'शहंशाह ए तरन्नुम खुदा की आवाज़' ग्रेट रफी साहब'

'शहंशाह ए तरन्नुम खुदा की आवाज़'

(ग्रेट रफ़ी साहब)

हम सब खुशकिस्मत हैं, कि उस दौर में पैदा हुए जब रफ़ी साहब की रूहानी आवाज़ को सुन सकते हैं, उनको आभास कर सकते हैं. उनकी मखमली आवाज़ को भी स्पर्श कर सकते हैं. हिन्दी सिनेमा में गायिकी में कई मौसम आए और गए, लेकिन 'रफ़ी साहब' का मौसम अभी भी जवान है. इस धरती पर जिसको खुदा की आवाज़ कहा जाता है. हिन्दी सिनेमा में गायिकी के पैग़म्बर मुहम्मद रफ़ी साहब आज भी उतने प्रासंगिक हैं, जितना वो अपने दौर में थे. कभी - कभार लगता है, 'रफी साहब' नहीं होते तो क्या पार्श्व गायिकी का क्या इतना ऊंचा मयार होता? क्या 'गोल्डन एरा' को 'गोल्डन एरा' कहा जा सकता है, मुझे लगता है, बिल्कुल नहीं!!! 'रफ़ी साहब की रूमानी, सुकून देह आवाज़ एवं उनकी गायिकी का कैनवास इतना बड़ा है, कि भारतीय संगीत विधा में उनको तानसेन भी कहा जाता है. उनके हुज़ूर में जितना बोला जाए, कम ही है, यूँ तो महान रफी साहब के हुज़ूर में इतना कुछ लिखा गया है, बोला गया है, कि शब्द ही कम पड़ जाते हैं. "इस खुदा के बन्दे, सरस्वती पुत्र के साथ लिखा जाए, तो क्या लिखा जाए ,बोला जाए तो क्या बोला जाए". 'रफी साहब को सुनते हुए यूँ लगता है जैसे खुदा ऐसे ही गाता रहा होगा. कभी - कभार लगता है, जैसे कोई गायक नहीं, लगता है, गानों को कोई हज कर रहा है, या यूं कहें कि हर गीत को हाजी बना दिया. रफ़ी साहब जब दुनिया रुखसत कर गए, तो संगीत के सिरमौर नौशाद साहब ने रफी साहब के हुज़ूर में सच ही कहा था

"कहता है कोई दिल गया दिलबर चला गया
 साहिल पुकारता है समुन्दर चला गया
लेकिन सच यह है कि कोई कह न सका
दुनिया से मौसीक़ी का पैयंबर चला गया". 
एक दौर में भारत विभाजन के सदमे से उबर ही रहा था. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. इस मौके पर राजेंद्र कृष्ण के लिखे गीत 'सुनो सुनो ए दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी' को हुस्नराम भगत राम ने अपना संगीत दिया था. इस नग्मे को 'रफ़ी साहब' ने. अपनी आवाज़ से नवाजा था. गीत को सुनने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ख़ासतौर से 'रफ़ी साहब' को दिल्ली में अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया. गीत सुनकर नेहरू की आँखों में आँसू आ गए थे. भारत की आज़ादी की पहली वर्षगाँठ पर नेहरू ने रफ़ी को चाँदी का एक मेडल भेंट किया था. सिर्फ़ 24 साल के मोहम्मद रफ़ी के लिए ये एक बहुत बड़ा सम्मान था. उस गीत को पूरे भारत में बहुत सराहा गया और मोहम्मद रफ़ी की ज़िदगी पहले जैसी न रही. रफ़ी साहब घर - घर पहुंच चुके थे. 

