समानान्तर सिनेमा की सशक्त हस्ताक्षर
समानान्तर सिनेमा की सशक्त हस्ताक्षर
(शबाना आज़मी)
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लेट स्मिता पाटिल जी,एवं शबाना आज़मी जी मेरी ऑल टाइम फेवरेट हैं. कारण रहा कि यह एक लाइन बचपन से ही मेरे दिमाग में घर कर गई थी.
Dark Complexion Is The Most Attractive And Your Talent Matters More Than Looks.
सिनेमा में सत्तर का दशक ग्लैमर, चकाचौंध विशुद्ध व्यापारिक फ़िल्मों का दौर था. जहां कलाकारों में बोलने, के साथ अच्छा दिखने का अपना एक अलग ही महत्व था. समानांतर सिनेमा में कैरेक्टर रोल वाली फ़िल्मों में जान डाल देने वाले निर्देशक श्याम बेनेगल, वासु भट्टाचार्य , ऋषिकेश मुखर्जी, मृणाल सेन, आदि व्यापारिक फ़िल्मों के दौर में समानांतर पृष्टभूमि पर फ़िल्में बना रहे थे. श्याम बेनेगल भी भारतीय सिनेमा को कला सिनेमा के रूप में गढ़ने वालों में एक प्रमुख स्तंभ थे. मूलत:श्याम बेनेगल अपनी फ़िल्मों में गांव, कस्बे, मध्यमवर्गीय परिवारों की सिकुड़न के साथ दबा हुआ माहौल प्रदर्शित करते थे. श्याम बेनेगल ने फिल्म 'अंकुर' बनाने के लिए कास्टिंग शुरू की उन्होंने उस दौर की प्रमुख अभिनेत्रियों से उस रोल के लिए ऑफर दिया, किसी ने भी वह फिल्म करने के लिए इच्छा नहीं जताई, क्योंकि ऐसे रोल करते हुए दबाव सर्वोत्तम अभिनय का होता है, वहीं पैसे कम मिलते हैं.
श्याम बेनेगल की कई अन्य फिल्मों की तरह, 'अंकुर' भारतीय कला फिल्मों की शैली से संबंधित है, या अधिक सटीक रूप से, भारतीय समानांतर सिनेमा यह कथानक एक सच्ची कहानी पर आधारित है, जो मूल रूप से 1950 के दशक में हैदराबाद में घटित हुई थी. लगभग पूरी तरह से लोकेशन पर फिल्माया गया था. चूंकि शबाना आज़मी शहर में पली बढ़ी थीं, जिनके लिए अंकुर फिल्म में उस नायिका को साड़ी पहनकर कई बार उकड़ू बैठना था. जिस किरदार को शबाना आज़मी निभाने वाली थीं. किसी भी शहर की पली बढ़ी शिक्षित लड़की के लिए यह सहज नहीं था. फिर भी उनके पास एक सहज दृष्टीकोण था, एवं श्याम बेनेगल ने कहा कि कोई भी कार्य अभ्यास से किया जा सकता है. और वो किरदार शबाना आज़मी ने बहुत ही शानदार तरीके से निभाया.
श्याम बेनेगल निर्देशित कला फिल्म 'अंकुर'से शबाना आजमी ने हिन्दी सिनेमा में प्रभावी पदार्पण किया. पहली ही फिल्म 'अंकुर' में कालजयी अभिनय करने वाली शबाना को शबाना ने खुद ही गढ़ा था. चूंकि शबाना आज़मी की साहित्यिक, एवं कला पृष्टभूमि थी. उनकी माता थियेटर में अभिनय करतीं थीं वहीँ उनके पिता मशहूर लेखक, शायर कैफ़ी आज़मी से उनको एक साहित्यिक एवं समानांतर दृष्टिकोण विरासत में मिला. उनकी माँ शौक़त आज़मी, ग्रेट पिता कैफ़ी आज़मी ने बचपन से ही उन्हें मानवता के उच्च स्तरीय संस्कार दिए, जिन्होंने उनके व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ी है.
