'समानान्तर सिनेमा की महानायिका दीप्ति नवल'
'समानान्तर सिनेमा की महानायिका'
(दीप्ति नवल)
बचपन से ही लेखन, पेटिंग बनाने में महारत हासिल करने वाली दीप्ति नवल अभिनेत्री बनना चाहती थीं. लेकिन उनके पिता उन्हें एक पेंटर के रूप में देखना चाहते थे. विद्रोही किस्म की दीप्ति ने बचपन से ही अपनी ज़िन्दगी पर पूर्ण अधिकार था. अमेरिका में पली - बढ़ी मिस चमको (दीप्ति नवल) न्यूयॉर्क में एक टी वी शो होस्ट कर रहीं थीं, हिन्दी सिनेमा के लेखक - फ़िल्म निर्देशक ने उन्हें देखा, और अपनी फिल्म में उन्हें बतौर अभिनेत्री लेने का मन बना लिया. डेस्टिनी किसको कहाँ ले जाए कोई नहीं जानता. किसी के होने न होने से दुनिया कोई फर्क़ नहीं पड़ता. फिर भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है? ग़र दीप्ति समानांतर सिनेमा में नहीं होतीं तो क्या होता?
कला फ़िल्मों का दौर 70 के दशक से शुरू हुआ 80 के दशक दशक समानांतर सिनेमा अपने स्वर्णिम दौर में था. कला फ़िल्मों में शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल का उरूज़ अपने फलक पर था, तब कला फ़िल्मों के निर्देशकों को दोनों की डेट्स नहीं मिल पाती थीं. तब मिस चमको (दीप्ति नवल) उन फ़िल्मकारों के लिए एक उम्मीद बनकर आईं थी. दीप्ति ने कई कालजयी फिल्मों में काम किया जो उनके द्वारा निभाई भूमिकाओं के कारण आज भी अमर हैं. फिर वह 'हम पांच' हो या फिर 'साथ-साथ', 'कमला', 'चश्मे बद्दूर', 'कथा', 'अनकही' या मैं 'जिंदा हूं' जैसी फिल्में आज भी अपनी बेहतरीन अदाकारी एवं कहानी के लिए जानी जाती है.
व्यपारिक सिनेमा के ठीक समानान्तर कला फ़िल्में दर्शकों तक अपनी पहुंच बना रहीं थीं. वहीँ इसका अपना एक दर्शक वर्ग भी तैयार हो रहा था. सिनेमा की दुनिया में इसे ‘दी इंडियन पैरलल फ़िल्म मूवमेंट’ के नाम से जाना जाता है. शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल के साथ ही दीप्ति नवल भी इस मूवमेंट की अगुवाई कर रहीं थीं. तीनों की तस्वीर एक साथ स्टारडस्ट के कवर में छापी गई थी. उसमे 'न्यू वेव ग्लैमर क्वीन्स'हेडलाइन थी. स्मिता पाटिल, एवं दीप्ति नवल दोनों ने एक साथ केतन मेहता की एक कला फिल्म मिर्च मसाला में काम किया, लेकिन दोस्ती आज भी याद की जाती है. सभी जानते हैं स्मिता पाटिल 31 की उम्र में असामयिक दुनिया छोड़ गईं. दीप्ति नवल ने एक साक्षात्कार में कहा "स्मिता जैसे लोग कम समय के लिए आते हैं, लेकिन दुनिया में अपने हस्ताक्षर छोड़ जाते हैं, मैं स्मिता पाटिल को बहुत मिस करती हूं, हमेशा उनसे खुद को रिलेट कर पाती थी".
