'खुरदरा इंसान अभिनय का संस्थान'

'खुरदरा इंसान अदाकारी का संस्थान' 

(ओम पुरी) 

ओमपुरी रंगमंच के मंझे हुए कलाकार हिन्दी सिनेमा में हीरो बनने की जद्दोजहद में थे. एक बार अपने दोस्त नसीरुद्दीन शाह के साथ ऑडिशन देने पहुंचते हैं. उसी स्टुडियो में मौजूद शबाना आज़मी कहती हैं "कैसे-कैसे लोग हीरो बनने चले आते हैं, उन्हें लगा शायद ये इतना सुनकर चले जाएंगे. हुआ इसके विपरीत ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह दोनों बहुत ढीठ कलाकार थे, वो एनएसडी से हीरो बनने का ज़ज्बा लेकर आए थे. जब दोनों का सामना शबाना आज़मी से हुआ तो शबाना आज़मी कहती हैं -"तुम दोनों दुनिया के सबसे कुरूप इंसान तुम दोनों ने सोच भी कैसे लिया कि तुम दोनों हीरो बनोगे"... यह सुनते हुए दोनों हँस पड़े, चूंकि यह सुनना दोनों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. सच कहूँ तो बचपन से ही एक ख्याल आता था कि नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी जैसे शक्ल सूरत वाले हीरो कैसे बन सकते हैं! बाद में सिनेमा की टेक्निकल समझ आई तो बचपन के उन प्रश्नों के उत्तर तो मिलते हैं, जो हर किसी को परेशान करते हैं. 

ओम पुरी हिन्दी फ़िल्मों के उन अभिनेताओं में शुमार थे, जो  बहुमुखी अभिनय क्षमता से किसी भी किरदार को पर्दे पर जीवंत कर देते थे. सिनेमा को अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम मानने वाले ओम पुरी ने अपनी पैठ हर पीढ़ी के दर्शकों तक बना कर रखी थी. उनके अभिनय का हर अंदाज़ सिने प्रेमियों को खूब आकर्षित करता है. सिल्वर स्क्रीन पर जब ओम पुरी का हँसता-मुस्कुराता चेहरा दिखता है, तो दर्शक उनके साथ हँसते हुए अपनी खुशियां महसूस करने लगते थे, और जैसे ही ओम पुरी सिल्वर स्क्रीन पर दुःखी होते तो दर्शक उनके दुःख - दर्द में दुःखी हो जाते थे... ओम पुरी जैसे अदाकार सिने प्रेमियों को अपने बीच का कोई इंसान है, ऐसे महसूस होता है, जो हमारे जैसे ही सोचता, बोलता है. वो सुपरहीरो नहीं है, वो रोते भी हैं...हँसते भी हैं. टैलेंटेड ओम पुरी को दर्शक हर भूमिका में देखना पसंद करते थे. फिर चाहे रंगमंच हो, समानांतर सिनेमा हो या व्यपारिक सिनेमा, वह सभी जगह अपनी आभा बिखरने में सफल हुए. 

ओम पुरी कहते थे "ग़रीब, किसान, बावर्ची, हवलदार, क्लर्क जैसी आम सी भूमिकाएं निभाने के लिए कोई बड़ी मेहनत करने की ज़रूरत नहीं हुई, क्योंकि बचपन से ही मैंने यह ज़िन्दगी जिया है. मैंने ढाबे में चाय के कप भी धोए हैं... बाद में ढाबे के मालिक ने उन पर चोरी का आरोप लगाते हुए नौकरी से निकाल दिया..फिर खालसा कॉलेज में दाखिला लिया. उसी दौरान ओम पुरी एक वकील के यहां मुंशी का काम भी करने लगे. अपने एक साक्षात्कार में ओम पुरी ने खुद बताया - "शुरुआती दिनों में वे चंडीगढ़ में वकील के साथ मुंशी थे. एक बार चंडीगढ़ में उनके नाटक की परफॉर्मेंस थी, लेकिन वकील ने उन्हें तीन छुट्टी देने से मना कर दिया. इस पर ओम पुरी ने कहा- "अपनी नौकरी रख लो , मेरा हिसाब कर दो". फिर कॉलेज के दोस्तों को पता चला कि ओम ने नौकरी छोड़ दी तो उन्होंने प्रिंसिपल को बता दिया. इस पर प्रिंसिपल ने प्रोफेसर से कहा- "कॉलेज में कोई जगह है क्या" इस पर उन्होंने कहा- "है एक लैब असिस्टेंट की, लेकिन ये आर्ट का स्टूडेंट है, इसे क्या पता साइंस के बारे में" प्रिंसिपल बोले- "कोई बात नहीं, लड़के अपने आप कह देंगे, नीली शीशी पकड़ा दे, पीली शीशी पकड़ा दे" इस नौकरी के साथ ही ओम पुरी कॉलेज में हो रहे नाटकों में भी हिस्सा लेते रहे. कहते हैं अपना ज़ज्बा हो तो अच्छे लोग मिल ही जाते हैं. 