किसी भी कलाकार, रंगकर्मी को लिखना - पढ़ना बहुत ही आवश्यक है, पढ़ते हुए समाज को देखने से पहले खुद को देखना अति आवश्यक होता है. उससे भी ज्यादा आवश्यक है कि उसको महसूस किया जाए. कला में इमेजिनेशन का बहुत ही बड़ा रोल होता है. शबाना आज़मी ने जब आँखे खोलीं तो उनके आस-पास का माहौल बहुत ही बौध्दिक पढ़ने - लिखने से कहीं ज्यादा था. वो अपने घर में साहिर लुधियानवी, मजरुह सुल्तानपुरी, हसरत, फ़िराक़, जोश मालीहा बादी, बेगम अख्तर, आदि साहित्यकारों से उनका मिलना जुलना बहुत ही आम था, चूंकि उनके पिता कैफ़ी आज़मी भी साहित्यकार थे, तो उनके घर आना - जाना लगा रहता था.
दुनिया में इतनी ग़रीबी क्यों है दुनिया में इतनी असमानता क्यों है? दुनिया इतनी सरल नहीं है जितनी दिखती है. एक साहित्यकार समाज का पथप्रदर्शक होता है फिर भी वो इतनी गुरबत में क्यों जीता है? शबाना के इतने बड़े मशहूर रायटर की बेटी होते हुए भी उन्होंने मुश्किल के दिन देखे तो वो खुद बताती हैं कि मैं अक्सर अपने वालिद से पूछती थी, जो बालमन में मेरे उपजते थे. "आप इतने बड़े लेखक हैं क्या लेखक भी गरीब होता है?? क्या उसको उसका मेहनताना नहीं मिलता? आदि आदि सवाल शबाना आज़मी को बचपन से ही परेशान करते थे. अभिनय कला में आप जो भी परिस्थियों को जीते हुए बड़े होते हैं फिर उनको आप अपनी कला के माध्यम से प्रदर्शित करें तो आपके लिए बहुत मुश्किल नहीं होता. यही कारण है कि समानान्तर सिनेमा में अपनी शबाना आज़मी ने अमिट छाप छोड़ी है.
अपने पिता कैफ़ी आज़मी को शबाना आज़मी दिनभर घर में लिखते - पढ़ते हुए देखती थीं, तो सवाल करतीं थीं, कि आप दिनभर घर में रहते हैं आप काम क्या करते हैं? क्यों कि भारतीय पिता अपने ऑफिस जाते हैं अपने काम पर जाते हैं. टाई लगाकर अच्छे कपड़े पहनकर जो ऑफिस जाते हैं, और शाम को घर लौटते हैं,वही काम करते हैं. पिता से सवाल करती कि आप क्यों नहीं जाते? उनके पिता कहते लिखना पढ़ना यही मेरा काम है, जो कर रहा हूं तो उनका सवाल होता कि क्या आपको पैसे नहीं मिलते? पिता बोलते मिलते हैं, लेकिन उतने नहीं जिससे पारिवारिक जीवन अच्छा बीते..... यह एक ऐसा सवाल था जो शबाना आज़मी को परेशान करता की साहित्यकार कितना कुछ समाज़ के लिए छोड़ता है शायद सब कुछ, बदले में उसे यह सुनना पड़ता है कि आप परिवार के भरण - पोषण के लिए क्या करते हैं! यही समाज की एक विडंबना है, कि साहित्यकार की समाज़ पर वह पहुंच नहीं है जो होना चाहिए. चने खाकर रहने वाले, फटेहाली में बड़ी बातेँ करना वाला ही साहित्यकार होना चाहिए. आदि सवालों ने शबाना आज़मी को गढ़ा और क्या खूब गढ़ा. बाद में शबाना आज़मी ने स्कूल में इंग्लिश में शायरी पढ़ना शुरू किया तो, टेनिसन, साईमन, वॉलमियन आदि से वाकिफ़ हुई तब अंदाजा हुआ कि अच्छा मेरे पिता भी ग्रेट काम कर रहे हैं. इस सब का उनके बोलने आदि में विशिष्ट झलक दिखती है, चूंकि दिखने से ज्यादा अभिनय में संवाद अदायगी का अहम रोल होता है.
