'उच्चतम आचरण के इंसान थे ऐक्टर राजेन्द्र कुमार'

'उच्चतम आचरण के इंसान थे ऐक्टर राजेन्द्र कुमार' 

देश की आज़ादी एवं हिन्दी सिनेमा का एक अंतर्संबंध रहा है. आज़ादी के बाद बंटवारे की त्रासदी के साथ ही उस दौर में जाने कितने कलाकारों ने अपने ख्वाबों को टूटते देखा होगा, तो कईयों ने पलायन, आदि का दर्द झेलते हुए कामयाबी हासिल की है . सिनेमा समाज का दर्पण होता है. उसी बदलते हुए समाज ने न जाने कितने बात करने के लिए मुद्दे दिए, क्लासिक कल्ट फ़िल्में दी, अविस्मणीय सिनेमा गढ़ा.. सिनेमा बनाने वाले दिए. आज़ादी के वक्त देश के लोगों ने न जाने कितने अमूर्त सपने देखे थे, लेकिन उन सपनों के साकार होने में अभी वक़्त दरकार था. जब लोग आभाव से जूझ रहे थे, तो सिनेमा ने उनके वो ख्वाब पूरे करने शुरू किए. नेहरू युगीन सिनेमा का समाज को नए सिरे से गढ़ने में भी एक खास योगदान रहा है. 

जिन कलाकारों की वजह से हो रहा था उनमें कई बंटवारे की त्रासदी के शिकार कलाकार थे, जो अपना सब कुछ छोड़कर भारत आए थे . ऐसे ही एक ऐक्टर राजेंद्र कुमार रहे हैं, जो बंबई आए तो थे फ़िल्मकार बनने, लेकिन नियति ने उन्हें अदाकार बना दिया. मजबूरी में ऐक्टर बने राजेन्द्र कुमार को एक दौर में सस्ता ट्रेजडी किंग कहा जाता था, फिर उन्होंने अपनी विविधतापूर्ण अदाकारी से खुद को जुबली कुमार के नाम तक ले गए.. स्टारडम ऐसा की 60-70 के दशक के सबसे बड़े सुपरस्टार राजेन्द्र कुमार ही थे.. एक वक्त  था, जब उनकी हर फिल्म सिल्वर जुबली होती थी. सिल्वर जुबली मतलब 25 हफ़्ते तक लगातार फिल्म चलती रहे. 

राजेंद्र कुमार बचपन से ही फ़िल्मकार बनने का सोचते थे. आज़ादी मिलने से पहले लाहौर में भी सिनेमा खूब पँख पसार रहा था.. राजेंद्र कुमार सपना देखते थे कि बड़े होकर वो भी लाहौर जाएंगे और फिल्मों में काम करेंगे...उनका ये सपना पूरा होता उससे पहले ही देश का बंटवारा हो गया और राजेंद्र कुमार का लाहौर में हीरो बनने का ख्वाब टूट गया. आख़िरकार सरहद पार कर राजेंद्र कुमार बंबई पहुंचकर निर्देशक एच.एस रवैल को असिस्ट करने लगे. यह सब इतना आसान नहीं रहा होगा, जितना सोचने में लग रहा है.. न जाने कितनी रातें भूखे पेट गुज़र गई होंगी. इसी दौरान केदार शर्मा की नज़र इन पर पड़ी और उन्होंने राजेंद्र को अपनी फिल्म 'जोगन' में दिलीप कुमार और नर्गिस के साथ साइन कर लिया. ये साल था 1950 इस फिल्म के लिए इन्हें मात्र 1500 रूपये मिले थे. ये फिल्म हिट हुई, और राजेन्द्र कुमार फिल्म में खूब प्रभावी रहे. 

पहली फिल्म हिट होने के बाद राजेंद्र के पास फिल्मों के खूब ऑफर आने लगे. इसी कड़ी में महबूब खान की कल्ट फिल्म 'मदर इंडिया'. उनकी अगली फिल्म थी. इस फिल्म में इनके सह-कलाकार थे, सुनील दत्त, राज कुमार और नर्गिस.... फिल्म में राज कुमार और नर्गिस ने सुनील और राजेंद्र के माता पिता की भूमिका अदा की थी. लेकिन इनकी उम्र में कोई ज़्यादा अंतर नहीं था.. एक बार राजेंद्र कुमार बताते हैं - "इस फिल्म की  शूटिंग के दौरान भी नर्गिस हमारा अपने बच्चे जैसा ही ख्याल रखती थीं. सुबह हाथ में ब्रश और पेस्ट लेकर वो ही मुझे और सुनील को जगाने आती थीं..." वैसे भी अभिनय को जीने के लिए वाकई किरदार को जीना पड़ता है... तब कहीं मदर इन्डिया जैसी कल्ट फ़िल्में बन पाती हैं. वैसे देखा जाए तो ऐसी फ़िल्में बनाई नहीं जातीं बन जाती हैं. 

