कल्ट फिल्म प्यासा रहती कायनात तक गुरुदत्त साहब की गवाही देती रहेगी
"प्यासा गुरुदत्त साहब की गावही देती है"
गुरुदत्त साहब का नाम जेहन में आते ही आता है, एक अधूरापन, कुछ टूटा बिखरा हुआ... सिनेमा का वो स्वर्णिम दौर... कहते हैं प्रतिभा उम्र की पाबंद नहीं होती...गुरुदत्त साहब के लिए यह बात उस दौर में सटीक बैठती थी.. गुरुदत्त साहब लगभग सभी से उम्र में छोटे ही थे, लेकिन सभी बड़े - बड़े धूमकेतुओ के बीच गुरुदत्त साहब सूर्य की भांति चमकते थे. सभी गुरुदत्त साहब की पर्सनैलिटी, उनकी दार्शनिकता के कायल थे. गुरुदत्त साहब अपनी रची गई सिनेमाई दुनिया के लिए पूरी दुनिया में आज भी चर्चित हैं..
गुरुदत्त साहब के बिना समस्त विश्व सिनेमा का इतिहास अधूरा है. पूरे जहाँ में लगभग हर फ़िल्म एवं पत्रकारिता संस्थान में जहाँ सिनेमा की तकनीकी शिक्षा दी जाती है. वहाँ गुरुदत्त साहब की चार क्लासिक कल्ट फ़िल्मों को टेक्स्ट बुक का मुकाम हासिल है. गुरुदत्त साहब की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फ़िल्में हैं, लेकिन आज ज़िक्र होगा फिल्म 'प्यासा' का...
प्यासा भारतीय सिनेमा की टॉप 5 फ़िल्मों में शुमार है, वहीँ दुनिया की टॉप 10 फ़िल्मों में आज भी गिनी जाती है..
गुरुदत्त साहब ने आज़ादी कुछ ही सालों बाद अपनी फिल्म के ज़रिए समाज के एक-एक हर्फ को खोलकर रख दिया.. इस महान फिल्म प्यासा ने समाज एवं सिनेमा के सामने कई सवालों को खड़ा कर दिया था.. जिन प्रश्नों के उत्तर आज तक नहीं मिले.. प्यासा फिल्म ने हिन्दी सिनेमा में वैचारिकी की ज़मीन तैयार की.. हिन्दी सिनेमा में एक क्रांति आई... इसी फिल्म के जरिए ही गुरुदत्त की तिलिस्मी शख्सियत का ऑरा खड़ा हुआ, जो आज भी बढ़ रहा है. गुरुदत्त साहब के बारे में कहा जाता है कि वह समय से आगे की सोच रखने वाले फ़िल्मकार थे.. गुरूदत्त साहब की फिल्में सिर्फ फिल्म भर नहीं होती थीं, एक अतृप्त कलाकार की बैचेनी और छटपटाहट में भी एक संपूर्ण और सर्वोत्तम कलाकृति होती थीं. उनकी फ़िल्मों से समाज प्रभावित हुआ..
"प्यासा" संघर्षरत कवि विजय (गुरुदत्त) की कहानी है, जो श्रेष्ठ होते हुए भी अपनी कृतियों को प्रकाशित नहीं कर सके. विजय की रचनाएँ अमीरों के अत्याचारों का विरोध व ग़रीबों के समर्थन में हैं, लेकिन प्रकाशकों ने उनका महत्व न समझा. यहां तक कि स्वयं उनके भाई उनके लेखन को बेफिजूल ही समझते हैं. गुस्से में उनकी रचनाएं कबाड़ के भाव बेंच देते हैं. संयोग से ये कालजयी रचनाएं तवायफ गुलाबो (वहीदा रहमान) खरीद लेतीं है. और गुनगुनाती हैं, ‘गुलाबो’ ऐसी तवायफ है, जिसकी सुबह ईश्वर के प्रार्थना से नहीं बल्कि शायर के नज्मों से होती थी...... तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम
हम ग़मज़दा हैं लाएं कहां से ख़ुशी के गीत
समाज हमेशा से ही अपने एक ढर्रे पर चलता है, अतः इन्हीं ढर्रे पर न चलते हुए टूटा हुआ शायर विजय (गुरुदत्त साहब ) घर छोड़कर हिज्र कर जाते हैं. इस अय्यारी में विजय का अधिकांश समय सड़कों पर ही गुजरता है.. संयोग से गुलाबो (वहीदा रहमान) की मुलाकात विजय की दोस्त मीना (माला सिन्हा) से हुई, जिसने विजय की गरीबी से त्रस्त होकर एक प्रकाशक घोष बाबू (रहमान) से शादी कर ली है, मीना अपनी शादी से संतुष्ट नहीं है, वो वापस विजय के पास जाना चाहती है, लेकिन दुनिया की सच्चाई जान लेने के बाद विजय इसके लिए राजी नहीं हुए.
मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए
अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम
गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से
पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम
कहानी के एक पडाव में विजय को दुर्घटना में चोट लगती है और संयोगवश टूटे हुए शायर को मृत समझ लिया जाता है..
