कल्ट फ़िल्मों की ज़मीन कार्पोरेट के हाथ में है!!

कल्ट फ़िल्मों की ज़मीन कार्पोरेट के हाथ में है ! 

पिछले हफ्ते मैंने लिखा था कल्ट फ़िल्मों की ज़मीन कहां गायब हो गई! अभी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा हुई, द कश्मीर फ़ाइल फिल्म को एकता के लिए नरगिस दत्त अवॉर्ड मिला. इसी फिल्म की ऐक्ट्रिस पल्लवी जोशी को सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला, कृति सैनन को मिमी फिल्म के लिए बेस्ट ऐक्ट्रिस, एवं आलिया भट्ट को गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म के लिए बेस्ट ऐक्ट्रिस का अवॉर्ड मिला...

उधम सिंह फिल्म को बेस्ट हिन्दी फिल्म का अवॉर्ड मिला, रॉकेट रॉकेट्री को भी बेस्ट फिल्म का पुरस्कार मिला है, पंकज त्रिपाठी को सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला, वहीँ पुष्पा फिल्म के हीरो अल्लू अर्जुन को बेस्ट एक्टर का राष्ट्रीय सम्मान मिला... सभी को बधाई. 

अभी हाल-फिलहाल पिछले हफ्ते मैंने लिखा था, कल्ट क्लासिक फ़िल्मों की ज़मीन कहाँ गायब हो गई? बहुतेरे लोगों ने जवाब दिया था, लेकिन आज मैं बताता हूं, कल्ट फ़िल्मों की ज़मीन कहाँ गुम हो गई! या कहीं गिरवी रखी हुई है. 

कल्ट फ़िल्मों की ज़मीन भारत सरकार के पास है, लेकिन उसे देखने का जिम्मा सरकार ने फिल्मी विद्वानो की जगह, बाज़ार को सौंप रखी है, और ऐसा नहीं है, कि इसी सरकार ने कल्ट फ़िल्मों की ज़मीन कार्पोरेट को सौंप दी है, देखा जाए तो पहले से ही सूरते हाल यही है! वैसे बाजार के अपने मानकों का गुणवत्ता पर नहीं बिकने के मार्जिन पर ध्यान होता है. राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले अच्छी बात है, विद्वान लोगों ने अवलोकन किया होगा, लेकिन हम पूछ तो सकते हैं, कि उन विद्वान लोगों की बुद्धी कहां थी? जब आपने अवलोकन किया! 

अब कोई कल्ट फ़िल्मों को बनाकर आर्थिक रूप से क्यों जोखिम उठाने की जरूरत करेगा! जबकि उसे पता है कि कल्ट फिल्म अब कौन देखेगा! अब उसके सीमित दर्शक हैं, क्योंकि कल्ट फिल्म देखने के लिए संवेदना चाहिए, अब हमारा समाज कितना संवेदनशील है? सतहीपना हमेशा प्रासंगिक रहा है लेकिन अब तो उसका स्वर्णिम दौर चल रहा है. जब सतहीपन ही प्रासंगिक है, और वही साराहा जाएगा, तो कोई फ़िल्मकार क्यों कल्ट फ़िल्मों को बनाने की ज़हमत उठाए? 

एक फिल्म आई थी 'जय भीम' एक तो अधिकांश एजेण्डा वाली फ़िल्में मुझसे झेली नहीं जाती, इसलिए मैंने भी इस फिल्म को न देखने का मन बना लिया था, खूब चर्चित थी. लिहाज़ा मैंने 'जय भीम' फ़िल्म की कहानी का अध्ययन किया कि यह गरीबो के सामाजिक शोषण पर बनी है, यह फिल्म विदेशी मीडिया में छाई हुई थी... मैंने भी य़ह फिल्म देखी, फिल्म देखते हुए मैं कई बार भावुक हुआ, आँखे भी नम हुईं, कई बार दुःखी हुआ कि फिल्म बनाने वाला फ़िल्मकार एवं मेरे जैसा दर्शक जो उच्च वर्ग का होने के कारण कई बार असहमति पर गालियाँ भी खाता है, लेकिन संवेदना हैं, तो मौके पर फ़ूट पड़ती है, फिर बोध होता है कि कुछ लोग हैं, जो इस दुनिया को आदर्श बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, जैसे जय भीम का फ़िल्मकार उसका संवेदनशील हीरो सूर्या एवं मेरे जैसे दर्शकों का एक संवेदनशील वर्ग.. जो सिर्फ़ अमन, चैन को प्राथमिक मानता है. 

जय भीम फिल्म देखकर एक संवेदनशील इन्सान अंदाजा लगा सकता है, कि मानवीय समाज को कुछ लोग कैसे नुकसान पहुंचाते हैं, और फिल्म देखकर क्यों समझना हैं. हम सब आस-पास भी तो देखते हैं, सिनेमा तो समाज का आईना होता है, जैसा समाज होता है, वैसे वो परोस देते हैं..दुःख जब होता है, जब सामाजिक फ़िल्मों को नेशनल अवॉर्ड की तालियों के बीच पैसे की चकाचौंध पर दरकिनार कर दिया जाता है, लेकिन मासूम लोग नहीं समझ सकते, ऐसी फ़िल्मों को अवॉर्ड देकर सरकार सामाजिक सच्चाइयों को पुख्ता थोड़ा ही करना चाहेगी! और पर्दों में गरीबी ढंकने वाली सत्ता तो कभी भी नहीं समझ सकती. 

याद रखिए किसी भी फिल्म को महान बाद में कहा गया है, क्योंकि ऐसी कहानियां जल्द असर नहीं करतीं, कल्ट फ़िल्में बनती रहीं हैं, बनती रहेंगी, लेकिन याद रखिए.. कल्ट फ़िल्में तात्कालिक रूप से कभी न सराही गईं हैं, और न साराही जाएंगी... जब - जब पुष्पा जैसी फिल्म के विलेन को नायक मनाकर बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड दिया जाएगा तब तक हमारे समाज में अपराधीकरण बढ़ेगा... कायदे से पुष्पा के विलेन को बेस्ट नेगेटिव अवॉर्ड, वहीँ उधम सिंह , या रॉकेट रॉकेट्री, या जय भीम के नायक को बेस्ट एक्टर का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार देना चाहिए था... ख़ैर हम अपने अतीत पर गर्व करने या विमर्श करने के लिए कुख्यात हैं, वैसे भी हमारे पास वर्तमान की सच्चाई समझने की सलाहियत न कभी थी, और न कभी आएगी... 

दिलीप कुमार

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