राजेन्द्र कुमार के दौर के सिने प्रेमी इस बात की पुष्टि करते हैं, कि उस दौर में दिलीप साहब जितने बड़े ट्रेजडी किंग थे, राजेन्द्र कुमार भी उतने बड़े ही ट्रेजडी किंग थे... वहीँ गुड लुकिंग के साथ ही सिल्वर स्क्रीन पर रोमांटिक हीरो के तौर पर देवानंद साहब के समकक्ष ही अदाकारी करते थे... कई फ़िल्में उनके स्टाइलिश, पर्सनैलिटी की गवाही देती हैं..वहीँ राज कपूर साहब की तरह यथार्थ अभिनय करते थे.. 80 से ज्यादा फ़िल्मों में अपनी हरफ़नमौला अदाकारी का जलवा बिखरने वाले राजेन्द्र कुमार ने 35 फ़िल्में सिल्वर जुबली दी हैं.. अभिनय तो डूबकर करते थे... जब जब सिल्वर स्क्रीन पर आते थे, दर्शकों का दिल जीत लेते थे. जितने अच्छे अदाकार थे, उतने ही उत्तम इंसान थे.. 

 यूँ तो रफी साहब पर सभी अपना अधिकार सिद्ध करते थे, यह मुहब्बत रफी साहब महसूस करते हुए भावुक हो जाते थे. वहीँ राजेन्द्र कुमार, रफी साहब के बिना फिल्म ही नहीं करते थे, यह बात फिल्म साइन करते हुए लिखित करार करते थे. पर्दे पर मुझे रफी साहब की ही आवाज चाहिए. रफ़ी साहब की दीवानगी अपने एक अलग ही फलक पर थी. एक बार राजेन्द्र कुमार एवं शम्मी कपूर दोनों रफी साहब के सामने बहस कर रहे थे, कि मेरे लिए रफी साहब ने ज्यादा अच्छे गाने गाए हैं, हालांकि ऐसा सुनना आम बात है, कि आपके लिए अच्छे गाने गाए हैं, मेरे लिए नही! रफ़ी साहब ने दोनों को सुना की दोनों कह रहे हैं कि रफी साहब ने मेरे लिए ज्यादा अच्छा गाया है... यह मुहब्बत देख कर रफी साहब रोने लगे थे. राजेन्द्र कुमार की आवाज़ रफी साहब थे... उस दौर के यादगार होने का यह भी एक खास कारण है. 

जुबली कुमार के बहुमुखी अभिनय पर नजर डालें तो एक से बढ़कर एक भूमिका के ज़रिए सिद्ध करते हैं, कि कितने शानदार अभिनेता रहे हैं. इन्हें भी मेथड ऐक्टर कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए. राजेंद्र कुमार जब अपने स्टारडम के शिखर पर थे, उसी दौरान एक फिल्म आई थी 'गूंज उठी शहनाई', इस फिल्म में राजेंद्र कुमार ने शहनाई वादक की भूमिका निभाई थी. अपने किरदार को निभाने के लिए राजेंद्र कुमार को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी. उन्होंने शहनाई तो नहीं सीखी, लेकिन एक्सप्रेशंस सीखने पड़े. इस काम के लिए उन्होंने ग्रेट शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ां से मदद ली. राजेंद्र कुमार लकड़ी की नकली शहनाई लेकर शीशे के सामने बैठ जाते और रिकॉर्डिंग के दौरान बिस्मिल्ला ख़ां के एक्सप्रेशन और कंधे-गले की हरकत को कॉपी करने की कोशिश करते. फिल्म रिलीज़ होने के बाद जब राजेंद्र कुमार ने बिस्मिल्ला ख़ां को फिल्म दिखा कर उनसे फीडबैक लिया तो उन्होंने ने कहा,' आप फिल्म में कहां थे मैंने तो फिल्म में सिर्फ खुद को देखा.' यह उनकी अदाकारी का कमाल था, साथ ही अदाकारी का एक सर्टिफिकेट... 

फिल्म मेरे महबूब में राजेंद्र कुमार ने अनवर नाम के एक नौजवान मुस्लिम शायर का किरदार निभाया था. फिल्म की कहानी, संगीत उस ज़माने में बहुत ज़्यादा पसंद किए गए थे. राजेंद्र ने इस फिल्म में इतनी ज़बरदस्त एक्टिंग की थी, इनके बहुत से फैंस को लगा जैसे राजेंद्र कुमार वास्तव में कोई मुस्लिम एक्टर हैं. फिल्म रिलीज़ होने के बाद राजेंद्र कुमार को ढेर सारी ऐसी चिट्ठियां मिली, जिसमें उनसे सवाल किया गया था कि आप कम से कम अपना असली नाम बताएं. क्योंकि जैसे यूसुफ खान साहब, दिलीप कुमार के नाम से मशहूर हैं. आप भी तो मुस्लिम हैं, राजेंद्र कुमार के नाम से फिल्मों में एक्टिंग करते हैं!! डूबकर अभिनय करने से ऐसे अवॉर्ड दर्शकों के द्वारा मिलते हैं.. वैसे भी अभिनय का अर्थ ही यही है कि उसका आम लोगों पर असर क्या होता है. 

