आसान नहीं होता फ़िल्म निर्देशन

आसान नहीं होता फ़िल्म निर्देशन 

हम कोई फिल्म देखते हैं तो, एक पल में राय व्यक्त कर देते हैं  फिल्म कैसी है! कई बार वाहियात कह डालते हैं, कई बार निर्देशक की कृति फिल्म को लाज़वाब कहते हैं... यह तो बहुत साधारण सी बात है, लेकिन आज उद्देश्य है इस विधा पर प्रकाश डालना... बहुत मुश्किल है फ़िल्म निर्देशक होना..वैसे देखा जाए तो फ़िल्म निर्देशन बहुत मुश्किल विधा है, आम तौर पर फिल्म निर्देशक एक रचनात्मक इंसान होता है, उसकी दृष्टि बौध्दिक होती है... उसकी सोचने समझने की क्षमता बहुत आगे की होती है, फिल्म निर्देशक की सोच एक लेखक, कवि से कहीं बेहतर होती है. 

चाहे वो अनुराग कश्यप हो, या सुजीत सरकार, हो या राजकुमार हिरानी हो, या फिर रोहित शेट्टी ही क्यों न हो! कई लोगों को विचित्र लग सकता है कि रोहित शेट्टी कैसे दार्शनिक इंसान हो सकते है! इसका बहुत सीधा सा जवाब है, हर लेखक, एडिटर... निर्देशक नहीं बन सकता, लेकिन हर निर्देशक लेखक, एडिटर, छायांकन, सभी क्षेत्रों में उसकी बहुमुखी समझ होती है... संगीत, साहित्य, नृत्य, कहानी, छायांकन सबकुछ वो अपने कंट्रोल में रखता है...एक पूरी फिल्म का सृजनकर्ता फिल्म निर्देशक ही होता है.. फिल्म की पटकथा, स्क्रीनप्ले, संगीत भले ही समीक्षकों के मानकों पर खरा न उतरे, लेकिन एक फिल्म निर्देशक खुद को तपा देता है... वैसे हर फिल्म निर्देशक हर विषय पर फिल्म नहीं बना सकता, कभी नया प्रयास सुपरहिट हो जाता है, कभी सुपर फ्लॉप... 

जैसे क्रिकेट में कोई कवर ड्राइव बढ़िया खेलता है, कोई कूपर शॉट बढ़िया खेलता है, कोई पुल शॉट बहुत बढ़िया खेलता है.. ऐसे ही कोई कला फ़िल्में बनाता है, कोई एक्शन फ़िल्में बनाता है, कोई रोमांटिक फिल्म बनाता है.. सभी की अपनी किसी एक पर विशेष प्रधानता होती है... फिर भी हर बैटर हर शॉट नहीं खेलना चाहता, और न ही रिस्क लेना चाहता... यही फ़िल्मों में होता है. हम हमेशा कवर ड्राइव शॉट वाले को क्लास वाला बैटर मानते हैं, वहीँ जैसे स्वीप, कूपर खेलता है हम उसे उच्च स्तर का बल्लेबाज नहीं मानते, लेकिन यह सच है कि हर कोई कवर ड्राइव नहीं खेल सकता, वैसे ही हर कोई कला, फ़िल्मों का रिस्क नहीं लेता.. 

कल्ट फ़िल्में हमेशा नहीं बनती, कभी - कभार बन जाती हैं..मैंने पहले भी कहा है, कल्ट फिल्म बनाने के लिए जिगर चाहिए, क्योंकि कई बार फ़िल्मकार दर्शकों के टेस्ट का ख्याल नहीं रखते, और खामियाज़ा उठाना पड़ता है.. वैसे फिल्मों की तुलना करना ही अज़ीब है. हर फिल्म का एक अलग दर्शक वर्ग होता है, कोई कला फिल्म देखता है तो कोई एक्शन, कोई रोमांस... हमारे यहां कल्ट फ़िल्मों को बाद में इज्ज़त मिली है, और आगे भी बाद में ही मिलेगी, क्योंकि कभी हमें वर्तमान समझने की सलाहियत न कभी थी और न कभी आएगी. 

कोई भी फ़िल्मकार जब फिल्म बनाने की सोचता है तो वो एक मास्टरपीस ही बनाता चाहता है, कोई भी निर्देशक, अपनी कहानी को अपने मानकों की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही उस नतीजे पर पहुंचता है, लेकिन कभी - कभार वो उसे उस तरह नहीं बना पाता जैसे चाहता है.... फिल्म निर्देशकों पर समीक्षक बहुत क्रूरता बरतते हैं, जो उचित तो नहीं है..कम से कम अपनी खुन्नस नहीं निकलना चाहिए. ज्यादा नहीं तो निष्पक्षता तो रखना ही चाहिए. 

फ़िल्में क्रिटिक्स के अच्छे रिव्यू देने से कोई फिल्म हिट नहीं होती..  फिल्मों का हिट होना सिर्फ अच्छे रिव्यू पर निर्भर नहीं करता...कई बार दर्शक पहले से ही तय कर लेता है कि देखूँगा... रिव्यू पढ़कर फ़िल्में देखने वालों की संख्या एक दो फीसदी ही है. ग़र आप 'पठान' , 'गदर' , 'टाइगर' जैसी फ़िल्मों में 'प्यासा' , 'मदर इन्डिया' , 'मुगल ए आज़म' ढूढ़ने का प्रयास करते हैं तो आपका अपना दोष है...आपको फिल्म पसंद नहीं आई इसलिए  निर्देशक को गरियाने से कोई हल नहीं निकलेगा. फिल्म समीक्षकों को तो कुछ नहीं कहना चाहूँगा, लेकिन जो आम लोग फौरन फ़िल्मों के पोस्टटर जलाने लगते हैं, उन्हें एक दिन फिल्म की शूटिंग दिखाई जाए अग़र देखने की दृष्टि होगी तो समझ आएगा कि कितना मुश्किल कार्य है.. किसी पुस्तक केे कल्पनीय किरदारों को जिवित करके रंगमंच पर खड़ा कर देना आसान काम नहीं है.. उसके लिए बहुत मेहनत करनी होती है.. फिल्म का जब तक समाज पर बुरा असर न पड़े, तब तक उसका विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि फिल्म का उद्देश्य मनोरंजन होता है... फिर भी अगर आपको आपके पसंद की फिल्म नहीं मिल रही है, तो अपनी पसंद की फिल्म ढूढ़ना शुरू करिए... या इंतजार करिए...

दिलीप कुमार 


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