई पीढ़ी पुराना खूब का रिश्ता जुड़ा हुआ था. सूफ़ी संगीत नुसरत साहब के ब्लड में ही था, सच कहा जाए तो सूफी संगीत विरासत में ही मिला, लेकिन साहब ने संगीत सीखने से लेकिन कव्वाली सम्राट बनने का सफ़र कड़ी तपस्या का प्रतिफल है. क्योंकि संगीत विरासतों में नहीं मिलता, उसे तो केवल और केवल कड़ी मेहनत, एवं साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है...नुसरत साहब के पास भी साधना के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था.. सूफी संगीत, क़व्वाली गायिकी की दुनिया में नुसरत साहब का मुकाम बहुत आला है, आज भी उनका नाम बड़ी अदब के साथ लिया जाता है. सूफ़ी संगीत को सबसे ज्यादा लोकप्रियता दिलाने में साहब की भूमिका सबसे अग्रणी है. दूसरे शब्दों में कहें रूहानी संगीत सूफ़ी संगीत के बिना अधूरा है... वहीँ सूफ़ी संगीत उस्ताद नुसरत फतेह अली खान साहब के बिना अधूरा है... घर में सबसे छोटे नुसरत साहब गायिकी से पहले तबला सीखे हुए पारंगत वादक बन चुके थे.. बाद में उस्ताद ने संगीत की तरफ़ रुख किया, उस्ताद की गायिकी में उनके पिता की छाप बखूबी देखी जा सकती है. एक बेटे के नाते उस्ताद नुसरत इस बात का खुद ही जिक्र करते हुए गर्व महसूस करते थे.
उस्ताद नुसरत साहब की गायिकी की दुरुस्त शुरुआत 1965 से शुरू हुई...सूफ़ी गायिकी में अपनी विलक्षण प्रतिभा से इस संगीत में कई रस घोल दिए... सूफी संगीत को और लोकप्रियता दिलाने के लिए उस्ताद ने पूरी दुनिया में कंसर्ट एवं लाइव शो किए, इतने बड़े गायक के संगीत ग्रुप में ज्यादा भीड़ नहीं होती थी, मुश्किल से दस लोगों की मण्डली एक शो में एक हज़ार से लेकर एक लाख तक की भीड़ पर गहरा असर छोड़ जाती थी... उस्ताद नुसरत साहब का मिजाज़ पूरी तरह सूफियाना था, उनकी वजनदार गायिकी की तरह उनका व्यक्तित्व बहुत कमाल था... उनकी गायिकी का उनके निजी जीवन पर भी गहरा प्रभाव देखा जा सकता है. उस्ताद नुसरत साहब खुले दिमाग के प्रगतिशील सोच के गायक एवं इंसान थे. अपनी ज़िन्दगी में अपने सर्वोच्च मुकाम तक पहुंच जाने के बाद भी अपनी सादगी को कभी नहीं छोड़ा... आज भी गायकों के लिए उनकी सादगी किसी प्रेरणा से कम नहीं है. आज भी उनकी कव्वाली सादगी तो हमारी ज़रा देखिए... यूँ लगता है जैसे सामान्य जीवन जीने की तालीम दे रही है.
पिता 'फतेह अली खान' गायक होते हुए भी नहीं चाहते थे कि उनका बेटा कव्वाल बने.एक दौर में समय संगीत को लेकर पाकिस्तान में उतना क्रेज नहीं था, और न ही जरूरतें पूरी करने लायक पैसे मिलते थे. गायक पिता की राय थी, बेटा 'नुसरत' कव्वाली गाने में उतना फिट नहीं है, नुसरत के भारी शरीर के कारण भी चिंता वाज़िब थी, चूंकि कव्वाली गाने के लिए इधर-उधर जाना पड़ता है, नुसरत इतनी भाग दौड़ नहीं कर पाएगा. उन्होंने सोच रखा था. बेटे को डॉक्टर बनाऊँगा. चूंकि घर में संगीत का ही माहौल था, इसलिए संगीत उनके रागों में बहता था. अपने पिता के जाने के बाद, नुसरत हारमोनियम बजाना सीखा करते थे. एक दिन ऐसे ही पिता के पीछे से नुसरत हार्मोनियम बजा रहे थे, उन्हें पता ही नहीं चला कि उनके पिता उन्हें पीछे खड़े होकर देख रहे हैं. अपने बेटे को हार्मोनियम बजाते देख, नुसरत के पिता मुस्कुराए और हार्मोनियम बजाने की अनुमति दे दी, लेकिन इस चेतावनी के साथ कि इससे उनकी पढ़ाई डिस्टर्ब नहीं होनी चाहिए. बहुत छोटी उम्र में ही नुसरत ने तबला और हार्मोनियम बजाना सीख लिया. उनके पिता को अपना मन बदलना पड़ा, और आखिर में अपने बेटे उस्ताद नुसरत साहब को कव्वाली गाने की आज्ञा दे दी.
