"कोशिश फिल्म जीना सिखाती है"

गुलजार साहब की एक माइलस्टोन फ़िल्म 'कोशिश' जिसे देखते हुए बरबस आंसू बहने लगते हैं. फिल्म मनुष्यता, प्रेम का संदेश देती है.. कहते हैं कि अभिनय के प्रदर्शन के लिए संवाद अदायगी सबसे ज्यादा आवश्यक होता है, लेकिन कोशिश फ़िल्म में नायक(संजीव कुमार) नायिका (जया भादुड़ी) पूरी फिल्म में बिना बोले ही दोनों मूक बाधिर किरदारों में कालजयी अभिनय करते हुए मनुष्यता का पाठ पढ़ा गए.. 
प्यार मनुष्य को ईश्वर के द्वारा दिया हुआ एक अनूठा वरदान है. प्रेम के बिना हमारी दुनिया चल ही नहीं सकती. कोशिश फिल्म में भी केवल और केवल प्रेम है.. ऐसी फ़िल्म जिसमें हीरो - हिरोइन गूंगे बने हैं, जो बोल ही नहीं सकते.. कोशिश जैसी फिल्म को बनाने के लिए बहुत बड़ा जिगर चाहिए, क्योंकि फ़िल्मकार का अपना पहला हित तो पैसा ही होता है... 

वैसे भी किसी भी व्यक्ति में कोई कमी होती है, शारीरिक, मानसिक वो किसी से कमतर होता है, वह सब हासिल कर सकता है.. बशर्ते कोशिश करता रहे. सकारात्मक संदेश देती फिल्म जो जीवन में आपको आगे बढ़ाने के लिए गाइड करती है. कई बार व्यस्तता के कारण हम दिल की बात अपने प्रियजन को नहीं बोल पाते. कई बार ऐसा भी होता है कि हम प्रियजनों की बातें अनसुनी कर देते हैं. इसकी वजह से रिश्तों में खटास आ जाती है. वार्तालाप न होने या वार्तालाप में अनियमितता के कारण उस खटास को कैसे प्रेम में में बदला जाए प्यार - तकरार के बीच गुलज़ार द्वारा निर्देशित यह फिल्म – कोशिश – हमे परिचित कराएगी एक ऐसी कहानी से जो प्रेम के इस अनुभव को एक अलग ही नायाब ढंग से दर्शाती है.

जया बच्चन एवं हरफ़नमौला संजीव कुमार की फिल्म में कहानी है आरती (जया) और हरी चरण माथुर (संजीव कुमार) के मार्मिक रिश्ते की.... गुलज़ार के संवादों में पिरोई इस कहानी में आरती और हरी चरण के बीच के सहज प्रेम को जिसे संवादों की चाशनी ने नहीं बल्कि भावो की सरलता ने मजबूत किया है. आरती (जया भादुड़ी बच्चन) बचपन में हुए बुखार के बाद से मूक-बधिर है. वह अपनी मां दुर्गा (दीना पाठक) और निकम्मे भाई कन्नू (असरानी) के साथ मुंबई के पास बसे किसी कस्बे में रहती है. कुछ मवाली लड़को से बचते हुए आरती की टक्कर साइकिल से आ रहे हरी चरण से हो जाती है, जो आरती के जैसे ही मूक-बधिर है.साथ-साथ यह सिनेमा 1971 की आर्थिक तंगी से गुजर रहे भारतवासियों को प्रेरणा देते तीन शारीरिक असक्षम लोग आरती-हरी चरण (मूक-बधिर) और नारायण (नेत्रहीन) से परिचित कराता है, जो हर कठिनाई का सामना धैर्य और परिश्रम से करते हैं, लेकिन वो पढ़ाई करती है. शिक्षा कितनी ज़रूरी है, जो खुद अपने शारीरिक रूप से सभी से कमतर हैं, लेकिन वो शिक्षित होकर अपनी कमी के उस खाँचे को भरना चाहती है. 

फिल्म में संजीव कुमार मूक बधिर हैं, आरती एवं हरि चरण के प्रेम के भावों का चित्रण कई बार रुला देता है.. संवेदनाएं बाहर आ जाती हैं, लेकिन दोनों की जिन्दादिली देखकर एक खुशी भी होती है कि आदमी कोशिश करे तो सब कुछ कर सकता है जैसे फिल्म का नाम है. हरिचरण (संजीव कुमार) पहली मुलाकात में अपनी होने वाली सास (दीना पाठक) को जब अपना नाम इशारों के जरिए बताते हैं, हालांकि गुलजार साहब ने इस सीन को कॉमिक करना चाहा, लेकिन वो तो सबसे मार्मिक सीन के लिए याद आती है. 


आख़िरकार आरती - हरिचरण की शादी हो जाती है, दोनों मूकबाधिर होते हुए, ग्रहस्थ जीवन की कठिन परिस्थितियों में होते हुए भी धैर्य नहीं खोते.. हालाँकि शारीरिक अक्षमता के कारण दोनों अपना पहला बच्चा गंवा देते हैं.... बच्चा गंवाने के बाद आरती (जया) हरिचरण (संजीव कुमार) जब कमिटमेंट करते हैं कि अब दोनों में एक ज़न रात में जागेंगे कि कोई बच्चा न ले जाए.. उस भावुक कमिटमेंट देखते हुए दर्शको की आँखे भर आती हैं. आख़िरकार दोनों अपने बच्चे को पाल पोस कर बड़ा करते हैं, कि अचानक आरती (जया), का असामयिक देहांत हो जाता है.. अब फिल्म एक पिता के रूप में संजीव कुमार पर केंद्रित हो जाती है.. अंकल नारायण (ओम शिवपुरी) का हरिचरण (संजीव कुमार) से कोई रिश्ता भी न होते हुए उन्होंने अपना मोहसिन बना लिया था.... जो शारीरिक असक्षम होते हुए भी यादगार अभिनय किया. 

हरिचरण (संजीव कुमार) सिंगल पैरेंट्स होते हुए भी अपने बेटे को संस्कार, सद्भावना, प्रेम, समानता की शिक्षा देते हैं. फिल्म के अंत में संजीव कुमार जबरदस्त संदेश देते हैं. यह फिल्म हमेशा याद रहेगी.. इस फिल्म के लिए संजीव कुमार जी को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला था.. गुलजार साहब के द्वारा रचा गया सिनेमा अपने आप में कमाल है, लेकिन कोशिश फिल्म उनकी उत्तम सिनेमाई समझ की गवाही देती है.. हिन्दी सिनेमा में आर्ट फ़िल्मों का दौर कभी खत्म नहीं हुआ था, न होगा. स्वः संजीव कुमार हरफनमौला अभिनय उस्ताद थे. कोशिश फिल्म आज के दौर में ऐक्टिंग सीख रहे बच्चों के लिए पूरा सिलेबस, यूँ कहें एक ग्रंथ हैं तो शायद कम ही होगा. संजीव कुमार अभिनय का प्रत्येक रूप दिखाने में माहिर थे. संजीव कुमार जब जिंदा थे तब ही संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर चुके थे.
कोशिश फिल्म जरूर देखिए, संजीव कुमार को अभिनय करते हुए देखते हैं तो ऐसे महसूस होता है, जैसे हम कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं... 

दिलीप कुमार

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