दीप्ति ने स्मिता के लिए भी एक कविता अंग्रेज़ी में लिखी थी. 'स्मिता और मैं' उस रचना में दीप्ति ने लिखा "मैं अक्सर स्मिता से तब मिलती थीं, जब हमें साथ में फ्लाइट लेनी होती थी, किसी सफ़र में दूर कहीं एक साथ निकलना होता था. ये शायद इस बात का प्रमाण है. मैंने स्मिता ने जीवन महत्वपूर्ण सफ़र एक साथ बिताया. इस फरेबी दुनिया में हमारी मित्रता प्योर थी. दीप्ति लिखती हैं- "मैं स्मिता के साथ वो आखिरी फ्लाइट लेने वाली थीं, लेकिन मुझे पता नहीं था यह आखिरी सफ़र है.... स्मिता से पूछा था कि- 'क्या जीवन जीने का कोई और तरीका नहीं हो सकता? स्मिता कुछ देर चुप रहीं फिर कहा- 'नहीं ज़िन्दगी जीने का कोई और तरीका नहीं हो सकता'. दीप्ति, स्मिता की दोस्ती कमाल थी, वहीँ ज़िन्दगी जीने, महसूस करने का अंदाज़ दोनों का मेल खाता था, कहते हैं कोई किसी की भरपाई नहीं कर सकता, लेकिन फिर भी स्मिता पाटिल का अक्स दीप्ति में देखा जा सकता है.
श्याम बेनेगल की फ़िल्म जुनून दीप्ति की पहली फ़िल्म थी. जिसमें लम्बी स्टार कास्ट थी, जिसमें इनका छोटा सा रोल था..अव्वल ऐसे रोल लोगों के जेहन में आएं जैसी बात नहीं होती. बतौर लीड ऐक्ट्रिस फ़िल्म 'एक बार फिर' एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर विषय पर बनी थी. उस दौर में इस फिल्म का सब्जेक्ट कितना बोल्ड रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. बेहद कठिन ‘कल्पना’ किरदार के बारे में दीप्ति ने एक बार कहा - पहली बार ऐसा था, कि लीड एक्ट्रेस, पुरुष दर्शकों की फेंटेसी को संतुष्ट करने के लिए नहीं बल्कि इस फ़िल्म में कल्पना का किरदार हिन्दी सिनेमा में महिलाओ के लिए मील का पत्थर था'. ‘कानून क्या करेगा’ फ़िल्म के बाद दीप्ति पैरलल सिनेमा का सशक्त हस्ताक्षर बन गईं थीं. उनके इस तरह के सिनेमा से ही शुरुआत हुई उन दिनों जिस तरह की मसाला फ़िल्में आ रही थीं, उन सबके बीच उनकी यात्रा कहीं ज़्यादा रोचक रही थी. दीप्ति ने ऐसी फ़िल्में कीं जैसे, ‘कमला’ , ‘मैं ज़िन्दा हूं’ ‘पंचवटी’ और ‘अनकही’.... अनकही एक कालजयी फिल्म है... अनकही फिल्म में अपनी भूमिका को समझने के लिए उन्होंने एक बार मेंटल हॉस्पिटल का रुख किया, इससे पहले उन्होंने कभी मानसिक हस्पताल अन्दर से देखा नहीं था, जाहिर है कोई ऐसा हस्पताल देखने थोड़ा ही जाता है.
फिर इसी फिल्म के दस साल बाद वो मानसिक हस्पताल में दो हफ्ते तक रहीं, उस अनुभव ने उनका जीवन बदल कर रख दिया. उनको पागलखाने से बाहर अक्लमंद लोगों की दुनिया सतही और काल्पनिक लगने लगी.... वहां दीप्ति ऐसे लोगों, ऐसी औरतों से भी मिलीं जो पागल नहीं थे, लेकिन जिनके परिवार वालों ने उन्हें वहां डाल दिया था, क्यूंकि परिवार में अब उनकी कोई ज़रूरत नहीं थी. शायद इसीलिए इस क्रूर दुनिया मतलब का संसार कहा गया है, जहां उपयोगिता खत्म हो जाने पर महत्ता ही बदल जाती है. इस पूरे अनुभव को बाद में दीप्ति ने एक अंग्रेज़ी कविता के माध्यम से व्यक्त किया- जनकारी के लिहाज से 'होशमंदी की बदबू' इस रचना को पढ़ा जा सकता है.
