'साहिबे आलम पुण्यतिथि पर याद आए'
"आँखों से तिलिस्म रचने वाला अदाकार"
पुण्यतिथि
(दिलीप साहब )
आज ही के दिन एक दुनिया से दूसरी दुनिया रुख़सत हो गया था , आँखों से तिलिस्म रचने वाला अदाकार...मेगा स्टार महान दिलीप साहब आज होते तो सौ साल के होते, हिन्दी सिनेमा के साहिबे आलम को गुज़रे हुए, दो साल से ज्यादा का वक़्त हो गया. दिलीप साहब जैसी महान आत्माएं कभी मरती हैं क्या? आज़ादी से पहले हिन्दी सिनेमा के होनहार उस्ताद जिन्होंने सिल्वर स्क्रीन को चमकना सिखाया. क्या उसकी चमक फीकी हो सकती है. हिन्दी सिनेमा की दोनों सदी में शायद ही कोई हो, जो दिलीप साहब के जादुई तिलिस्म से बच पाया हो. आज का दिन महान दिलीप साहब की पुण्यतिथि के लिए मुकर्रर हुआ था. उनके चाहने वालों के लिए तो हर रोज़ ही ईद - और दिवाली है. फिर भी अगर महान दिलीप साहब के हुज़ूर में कुछ लिखना हो तो समझ नहीं आता, क्या लिखें. सभी दिशाओं में दिलीप साहब का करिश्माई जादू बरकार है. अभिनय के सभी रंगों से हिन्दी सिनेमा चमक रहा है. यह भी सच है कि रूपहले पर्दे का एक - एक कतरा दिलीप साहब के सजदे में कुर्बान है. हर किसी ने उनसे कुछ न कुछ लिया है. जो आज भी उधार सा है. एक उधार मेरा नाम भी है, जो मेरी दादी मुझे आजीवन के लिए अभिनय सम्राट के नाम से जोड़ गईं... जब भी मुझे कोई मेरे नाम से पुकारता है, तो खुद को देखता हूं.. क्या इस नाम के काबिल हूं... फिर दिलीप साहब का आशीर्वाद समझकर खुश हो जाता हूँ.
अभिनय का पूरा का पूरा आकाशगंगा दिलीप साहब जैसे सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है. दिलीप साहब के ऊपर इतना सब कुछ लिखा गया है, बोला गया है, कि कहने - सुनने के लिए कुछ रह नहीं गया. दिलीप साहब को एक युग में नहीं समेट सकते, अभिनय में दिलीप साहब आदि - अनन्त हैं. हिन्दी सिनेमा में अभिनय के मानकों को पूरी तरह बदल कर रख दिया.
कोई भी उनके प्रभाव से बच नहीं सका. संजीदा अभिनय में दिलीप साहब को बड़े से बड़े फ़िल्मों के धूमकेतु उनको कॉपी करते हुए भी खुद को धन्य समझते हैं. जिस तरह से दिलीप कुमार ने फिल्म के डायलॉग बोलने में डूब जाना भी दिलीप साहब को ही आता है. उनके अभिनय में सब कुछ बहा ले जाने का प्रवाह.... डुबो देने वाली गहराई.... आसमाँ से भी ऊंचा उनके अभिनय का मयार है. उनकी शख्सियत के बारे में विमर्श करना भी सिने प्रेमियों के लिए तीर्थयात्रा करने जैसा है. दिलीप साहब का उदय तब हुआ जब देवानंद साहब, राज कपूर साहब जैसे धूमकेतु मौजूद थे. दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद को भारतीय फिल्म उद्योग की त्रिमूर्ति कहा जाता था. तीनों अभिनय के लिहाज से बहुआयामी थे. तीनों ने एक - एक ध्रुव को अपने - अपने अंदाज़ से परिभाषित किया. पूरा हिन्दी सिनेमा इनके पीछे - पीछे समान बांधकर पीछे चल रहा था. दिलीप साहब ने अपने जीवन में केवल और केवल अभिनय किया. यह बात उन्हें सभी से अलहदा बनाती है. अभिनय के अलावा कुछ नहीं किया. दिलीप साहब गोल्डन एरा आदर्श काल के अनोखे इंसान थे. केवल धन के लिए कुछ नहीं किया. स्वीकार फिल्मों से संन्यास लेने के बाद वे अपनी निजता की रक्षा करते हुए सम्मानपूर्वक अपने घर में जीवन व्यतीत करते थे.
दिलीप साहब का अभिनेता बनना भी केवल अभिनेता बनना नहीं था. बहुत सारे मानकों को बनना था. उनका अपनी निजी जिंदगी में किशोरावस्था में फ़िल्मों के लेकर क्या ही समझ थी. दिलीप साहब ने तो पंद्रह साल की उम्र तक कोई फिल्म ही नहीं देखा था. हिन्दी सिनेमा में उनके अभिनय जगत में आने से पहले गिनती की कुछ फ़िल्में बनी थी, उनके लिए अभिनय समझने के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी. दिलीप साहब जब फ़िल्मों में आए तो फिल्में नाटक का माध्यम थीं. हर नायक या नायिका ने भी अपने अभिनय की गहरी पकड़ होती थी. अभिनय के लिए सबसे ज्यादा नज़रिया की आवश्यकता होती है.. वो उन्होंने मौसम की हर मार खाने के बाद इजाद कर लिया था..