' रफ़ी साहब' बहुत महान व्यक्ति थे, कहते हैं कि कोई भी आदमी दोषों से परे नहीं होता, लेकिन उनके जानने वाले कहते हैं कि रफी साहब व्यसनों से दूर रहने वाले आला शख्सियत थे. 'रफ़ी साहब' को उनके सरोकार की भावनाओं के जाने जाते थे.बहुत ही मिलनसार, जिंदादिल, दरियादिल इंसान थे, तथा हमेशा सबकी मदद के लिये तैयार रहते थे. पार्श्वगायन के पहले अग्रदूतों में शुमार रफी साहब का योगदान सबसे ज्यादा अविस्मरणीय हैं. हिन्दी सिनेमा को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए उनके सहयोगी भावनात्मक सहयोग आदरणीय है. यूँ ही कोई रफ़ी साहब नहीं बन जाता, सम्मान, सरोकार, साधना की पराकाष्ठा से गुज़रना पड़ता है. कभी - कभार लगता है, कि क्या घोड़ा घास से दोस्ती कर सकता है क्या? जबकि खुद उसकी ही सल्तनत हो, तब तो वो और मदमस्त होकर विचरण करता है, लेकिन जो मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा से गुजर जाए उनको 'रफ़ी साहब' कहते हैं. एक कहावत खूब बोली जाती है, लगभग - लगभग हर कोई इसको बोलते हुए चरितार्थ कर चुका होगा. 'रफ़ी साहब' ने हिन्दी सिनेमा के लिए बिना फीस लिए या बेहद कम पैसोँ लेकर भी नायाब गीत गाए. उनका कहना था, "मेरा काम घास - घोड़ा चिल्लाना नहीं है. मेरा काम इंसानों के काम आना हैं, इंसानो से दोस्ती करने का है, मेरा शौक, मेरी इबादत संगीत है, वह करना मुझे अच्छा लगता है, इसलिए मैं कभी भी पैसे के लिए नहीं गाता, न मैंने कभी भी किसी से पहले से कोई समझौता किया जिसने जो दे दिया मैंने अपनी रोजी-रोटी समझकर रख लिया, क्योंकि गायिकी मेरी अपनी जागीर नहीं थी, खुदा की दी हुई नायाब नेमत है". यह सच्चाई है रफी साहब ने कभी भी किसी से कोई पैसे की बात पहले से नहीं की, हालांकि उनको इतना पैसा बिना मांगे ही मिल जाता था, कि रफी साहब के उसूलों पर आंच नहीं आई. इसको कमाने के लिए सम्मान, ईमानदारी, का खुला आसमान होता है, जहां व्यक्ति विचरण कर सकता है , रफी साहब के गीत उनको उसी फलक पर ले जाते हैं, जहां रफी साहब बारिश की बूंदे बनकर हर आँगन में बरसते है. 

बहुत से ऐसे नए - नए संगीतकार हिन्दी सिनेमा में आते थे, जिनके पास औसतन बजट होता था, लेकिन सभी की हसरत होती थी, कि उनके लिए रफी साहब गाएं. वो रफी साहब के पास पहुंचते की सर आप हमें अपनी आवाज से जरूर नवाजे. रफ़ी साहब ऊपर की ओर हाथ उठाकर कहते जैसी मालिक की इच्छा.... 'रफी साहब को महात्वाकांक्षी कहना भी ईश्वर को गरियाने जैसा है. गानों की रॉयल्टी को लेकर लता मंगेशकर के साथ उनका विवाद भी उनकी दरियादिली का सूचक है. वो उनकी महानता को दर्शाता है... लता मंगेशकर जी पैसे के लिए विवाद कर रही हैं, उस समय लताजी का कहना था कि गाने गाने के बाद भी उन गानों से होने वाली आमदनी का एक अंश (रॉयल्टी) गायकों तथा गायिकाओं को मिलना चाहिए. तब रफ़ी साहब इसके ख़िलाफ़ थे. उनका कहना था, "एक बार गाने रिकॉर्ड हो गए और गायक-गायिकाओं को उनकी फीस का भुगतान कर दिया गया हो तो उनको और पैसों की आशा नहीं करनी चाहिए". इस बात को लेकर दोनो महान कलाकारों के बीच मनमुटाव हो गया. लता ने रफ़ी के साथ सेट पर गाने से मना कर दिया और बरसों तक दोनो का कोई कोलैब गीत नहीं गाया. लता जी बहुत ही महान शख्सियत हैं, लेकिन रफ़ी साहब की महानता का मयार बहुत ऊंचा है.