पिता सिर पर छत की तरह होते हैं, पिता का जाना जीवन में वट वृक्ष का सूख जाना होता है.. ऐसे ही पिता के गुज़र जाने के बाद असमंजस में पड़ गए, उस्ताद नुसरत को समझ नहीं आ रहा था ज़िन्दगी में किस ओर जाऊँ. एक दिन नुसरत साहब को एक रात में एक ख्वाब आया कि वो अपने पिता के साथ एक मज़ार में गा रहे हैं उन्होंने अपने एक दोस्त से अपने ख्वाब का जिक्र किया... उनके दोस्त ने बताया तुम जिस मज़ार की बात कर रहे हो, वो ख्वाजा शेख सलीम शाह चिश्ती का दरबार अजमेर शरीफ है. तब उस्ताद नुसरत साहब बड़े गुलाम अली साहब के गायक बेटे 'मुनावर अली ख़ान' के साथ अजमेर आए और अपनी गायिकी प्रस्तुत की. शुरू शुरू में वो पाकिस्तान में सीमित संसाधनो के साथ लोगों को कव्वाली सुनाते थे, कड़े संघर्ष में भी जुटे रहे, और हार नहीं मानी. कुछ कर गुजरने के जुनून ने उन्हें बुलन्दियों तक पहुंचा दिया. अमीर खुशरो के बाद कव्वाली में सबसे ज्यादा प्रयोग उस्ताद नुसरत साहब ने की किया. क़व्वाली के जनक खुशरो ने कव्वाली को सुर बक्शे वहीँ सूफ़ी सम्राट ने कव्वाली में राग - रागिनी से सज़ा दिया.
कव्वाली में सफ़ल शास्त्रीय संगीत का प्रयोग उस्ताद नुसरत साहब ने ही किया, वहीँ कव्वाली में ग़ज़ल का टच भी साहब ने ही दिया. सूफ़ी गायिकी में उस्ताद ने वाद्य यंत्रों को खूब बढावा दिया. तबले के साथ लय की जुगलबंदी का श्रेय भी उस्ताद नुसरत साहब को ही जाता है. नुसरत साहब की धुनें, सरगम बहुत लोकप्रिय हुईं. लयकारी एवं मिजाजी गायिकी को नया आयाम दिया. उस्ताद ने हिन्दी सिनेमा से लेकर हॉलीवुड तक अपना संगीत दिया. हिन्दी सिनेमा में बैंडिट क्वीन, धड़कन, कारतूस, प्यार हो गया, कच्चे धागे, में अपना रूहानी संगीत दिया जो आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया था. नुसरत साहब का नाम हिन्दी सिनेमा में 1990 के दशक में गूंजने लगा जब हिन्दी सिनेमा में इनकी कव्वाली की नकल की जाने लगीं. नुसरत साहब के सैकड़ों गीत, कव्वाली बॉलीवुड ने नकल की.. अतः बाद में नुसरत साहब ने खुद भारत आकर कुछ गाने खुद गाए, जिसके कारण उनकी नकल बंद हो गई थी..
उस्ताद नुसरत साहब को सबसे पहले हिन्दी सिनेमा में 1981 में अपनी फिल्म नखुदा में गाने के लिए ख्ययाम साहब लेकर आए थे. उनका गाया हुआ गीत पाकिस्तानी गीत का नया वर्जन था, जिसके लिए उन्हें नुसरत अली मुजाहिद अली, नाम से क्रेडिट दिया गया. मुजाहिद अली एंड पार्टी उनके खानदानी संगीत ग्रुप का नाम था, जिसके लिए गाया करते थे. ग्रेट शो मैन राज कपूर साहब ने भारत उन्हें अपने घर में शादी में गाने के लिए बुलाया था. एक गीत स्पेशल तौर पर भारतीय संगीत प्रेमियों के लिए लेकर आए थे.. गीत के बोल हैं सांसो की माला पे सिमरू मैं' सालो बाद शाहरुख की फिल्म में कोयला में यही गीत लिया गया था. नुसरत साहब कितने कमाल इंसान थे इसका यह भी एक किस्सा है "आनंद बक्शी साहब अजय देवगन की फिल्म कच्चे धागे में बतौर गीतकार काम कर रहे थे.. यह फ़िल्म नुसरत साहब के जीवन की आख़िरी फिल्म थी, जिसका संगीत देने पाकिस्तान से भारत आए थे... एक होटेल में रुके नुसरत साहब आनन्द बक्शी के साथ कुछ संगीत पर चर्चा करना चाहते थे, चूंकि नुसरत साहब का वज़न बहुत ज्यादा था, वो चलने में असमर्थ थे. सुनकर बक्शी साहब का इगो हर्ट हो गया कि यह पाकिस्तान से आकर यहां मिलने नहीं आ सकते मुझे ऑर्डर दे रहे हैं ' और मिलने नहीं गए अपना गाना लिखकर भेज दिया. दोनों एक दूसरे के गीत एवं संगीत को रिजेक्ट कर देते थे... बीस दिनों तक चलता सिलसिला टूट गया. एकदिन नुसरत साहब ने आठ लोगों ने कहा मुझे उठाओ और आंनद बक्शी के पास लेकर चलो... अपने घर में नुसरत साहब को इस अवस्था में देखकर आनन्द बक्शी रो पड़े. कव्वालियों के 125 एल्बम रिकॉर्ड कराने के बाद गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में नाम शामिल हो गया.
नुसरत साहब को किडनी की समस्या के कारण इलाज के लिए लॉस एंजेलिस ले जाया जा रहा था, वहीँ हार्ट अटैक के कारण 16 अगस्त 1997 को बहुत जल्द इस फानी दुनिया से रुख़सत कर गए. भतीजे राहत फतेह अली खान को अपना बेटा बना लिया था. और जाने से पहले अपनी पूरी विरासत राहत के कांधे पर छोड़ गए.... सूफ़ी गायिकी के सम्राट उस्ताद नुसरत अली साहब को मेरा सलाम.
दिलीप कुमार
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