दिलीप साहब जब सिनेमा में आए थे, तब उन्होंने समझाया हीरोइज्म क्या होता है.. इससे पहले सिनेमा में दमदार आवाज़ से संवाद अदायगी होती थी.. दिलीप साहब ने नफासत के साथ बोलना सिखाया.. कौन भूल सकता है.. देवदास को जो चंद्रमुखी से कहता है "कौन कमबख्त बर्दास्त करने के लिए पीता है, मैं इसलिए पीता हूं कि बस साँस ले सकूं" ... इस संवाद को सुनकर दर्शकों को अपने अंदर की टूटन महसूस हुई..जब सिनेमा हॉल से बाहर निकले तो उन्हें देवदास की बेचैनी अपने अंदर महसूस हुई.. दर्शक सिनेमा हॉल से दिलीप साहब से कुछ न कुछ लेकर ही आते थे...
दिलीप साहब ने जब अपनी सिग्नेचर पॉज में संवाद बोला, और उनकी पेशानी पर उनके बालों की एक लट ने सिनेमा सहित स्टाइल के आयाम खड़े कर दिए. पीढ़ियों तक जिनके मैनरिज्म को कॉपी करते हुए सिनेमा भी जवान हो रहा था.. मुगल ए आज़म में पृथ्वीराज कपूर के सामने उनकी संवाद अदायगी देखते ही बनती है.. दिलीप साहब कहते हैं "शहंशाह पिता का वेश बदलकर आया है"... हिन्दी सिनेमा के साहिबे आलम एक ऐसे अनोखे कलाकार रहे हैं, जिनसे हिन्दी सिनेमा की दो सदियों तक शायद ही कोई ऐसा कलाकार होगा, जिस पर उनका प्रभाव न हो... सभी ने उनसे थोड़ा थोड़ा उधार ले रखा है. सिनेमा समाज का आईना होता है... 50-60 के दशक में समाज थोड़ा पिछड़ा हुआ था, उस दौर के युवा आज के बुजुर्ग हो गए, लेकिन वो भी दिलीप साहब को कॉपी करते थे... अपने बच्चों को सिनेमा से दूर रहने की नसीहत देते हुए भी धोती कुर्ता पहनने का स्टाइल भी उसी पीढ़ी ने दिलीप साहब से उधार लिया हुआ है.. हमारे दादा जी के दौर के बुजुर्गों को देखा है, जो शिक्षित थे, उनका वॉक, टॉक थोड़ा मुख्तलिफ था... दिलीप साहब के नया दौर की में उनकी धोती पहनने के स्टाइल को कॉपी करते थे.. हालाँकि कइयों ने स्वीकार किया, कइयों ने स्वीकार नहीं किया..
दिलीप साहब की आँखे सम्मोहन के नए - नए तिलिस्म रचती थीं. मौत की ऐक्टिंग करते हुए जब पर्दा गिरता तो दर्शकों को लगता शायद दिलीप साहब सचमुच मर गए.. इसी ऐक्टिंग ने उन्हें हिन्दी सिनेमा का मेथड ऐक्टर बना दिया. मेथड ऐक्टिंग ऐसी की उन्हें खुद भी अवसाद में धकेल दिया.. फिर ऐसे ऐसे कॉमिक रोल करे कि लगता ही नहीं कि ये वही देवदास है.. जिसे देखते हुए बरबस दर्शकों के आंसू बह पड़े थे..
दिलीप साहब के बारे में इतना कुछ लिखा गया है, इतना कुछ पढ़ा गया है कि हमारे जैसे उनके बारे में लिख भी क्या सकते हैं.. आज दिलीप साहब को याद करते हुए लग रहा है कि उस वट वृक्ष जैसे सितारे ने कितना कुछ सहा होगा... दिलीप साहब बँटवारे से लेकर अब तक दो मुल्कों, दो सभ्यताओं की खाई पाटने का निरंतर काम कर रहे थे.. बेख़ौफ़ दिलीप साहब ने कभी पाक पीएम को नसीहत देते हुए कहा था- "मिया आपकी नफ़रत का अंजाम भारतीय मुस्लिमों को भुगतना पड़ता है.. उनके अन्दर एक संकोच की भावना पैदा होती है. ऐसा कुछ मत करिए, जिससे सभ्यताएं बंट जाएं". हिन्दू - मुस्लिम की खाई में बंट रहे समाज के दुख - दर्द को महसूस करते हुए उन्होंने कहा था. "सियासत को सियासत नहीं करना चाहिए, सभ्यताएं तस्लीम हो जाएंगी....दिलीप साहब बहुआयामी व्यक्तिव थे, उनके सामने दो विचारधारा भी कोई अजूबा नहीं थी.. पण्डित नेहरू जी भी उनके मुरीद थे, तो अटल बिहारी वाजपेयी भी उनके घोर प्रसंशक थे.. दिलीप साहब आज भी अपनी जादुई अदाकारी, अपनी उच्चतम मानवीयता के लिए हमेशा अमर रहेंगे... दिलीप साहब की पुण्यतिथि पर आपके एक सिनेमाई भक्त का सलाम....
दिलीप कुमार
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