 हर अभिनेता की इच्छा होती थी, कि रूपहले पर्दे पर मुझे महान रफ़ी साहब की रूहानी आवाज़ मिले. ख़ासकर देव साहब, दिलीप साहब, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, धर्मेद्र आदि की कामयाबी में सबसे बड़ा रोल रफी साहब का भी रहा है. हिन्दी सिनेमा में रफ़ी साहब ने सबसे ज्यादा शम्मी के लिए गाया. क्लासिकल, ग़ज़ल के उस्ताद रफी साहब शम्मी कपूर की इमेज का पूरा ख्याल रखते थे, रफी साहब जितने महान थे, उनका आचरण भी महान था, जंगली फिल्म के गीत 'चाहे मुझे कोई जंगली कहे', उस अमर गीत में रफी साहब याहू चिल्लाते हुए असहज महसूस कर रहे थे, उन्होंने कहा कि यह चिल्लाना अभद्रता महसूस करा रहा है, तब शंकर - जय किशनजी उनके लिए एक दूसरा व्यक्ति साहित्यकार प्रयागराज को लेकर आए थे. 'रफी ने बखूबी वेस्टर्न कल्चर के गाने गाकर हरफ़नमौला सिंगिग में खुद को अमर कर दिया. ये चाँद सा रोशन चेहरा, बदन पर सितारे लपेटे हुए, चाहे मुझे कोई जंगली कहे, जैसे रॉक गाने लगभग डेढ़ सौ ज्यादा हैं जो आज भी गुनगुनाए जाते हैं. खूब डांस भी किया जाता है, पार्टियों में आज भी बजाए जाते हैं, यूँ तो रफी साहब पर सभी अपना अधिकार सिद्ध करते थे, यह मुहब्बत रफी साहब महसूस करते हुए भावुक हो जाते थे. अभिनेता राजेन्द्र कुमार ने यह बात फिल्म साइन करते हुए लिखित करार करते थे,, कि पर्दे पर मुझे रफी साहब की ही आवाज चाहिए. रफ़ी साहब की दीवानगी अपने एक अलग ही फलक पर थी. एक बार राजेन्द्र कुमार एवं शम्मी कपूर दोनों रफी साहब के सामने बहस कर रहे थे, कि मेरे लिए रफी साहब ने ज्यादा अच्छे गाने गाए हैं, हालांकि ऐसा सुनना आम बात है कि आपके लिए अच्छे गाने गाए हैं, मेरे लिए नही. रफ़ी साहब ने दोनों को सुनकर की दोनों कह रहे हैं कि रफी साहब ने मेरे लिए ज्यादा अच्छा गाया है. रफ़ी साहब अजूबा थे, यह मुहब्बत देख कर रफी साहब रोने लगे थे. 

मुझे आज भी एक टीस है, कि काश मुझे एक बार यश चोपड़ा से मिलने का मौका मिलता, तो मैं उनसे पूछता कि भगवान जैसे रफी साहब के हुज़ूर में आपने गुस्ताख़ी क्यों किया था. यूँ तो आकाश, ईश्वर, नदी, कलाकार का कोई अपमान नहीं कर सकता, क्योंकि रफी साहब भी इससे परे थे, मैंने आजतक किसी को रफी साहब के लिए नकारात्मक बोलते हुए सुना नहीं है, एक बार यश चोपड़ा अपनी गर्भवती पत्नी के साथ अपने घर को गुस्से में छोड़ दिया, अब उनके पास कोई ठिकाना नहीं था, रहने के लिए, तब यश चोपड़ा केवल बी आर चोपड़ा के भाई के रूप में ही जाने जाते थे, उनकी कोई पहिचान नहीं थी. उनको रफी साहब की दरियादिली का अंदाज़ा था. वो रफी साहब के घर पहुंचे अपना दुःख सुनाया, रफी साहब कहते हैं " पानी पीकर आता हूं". सुनकर यश चोपड़ा को दुख हुआ, कि ये मेरी मदद क्या करेंगे मेरी पूरी बात तक नहीं सुन रहे, थोड़ी देर बाद रफी साहब हाथ में चाबी लेकर आए, कहा मेरे पाली हिल्स बंगले में रह सकते हैं. यश चोपड़ा चले गए आठ साल तक रहे, रफी साहब ने कोई रेंट नहीं लिया. कोई लिखा - पढ़ी नहीं हुई. इन आठ सालों में यश चोपड़ा बहुत बड़े नाम बनकर उभरे थे.यश चोपड़ा फिल्म 'दूसरा आदमी' बना रहे थे, गानों की रिकॉर्डिंग महबूब स्टुडियो में हो रही थी, इसमे संगीतकार राजेश रोशन थे. इस फिल्म में एक गीत रफी साहब, किशोर दा, लता जी तीनों एक ही कोलैब गीत गाने वाले थे. तीनों सफल रिकॉर्डिंग करते हुए बाहर निकले गाने की रिकॉर्डिंग के बाद निर्माता गायकों को गुलदस्ता देकर सम्मान करते हैं. इसी रस्म के लिए तीनों खड़े हुए थे, यश चोपड़ा ने दो गुलदस्ते क्यों मंगवाए वही बता सकते थे, सबसे पहले रफी साहब खड़े हुए थे. कायदे से पहले रफी साहब को गुलदस्ता देना चाहिए था, लेकिन यश चोपड़ा ने पहले क्या बाद में भी गुलदस्ता नहीं दिया. किशोर दा, लता जी ने यश चोपड़ा से पूछा कि आपने महान रफी साहब के साथ ऐसे अभद्रता क्यों की, जबकि रफी साहब के साथ कोई भी ऐसे नहीं कर सकता. रफ़ी साहब बहुत बहुत ही सम्मानीय इंसान हैं. यह सुनते हुए रफी साहब थोड़ा दुःखी मन से स्टुडियो से बिना कुछ बोले ही चले गए. रफ़ी साहब ने किशोर दा, लता जी से कहा कि कलाकार का कोई अपमान नहीं कर सकता. क्योंकि कलाकार मान-सम्मान से परे होते हैं. हालाँकि उनके चेहरे पर दुख झलक रहा था. मुझे कभी यश चोपड़ा मिलते तो जरूर उनसे पूछता कि आपने रफी साहब के हुज़ूर में गुस्ताखी क्यों की.