ओमपुरी के अदाकार बनने के पीछे उनके अन्दर पनप रहे कुछ सवालों अहम भूमिका निभाई. जैसे समाज में इतनी असमानता क्यों है? इतनी गुरबत क्यों है! रंगभेद क्यों है? मैं कैसा दिखता हूं मेरी इसमे कोई भूमिका नहीं है, फिर भी मुझे अपमान सहना होता है. तरह-तरह की घुटन- बेचैनी ने अंदर सोचने समझने की सलाहियत पैदा की.. क्योंकि रचनात्मकता दुःख के समय निखर कर सामने आती है. जिससे उन्हें लगा सिनेमा ही अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है, जिसने उन्हें रंगमंच का रास्ता दिखाया... ओम पुरी का रुझान अभिनय की ओर हो गया और वे सिनेमा की दुनिया में जुड़ने के लिए खुद को अन्दर से तैयार करने लगे. और धीरे-धीरे नाटकों में हिस्सा लेने लगे.  नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में सिनेमा की बारीकियों को सीखने के बाद हीरो बनने का ख्वाब लेकर चल पड़े. ओम पुरी महात्वाकांक्षी तो थे ही साथ ही वास्तविकता समझते थे कि मुझे हिन्दी सिनेमा में काम नहीं मिलेगा, लेकिन एनएसडी की वैशाखी काम आ सकती है, यहीं पर उनकी मुलाकात दोस्त नसीरुद्दीन शाह से हुई जिनकी दोस्ती अंतिम साँस तक कायम रही. 

नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा' में अदाकारी की बारीकियों को सीखने के बाद ओम पुरी ने हिन्दी फ़िल्मों की ओर रुख़ किया. ओम पुरी की पहली फ़िल्म 'घासीराम कोतवाल' थी. 'घासीराम कोतवाल' की संवेदनशील भूमिका में अपनी आभा बिखरते अभिनय क्षमता का प्रभावी परिचय दिया. धीरे-धीरे वे मुख्य धारा की फ़िल्मों से अलग समानांतर फ़िल्मों के ज़रिए अपनी संजीदा अदाकारी के ज़रिए अपनी अमिट छाप छोड़ने लगे. 

पहली बार 1981 में ओम पुरी की प्रतिभा को किस्मत का साथ मिला.. उनकी ज़िन्दगी की सबसे यादगार फ़िल्म 'आक्रोश' में अदाकारी दिखाने का मौका मिला. इस फिल्म में उनके अभिनय का हर कोई कायल हो गया. इस फिल्म के बाद ओम पुरी समानांतर सिनेमा के एक स्तम्भ बन कर उभरे... इसी दशक में मसाला फिल्मों का अपना दौर था, वहीँ कला फ़िल्में सामाजिक दायित्व को निभाते हुए दर्शकों तक अपनी पहुंच बना रहीं थीं. आक्रोश की सफ़लता के बाद एक से बढ़कर एक एक कालजयी फ़िल्मों में ओमपुरी ने यादगार अदाकारी की.  'भवनी भवई', 'स्पर्श', 'मंडी', 'आक्रोश' और 'शोध' जैसी फ़िल्मों में ओम पुरी का अभिनय हिन्दी सिनेमा का प्रमुख हासिल है... ओम पुरी की प्रत्येक भूमिका अमर है, लेकिन 'आक्रोश' की तरह 'अर्धसत्य' भी मास्टरपीस है. 

ओम पुरी का जीवन प्रेरणादायक है, केवल सिनेमा ही नहीं आम लोग भी उनसे प्रेरणा ले सकते हैं, कि शक्ल सूरत मायने नहीं रखती, आपके अंदर कुछ कर गुजरने की प्रतिभा होनी चाहिए... एक वक़्त ऐसा था कि ओम पुरी इंग्लिश समझ न आने के कारण NSD छोड़ना चाहते थे, वही बाद में ओम पुरी ने अमेरिका, ब्रिटेन सहित लगभग दो दर्जन अँग्रेजी फ़िल्मों में सफल अभिनय करते हुए अपनी ग्लोबल स्तर पर पहिचान बनाई. 'ईस्ट इज ईस्ट', 'सिटी ऑफ़ ज्वॉय', 'वुल्फ़',सैम एंड मी', 'द घोस्ट एंड डार्कनेस' जैसी कालजयी फ़िल्मों में उन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी है. 'चार्ली विल्सन' में उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया उल हक की भूमिका निभाई थी. 
सिनेमा में किरदारों का अपना मह्त्व होता है, कई अहम किरदार दर्शकों के दिमाग में घर कर जाते हैं.. मकबूल और देव शूट ऑन साइट', 'महारथी' जैसी महान फ़िल्मों में अभिनय करने वाले ओम पुरी अपने सशक्त अभिनय के साथ ही कई बेहतरीन फ़िल्मों में काम किया. ओमपुरी ने टीवी के लिए कक्काजी कहिन, भारत एक खोज, मिस्टर योगी जैसे धारावाहिकों में अभिनय किया. इसके अलावा उन्होंने आहट के कुछ अंको में काम किया है साथ ही सावधान इंडिया का सेकंड सीजन होस्ट किया. ओम पुरी अपनी कर्णप्रिय, आवाज़ के साथ अपनी सशक्त आवाज़ के लिए भी जाने जाते हैं. 