हिन्दी सिनेमा की सबसे बहुमुखी प्रतिभा की खान एक्ट्रेस शबाना आज़मी ने 1974 में फिल्म 'अंकुर' से अपनी शुरुआत करने के बाद, दशकों से ऑडियंस का मनोरंजन कर रही हैं. उन्होंने अब तक 100 से भी अधिक फिल्मों में काम किया है. लेकिन अक्सर उन्होंने ऐसे किरदारों को चुना जो समय से बहतु आगे थे. हर वो किरदार आज भी जीवंत महसूस होते हैं. भूमिकाओं की उनकी बोल्ड च्वाइस ने कुछ यादगार फिल्में दी हैं.
अभिनय एवं रंगमंचन में इमेजिनेशन, के साथ ऑब्जर्वेसन का खास रोल होता है, कई बार ऐक्टर जो करता है, वो बता देता है कि मैंने यह किया. अभिनय में बिना बताए अपनी हरक़त से आप बता सकते हैं कि देखो मैं तुम्हें देख रहा हूँ. किसी से प्रभावित होना एवं अपना अनुभव जीना दोनों में फर्क़ होता है. इस लकीर से बाहर आना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन शबाना आज़मी इस लकीर के उस पार खड़ी दिखाई देती हैं. उनका अभिनय कौशल वेदना में भर जाने के बाद भी छलकता नहीं है. अपितु फ़ूट पड़ेगा, ऐसी कसक पैदा करता है. यह बहुत मुश्किल काम होता है, कि आप अपनी भावनाओं को उड़ेल भी दें, और भाव प्रस्तुत कर दें. शबाना आज़मी की यह कला उनको ही सूट करती है जो अद्भुत है.
शबाना आज़मी अर्थ, स्पर्श, मासूम, मंडी, बाजार, पार, निशांत, जैसी कला फ़िल्मों में अपना कालजयी अभिनय करते हुए संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर चुकी हैं. अपने दौर में अव्वल अभिनेताओं में संजीव कुमार नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, नाना पाटेकर, गिरीश कर्नाड, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर आदि के साथ उनकी यादगार जोड़ी बनी. कला फ़िल्मों में अगर शबाना आज़मी, एवं आदि इन नामों अगर अलग कर दिया जाए तो शायद मार - दहाड़ के अलावा हिन्दी सिनेमा में पढ़ने - लिखने लायक शायद ही कुछ बचे. समानान्तर सिनेमा की फ़िल्मों में उनके अभिनीत चरित्रों में विविध रंग हैं, जिनमे इंसानी जिंदगियां झलकती है, जिन्हें शबाना आज़मी ने अपनी कालजयी अदाकारी से जीवंत कर दिया.
जिंदगी भी अजीब है न...जब आप जीना चाहते हैं, तो जीने नहीं देती...और जब जीने की ख़्वाहिश छोड़ देते हैं, तब कहती है जियो” ये बेमिसाल डायलॉग शबाना आज़मी का है. इस डायलॉग को उन्होंने फिल्म हनीमून ट्रेवल्स प्राइवेट लिमिटेड में बोला था. अपने बोलने एवं इंसानी जिंदगी को पर्दे पर उकेरने में माहिर शबाना आज़मी अपनी एक अलग ही दुनिया की कलाकार मालूम होती हैं. हिन्दी सिनेमा में कदम रखते ही इस अभिनेत्री ने दर्शकों के दिलों में अपनी जगह बना ली. अपनी पहली फिल्म के लिए ही उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया. शबाना आज़मी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण भारतीय समानांतर सिनेमा को एक शानदार आयाम दिया. उनको अपने बेह्तरीन अभिनय के कारण पांच बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया. शबाना आजमी ने अपने दमदार अभिनय को एक सीख के साथ प्रस्तुत किया. वो हर किस्म के किरदार में शामिल हैं. जिसमें लेस्बियन जैसे किरदार को भी करने से भी उन्हें कभी कोई हर्ज नहीं रहा है. शबाना आज़मी अपनी अभूतपूर्व सिनेमाई यात्रा में अमरत्व प्राप्त कर चुकी हैं..शबाना आज़मी का सबसे बड़ा कमाल यह रहा है कि वो जितना नसीरुद्दीन, ओम पुरी, के साथ सहज अभिनय करतीं थीं, उतना ही राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, शशि कपूर के साथ भी सहज होती थीं... अपने आचरण से उच्च मानवीय जीवन जीने वाली शबाना आज़मी के जन्मदिन पर याद आया उनका फिल्मी सफर.......
दिलीप कुमार
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