'रफ़ी साहब' ने बर्मन दादा के लिए भी काफ़ी लोकप्रिय गीत गाए. बर्मन दादा ने मुसलमानों के एक धार्मिक गीत 'आल-ए- रसूल में जो मुसलमाँ हो गए' की धुन पर बनाई थी. ये धुन मस्जिदों में पढ़ी जाने वाली अज़ान से बहुत कुछ मिलती थी. उन्होंने पहले इसका बंगाली अनुवाद कर अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर कलकत्ता के सुनने वालों के बीच आज़माया. फिर मजरूह सुल्तानपुरी ने इसके आधार पर एक गीत लिखा जिसके बोल थे "हम बेख़ुदी में तुम को पुकारे चले गए.'' वर्ष 1971 में आई 'गेंबलर' फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी के गाए गाने 'मेरा मन तेरा प्यासा' गीत के लिए जब 'रफ़ी साहब' फ़ाइनल रिहर्सल के लिए बर्मन दादा के घर पहुंचे तो बर्मन दादा ने उनसे कहा, आप हर गाने के लिए कितनी तैयारी करके आते हैं. इस पर रफ़ी ने कहा कि आप मेरी कार में बैठिए. हम महालक्ष्मी की फ़ेमस लैब में जाकर इस गाने को रिकॉर्ड कर लेते हैं. लेकिन बर्मन दादा ने कहा मैं आपकी कार में नहीं आप मेरी कार में स्टूडियो में जाएंगे.""इसका महत्वपूर्ण कारण यह भी था, कि संगीतकार थोड़ा गायक को गाइड करता है, बर्मन दादा नहीं चाहते थे कि वो 'रफ़ी साहब' को उनके ड्राइवर के सामने गाने से संबंधित कोई हिदायत दें. फ़ेमस स्टूडियो जाने के दौरान रफ़ी ने बर्मन की कार में इतना अच्छा रिहर्सल किया कि उन्होंने पहले टेक में ही 'मेरा मन तेरा प्यासा गीत' को रिकार्ड कर दिया, रफी साहब एक बार धुन सुनते थे, बिना रिहर्सल ही पहली बार में ही रिकॉर्डिंग कर देते थे.

रफी साहब के सबसे पसन्दीदा नौशाद अली, एवं ओपी नैयर साहब थे. ओपी नैयर समय के बहुत पाबंद थे. वो तय समय पर पर अपने रिकॉर्डिंग स्टूडियो का दरवाज़ा बंद कर दिया करते थे. उसके बाद किसी को अंदर नहीं आने दिया जाता था. रफ़ी साहब भी समय के बहुत पाबंद थे. एक बार उन्हें आने में एक घंटे की देरी हो गई. आते ही उन्होंने माफ़ी माँगते हुए कहा, "मैं शंकर - जयकिशन जी की रिकॉर्डिंग में फंस गया था." नैयर साहब ने जवाब दिया, "आपके पास शंकर जयकिशन के लिए समय था, ओपी नैयर के लिए नहीं. आज से तुम्हारा रास्ता अलग और मेरा रास्ता अलग हो गया. रिकॉर्डिंग रद्द कर दी गई. ओपी नैयर साहब ने अपने असिस्टेंट से कहा कि रफी का हिसाब कर दो. इसके बाद जर्नलिस्टों ने पूरे मामले को तूल देने के लिए मोहम्मद रफ़ी से कहा नैयर ने आपके साथ इतनी बेइज़्ज़ती क्यों की, रफ़ी ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया, "मैं ग़लत था. नैयर साहब सही थे. कोई आपका इंतजार क्यों करे, मुझे समय का ध्यान रखना चाहिए था, जो मैं नहीं कर सका. कुछ दिनों बाद बाद 'रफ़ी साहब' नैयर साहब के घर खुद ही पहुंच गए. नैयर ने अपने सबसे पसंदीदा गायक से कहा, रफी' तुमने खुद ही मेरे घर आकर सिद्ध किया है कि तुम ओपी नैयर से कहीं बेहतर इंसान हो. तुमने अपने अहम पर काबू पा लिया जो मैं नहीं कर सका. रफ़ी लोग कहते हैं कि तुम्हारी आवाज़ भगवान की आवाज़ है, लेकिन तुम खुद भी भगवान जैसे हो, लालच, धन, सम्मान, अपमान, लाभ, हानि सभी से तुम परे हो.