ओम पुरी अपनी विविधतापूर्ण अदाकारी के लिए याद आते हैं, जितनी संजीदगी से सशक्त रोल करते थे, उतनी ही सहजता से साथ कॉमिक टाइमिंग के साथ पर्दे पर आते थे. 'चाची 420', 'हेरा फेरी', 'मेरे बाप पहले आप', 'चुपके-चुपके' और 'मालामाल वीकली', 'सिंह इज किंग', 'बिल्लू'जैसी कॉमिक भूमिकाओं में खूब सराहे गए. एक उम्र के बाद कई अदाकार खुद को समय के मुताबिक बदलते नहीं है, अतः समय के साथ ही गुमनाम हो जाते हैं, लेकिन ओम पुरी ने हर तरह का रोल किया, जिससे उम्र के उस पड़ाव में भी प्रभावी रहे. 

ओम पुरी का जीवन संघर्ष की पराकाष्ठा थी, जब मुंबई हीरो बनने पहुंचे... डॉक्यूमेंटेशन के लिए उन्हें 'डेट ऑफ वर्थ' की आवश्यकता हुई. ओम पुरी को अपनी जन्मतिथि पता नहीं थी. दरअसल, उनके पास ऐसा कोई प्रमाण पत्र नहीं था, जिससे वह अपनी जन्मतिथि साबित कर पाते. ऐसे में उन्होंने अपने बर्थडे की तारीख खुद ही तय कर ली थी. ओम पुरी के मुताबिक, उनकी मां बताती थीं , कि उनका जन्म दशहरे के दिन हुआ था, लेकिन तारीख किसी को पता नहीं थी. तब उन्होंने अपनी बर्थ डेट 18 अक्टूबर तय कर दी, क्योंकि उस साल दशहरा 18 अक्टूबर के दिन था...

ओम पुरी का ह्यूमर कमाल था, "साक्षात्कार में कहते हैं "देखिए मैं अपनी ज़िन्दगी की बेहतरीन भूमिकाएं निभा चुका हूं, अब मैं बूढ़ा हो गया हूं, इसे मैं सहज स्वीकार करता हूँ. जाहिर है, मुझे अब कैरेक्टर रोल ही मिलेंगे, जो मैं करता हूँ. अब सिर्फ़ अभिनय का मजा लेता हूं, हालाँकि कोशिश करता हूँ, अर्थपूर्ण सिनेमा करूँ.. फिर भी मैं यह दम्भ नहीं भरना चाहता, कि मैंने व्यपारिक सिनेमा नहीं किया, क्योंकि थिएटर, कला फ़िल्मों के ज़रिए आज मेरे पास न घर होता न गाड़ी होती और न ही एक अच्छी लाइफस्टाइल होती, हालांकि मैंने ऐसी फ़िल्में नहीं की जिससे समाज को कोई नुकसान हो. मेरे दुनिया छोड़ने के बाद मेरा योगदान दिखेगा और युवा पीढ़ी में, विशेष रूप से सिनेमा सीख रहे बच्चे मेरी फिल्में जरूर देखेंगे.'' रंगमंच हो या फिल्म ओम पुरी का अभिनय नए कलाकारों को रास्ता दिखाता रहेगा. 

मुझे नेशनल अवॉर्ड, फिल्म फेयर अवॉर्ड, पद्म पुरस्कार, सहित कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिल चुके हैं, अब ऐसी कोई इच्छा नहीं है कि वो नहीं मिला तो अब मैं प्राण नहीं त्यागूँगा. मुझे अपना जन्मदिन तो नहीं पता, लेकिन अपनी मौत बता सकता हूं, लेकिन मेरी मौत का तो किसी को पता भी नहीं चलेगा. सोए-सोए चल देंगे. आपको पता चलेगा कि ओम पुरी का कल सुबह 7 बजकर 22 मिनट पर निधन हो गया. यह कहकर ओम पुरी हंस पड़े.. हकीकत में ओम पुरी का निधन 6 जनवरी 2017 के दिन अचानक हुआ था.. आज भी उनकी मौत एक रहस्य से कम नहीं है... हम हर किसी बड़े कलाकार के जाने पर कह देते हैं यह रिक्त कभी नहीं भरेगा, लेकिन सचमुच ओम पुरी का जाना हिन्दी सिनेमा में एक युग का खत्म हो जाना है.

दिलीप कुमार 

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