जस्टिस सांखला नाम के एक जज ने जब कानून फिल्म देखी तो उन्होंने कहा था - "अपने चालीस साल के कॅरियर में मैंने अशोक कुमार जैसा जज और राजेंद्र कुमार जैसा वकील नहीं देखा.. एक बार मुंबई के मिनरवा थिएटर हॉल से राजेंद्र कुमार बीआर चोपड़ा के साथ फिल्म का प्रीमियर खत्म होने के बाद बाहर निकल रहे थे, तो एक आदमी दौड़ता हुआ आया और राजेंद्र कुमार के पैरों में आकर गिर गया. वो आदमी राजेन्द्र कुमार से बोला,"साहब मेरा बेटा बेकसूर है! उसने कोई गुनाह नहीं किया है. मैं बहुत ग़रीब हूं! उसे बचा लीजिए.. आप ही इकलौते ऐसे वकील हैं जो उसे बचा सकते हैं" राजेंद्र कुमार ने उस आदमी को समझाने की कोशिश किया, कि मैंने तो उस फिल्म में केवल वकील का रोल निभाया है! मैं सच में कोई वकील नहीं हूं!!..ऐसे अवॉर्ड मिल सकते हैं क्या? राजेन्द्र कुमार ने बतौर ऐक्टर जो लेगेसी खड़ी की है, वो हर किसी के लिए प्रेरणा है.. 


रामानन्द सागर की आरज़ू फिल्म कौन भूल सकता है, जिसमें राजेन्द्र कुमार एक हादसे में पैर खो देने वाले दिव्यांग की भूमिका निभाई... एक दिन रामानंद सागर के ऑफिस में पुणे से एक लड़का पहुंचा. वो लड़का बैसाखी के सहारे चलकर आया था. लड़के ने रामानंद सागर से गुज़ारिश किया कि उसे राजेंद्र कुमार से मिलाया जाए.. वो लड़का राजेन्द्र कुमार से बोला ,"सर, एक एक्सीडेंट में मेरी टांग कट गई थी, मैं जीवन से इतना निराश हो गया था, आत्महत्या करने ही वाला था. तभी मुझे किसी ने आपकी फिल्म आरज़ू दिखाई, उस फिल्म में आपका अपाहिज वाला किरदार देखने के बाद मुझे अहसास हुआ, कि ज़िंदगी कितनी खूबसूरत हो सकती है और आत्महत्या करना कितना खराब है... राजेंद्र कुमार उस लड़के से बोले," मैंने तो बस एक्टिंग की थी, असली हीरो तो तुम हो मेरे दोस्त.." किसी भी ऐक्टर की ऐक्टिंग से अगर एक व्यक्ति भी प्रभावित हुआ है... वही सबसे बड़ा अवॉर्ड होता है.. जो दर्शकों के साथ सीधा जोड़ दे. वैसे राजेन्द्र कुमार को आज के दौर में हो सकता है, बहुतेरे लोग जानते भी न हों, लेकिन राजेन्द्र कुमार की भी रची एक दुनिया है, जहां उनके सिनेमाई प्रसंशक विचरण करते रहते हैं. 

इससे कौन इंकार करेगा, सिनेमा ने ही समाज को संगीत से जोड़ा. सिनेमा ने ही पहनने, चलने, बोलने का एक विशेष सलीका सिखाया.. सिनेमा का अपना प्रभाव होता है, उसकी लोगों तक पहुंच होती है, कोशिश होनी चाहिए, सिनेमा आम लोगों की ज़िंदगी से जुड़ते हुए खुद के होने की सार्थकता सिद्ध करे.. राजेन्द्र कुमार जी ने अपनी विविधतापूर्ण अदाकारी से अपनी एवं सिनेमा की बखूबी सार्थकता सिद्ध की है. गोल्डन एरा के एक - एक गीत, एक - एक फिल्म सभी का समाज के साथ गहरा ताल्लुक रहा है. राजेन्द्र कुमार की अधिकांश फ़िल्मों को देखकर लगता है हम कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं.. 

राजकपूर साहब एवं राजेन्द्र कुमार दोनों जिगरी दोस्त रहे हैं, दोनों कहते थे - "हम दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं. वैसे भी हम दोनों - एक दूसरे के बिना गुम से रहते हैं..1976 में गायक मुकेश जी का निधन अमेरिका में हुआ, तो राजेंद्र कुमार एवं राज कपूर एक साथ शव लेने एयरपोर्ट गए. राज कपूर ने कहा - 'मेरा दोस्त यात्री की तरह गया था, लगेज की तरह लौटा." मुकेश जी की अंत्येष्टि में उन्होंने सभी धर्म के प्रार्थनाकार बुलाए थे. राजेंद्र कुमार ने कहा - 'मेरा अंतिम संस्कार भी ऐसे ही करना.." असल में ऐसे ही हुआ था...कुछ लोग अपने ज़िन्दा रहते हुए अपने उच्चतम आचरण से भी एक दिशा देते हैं , वहीँ मौत एक आखिरी सत्य है, जो बहुत निजी होती है. वो भी समाज को सर्वधर्मसमभाव का पाठ पढ़ाए, तो इससे बेहतर क्या हो सकता है. जुबली कुमार को मेरा सलाम..... 

दिलीप कुमार

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