'रफ़ी साहब अनोखे गायक थे, जिन्होंने दूसरे प्ले बैक सिंगर को अपनी आवाज़ दी. रफ़ी साहब ने लगभग ग्यारह गीतों में उन्होंने किशोर कुमार के लिए गाने गाए. 70 के दशक में किशोर दा आमतौर से एक दिन में दो या तीन गाने रिकॉर्ड करते थे, लेकिन जिस दिन उन्हें' रफ़ी साहब' के साथ गाना होता था वो पूरा दिन उस गाने के लिए रखते थे. उनको पता था कि रफ़ी 'परफ़ेक्शनिस्ट' हैं और उन्हें अंतिम रिकॉर्डिंग से पहले घंटों अभ्यास करना पड़ेगा. रिकॉर्डिंग के दौरान 'किशोर दा' चुटकुले सुनाते रहते थे, 'रफ़ी साहब' आनंद लेते थे. एक शो के दौरान जिसमें रफ़ी और किशोर दोनों भाग ले रहे थे, किसी प्रसंशक ने 'किशोर दा' से ऑटोग्राफ़ देने का अनुरोध किया. किशोर ने रफ़ी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, 'अरे मेरे से क्यों ऑटोग्राफ़ ले रहे हो बंधु, संगीत तो उधर है.' उन शो के दौरान किशोर रफ़ी के कुछ गाने गाते थे और बहुत आदरपूर्वक कहते थे, 'मेरे पास रफ़ी साहब जैसी आवाज़ तो नहीं है पर फिर भी मैं उनके हुज़ूर में कुछ गाना चाहता हूं. हमेशा रफी साहब एवं' किशोर दा' दोनों में तुलना होती है, जिसका 'किशोर दा खंडन करते हुए कहते थे "रफी साहब' सिंगिग में मुझसे सीनियर हैं, मैं शुरू में अभिनय पर केंद्रित था, मैंने बहुत बाद में संगीत को अपना कॅरियर बनाया, तब तक रफी साहब महान सिंगर बन चुके थे. मैं बेपरवाह सिंगर हूं, लेकिन रफ़ी साहब समर्पित सिंगर थे. हम दोनों की तुलना निराधार है. मेरा भी व्यक्तिगत रूप से मानना है कि दोनों की तुलना नहीं करना चाहिए. दोनों महानतम हैं.

रफी साहब का हिन्दी सिनेमा में गायिकी के क्षेत्र में उनका अविस्मरणीय योगदान है, बहुत अफ़सोस होता है, कि इस गायिकी के महात्मा को भारतरत्न तो छोड़िए, हिन्दी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरुस्कार से तक नहीं नवाजा गया. यह तो कई बार सिद्ध हो चुका है कि भारतीय समाज़ हमेशा से ही हर क्षेत्र में कृतघ्न रहा है. भारतीय समाज ने कभी भी किसी महान शख्सियत का कोई मान नहीं रखा. रफ़ी साहब ने सभी भाषाओं में 45,00 गाने गाए हैं, जिनका रिकॉर्ड गिनीज बुक में दर्ज था, बाद में लता जी ने सबसे ज्यादा गीत गाने का दावा पेश किया, अगले संस्करण में लता जी का नाम भी शामिल किया गया, लेकिन उनसे दस्तावेज मांगे गए, जिससे लता जी असमर्थ हो गईं, हालांकि रफी साहब अपना पक्ष रखने के लिए जिवित भी नहीं थे, लेकिन उनका नाम अभी भी दर्ज है.... देर सबेर जब भारत सरकार को शर्म आएगी, तब तक रफी साहब को भारत रत्न एवं 'दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित करेगी, लेकिन अवॉर्ड देने से पहले रफी साहब से माफी ज़रूर मांगना चाहिए. क्यों कि कोई भी अवॉर्ड रफी साहब के साथ जुड़कर खुद भी सम्मानित हो जाएगा. मुझे इंतजार है उस दिन का जिस दिन शहंशाह ए तरन्नुम रफ़ी साहब को भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा, जब एक भारतरत्न दूसरे भारतरत्न के साथ मिलेगा.... 

 "रफ़ी साहब के चरणों में श्रद्धासुमन" 

दिलीप कुमार

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