आज कई साल बीत जाने के बाद भी लोगों को 'मिस चमको' याद है. कहानी, एवं अभिनय कालजयी हों तो की गहरी छाप छोड़ जाती है. दशकों बीत जाने के बाद भी किसको पता है कि ‘चश्मे बद्दूर’ में दीप्ति नवल के किरदार का नाम नेहा था!! किसी को भी याद नहीं होगा, लेकिन आज भी ‘मिस चमको’ सुनते ही आंखों के सामने करीने से साड़ी पहने हुए, हाथ में चमको वाशिंग पाउडर पकड़े हुए दीप्ति नवल का किरदार जेहन में ताज़ा हो जाता है. किरदारों का असर कितना गहरा होता है, दीप्ति का मिस चमको' किरदार उदाहरण है..
कालजयी ‘चश्मे बद्दूर’ के तीन दशक बाद, 2013 में इसका रीमेक किया गया, 2013 की रीमेक फ़िल्म को डायरेक्ट किया था डेविड धवन ने और दीप्ति नवल वाला किरदार तापसी पन्नू ने निभाया था.... रीमेक रिलीज़ होने वाली थी, इत्तेफ़ाक से हुआ यह कि डेविड वाली ‘चश्मे बद्दूर’ की रिलीज़ के साथ-साथ पुरानी, सईं परांजपे वाली ‘चश्मे बद्दूर’ फ़िल्म भी री-रिलीज़ होने वाली थी... इसी दौरान प्रेस कॉन्फ्रेंस को सोसायटी के लोगों ने फिल्म शूटिंग समझ कर जबरन प्रेस कॉन्फ्रेंस को रोक दिया. दीप्ति को बेवजह शर्मिंदा होकर वो घर छोड़ना पड़ा था. जहां उन्हें रहते हुए 30 साल से ज़्यादा हो गए थे. इस पूरे विषय पर पर दीप्ति ने बताया था कि- 'मैं तब उस अपार्टमेंट में रहने आई थी, जब वहाँ कोई रहने की हिम्मत नहीं कर सकता था. मैंने पहले भी कई पार्टियां और प्रेस कॉन्फ्रेंस वहां की हैं. ऐसा पहली बार था कि मुझे ऐसा महसूस करवाया गया कि मैं एक वैश्यालय चला रही हूं.. मैंने अपनी ज़िंदगी में इतनी शर्मिंदगी कभी नहीं उठाई. जब ये स्टोरी ब्रेक हुई तो इसकी हेडलाइन विचित्र थी, - मैं कोई प्रॉस्टिट्यूट रैकेट नहीं चला रही हूं: इस खबर को प्राइमरी सोर्स मानकर कई अख़बारों और वेब न्यूज़ पोर्टल्स ने खबर चला दी और इस दौरान कई पोर्टल्स ने पूरी खबर पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाई...अगले कुछ दिनों तक ये खबर चलती रही कि दीप्ति पर सोसायटी वालों ने आरोप लगाया है कि वो सेक्स रैकेट चलाती हैं. यह गोदी मीडिया से पहले की बात है... दौर कोई भी रहा हो, मीडिया का स्वरुप एक जैसा ही निर्मम था. दीप्ति नवल की पुस्तक 'अ कंट्री कॉल्ड चाइल्डहुड' पढ़ते हुए आभास हुआ, उनकी लेखनी, दार्शनिक अंदाज़ अद्भुत है..
अजनबी
अजनबी रास्तों पर
पैदल चलें
कुछ न कहें
अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए
सवालों के दायरों से निकलकर
रिवाज़ों की सरहदों के परे
हम यूँ ही साथ चलते रहें
कुछ न कहें
चलो दूर तक
तुम अपने माजी का
कोई ज़िक्र न छेड़ो
मैं भूली हुई
कोई नज़्म न दोहराऊँ
तुम कौन हो
मैं क्या हूँ
इन सब बातों को
बस, रहने दें
चलो दूर तक
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें.
दिलीप कुमार
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