गुलाबो (वहीदा रहमान) अपने कुछ प्रभावशाली मित्रों की सहायता लेकर टूटे हुए शायर विजय (गुरुदत्त साहब) की रचनाएं प्रकाशित करा देती है. कवि विजय की रचनाएं प्रकाशक घोष इस जोम से प्रकाशित करता है कि एक टूटे हुए तिलिस्मी शायर विजय की मृत्यु से उपजी सहानुभूति का लाभ उठाकर खूब धन अर्जन होगा. विजय के भाई (महमूद) घोष के पास जाते हैं, और अपने भाई के नाम पर पैसे हथियाने के घृणित प्रयास करते हैं.. ट्विस्ट यह भी है कि वो टूटा हुआ शायर ज़िन्दा है.. उसका इलाज़ एक मानसिक हस्पताल में चल रहा है... अनायास एक दिन नर्स से अपनी ही रचना सुन कर तथा अपनी प्रसिद्धि का समाचार जान कर विजय का स्वास्थ्य समान्य हो जाता है.. अफ़सोस विजय का कोई यकीन नहीं करता, कि यही विजय है, और उसे पागलों वाले रूम में ही रखा जाता है... घोष (रहमान) को जब यह पता चलता है तो वह विजय के मित्र श्याम व भाईयों को अपने रचे षड्यंत्र में शामिल कर लेता है तथा सब मिल कर उसको पहचानने से मना कर देते हैं...... फिर शुरू होती है विजय की दुनिया के सामने अपना अस्तित्व साबित करने की, जद्दोजहद..
कोई भी निर्देशक जब फिल्म बनाता है, तो वो सोचकर चलता है कि एक अच्छी कहानी होगी, जो लोगों के दिमाग में अमिट छाप छोड़ जाएगी.. तब वो कथानक के साथ फिल्म का क्लाईमेक्स गढ़ने में सबसे ज्यादा समय लेता है, एवं अपनी फिल्म को कल्ट बनाने की ज़मीन यहीं तैयार होती है.
गुरुदत्त साहब प्यासा के क्लाइमेक्स के लिए याद किए जाते हैं.
प्यासा' का क्लाइमेक्स का संवाद, अभिनय और फोटोग्राफी निर्देशन उत्कृष्टता का संगम है.. साथ ही बेहतरीन गीत, संगीत भी कालजयी हैं... प्यासा फिल्ममेकिंग की दुनिया में पूरा का पूरा सिलेबस है. वहीँ प्यासा का क्लाईमेक्स भी एक मुक्कमल पुस्तक है..
ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवाँ ज़िन्दगी के
कहाँ हैं, कहाँ है, मुहाफ़िज़ ख़ुदी के
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
होता यह है कि टूटे हुए शायर के भाई एवं उनकी प्रेमिका मीना के पति प्रकाशक घोष चाहते हैं, कि विजय दुनिया के सामने मरा ही रहे, तो आर्थिक लाभ होगा.. जहां गुलाबो(वहीदा रहमान), प्रकाशक की पत्नी विजय की प्रेमिका मीना भी उसी सभागार में मौजूद हैं, जहां मृत शायर विजय की याद में एक कार्यक्रम रखा जाता है.. खचाखच भरे सभागार में मंच से विजय की महानता के गुण गाए जा रहे हैं. जिस टूटे हुए शायर विजय (गुरुदत्त साहब ) को जमाने ने ठुकरा दिया था, उसी को मृत समझकर यही क्रूर दुनिया... सर आँखों पर बैठाने के लिए उतावली है.. तब ही अचानक धीरे से उस द्वार पर खड़ा विजय कुछ कहता है.. और आवाज तेज होती जाती है. सभागार में बैठे हुए सभी लोगों को नजर घूम जाती है, रोती हुई गुलाबो के चेहरे पर एक खुशी आ जाती है, वहीँ कॉलेज के दिनों की प्रेमिका मीना भी अपने पूर्व प्रेमी को जिंदा देखकर खुश हो जाती है, जो अपने पति की घृणित चाल से गुस्से में है..
सभी की बनी बनाई स्क्रिप्ट वहाँ बिगड़ जाती है, जब विजय उसी सभागार में पहुंच जाते हैं.. उस हॉल के द्वार पर ऊपर दोनों हाथ टिकाकर खड़ा विजय देख रहा है, जिस दुनिया ने मेरा कभी आदर नहीं किया, आज मेरी महानता के गीत गाए जा रहे हैं. मेरी मौत पर आंसू बहाए जा रहे हैं... तब ही विजय इस क्रूर दुनिया को आईना दिखाते हुए इस निरंकुश दुनिया को ठुकरा देने का एलान करते हैं, जिसने उसे जिन्दा रहते हुए ठुकरा दिया था..
जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया,
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया,
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया...
यहाँ इक खिलौना है इंसाँ की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
तब ही पूरे सभागार में हलचल मच जाती है, लोग पीछे पड़ जाते हैं, तब ही बड़ी नफ़ासत के साथ विजय (गुरुदत्त साहब) कहते हैं.. "मैं विजय नहीं हूं". गुरुदत्त साहब ने वीके मूर्ति के साथ मिलकर प्रकाश - कला, अभिनय, का ऐसा तिलिस्म कायम किया जो आज भी बढ़ रहा है.. साहिर साहब एवं बर्मन दादा ने बहुतेरी फ़िल्मों में एक साथ काम किया लेकिन प्यासा में साहिर के शब्दों की कारगुजारी, वहीँ बर्मन दादा का संगीत अपने आप में लाज़वाब है.. साहिर साहब ने अपनी ज़िन्दगी के बिखराव को भी गुरुदत्त साहब के कैनवास फिल्म प्यारा में शब्दों के जरिए भर दिया..
ठुकरा रहा था मुझको
बड़ी देर से जहाँ
मैं आज सब जहान को
ठुकरा के पी गया
दिलीप कुमार
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