"महान मुकेश जी"

कल खेल में हम हों न हों 

(मुकेश जी) 

'मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंगलिश्तानी सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी'... मुकेश जी के गाए हुए इस गीत ने कई देशों की सरहद को पाटकर कुछ देर के लिए ही सही सभी को हिन्दुस्तानी बना दिया था...देश दुनिया में लोगों की भाषा चाहे जो भी रही हो, हर किसी ने एक बार इस गीत को ज़रूर गुनगुनाया होगा.. इस गीत को हिन्दुस्तान का सबसे लोकप्रिय गीत कहें तो उचित होगा.. यही वो गीत है, जिसने समस्त विश्व का हिन्दी सिनेमा की तरफ ध्यानाकर्षण कराया...आज मुकेश जी होते तो 100 साल के होते. 

ऐसा ही एक गीत है, 'आवारा हूं' जो मुकेश जी को ग्लोबल स्टार जैसे मुकाम पर ले गया... इस गीत में भले ही ग्रेट शो मैन राज कपूर साहब अभिनय कर रहे थे, लेकिन मुकेश जी की आवाज़ यूएस, यूएसएसआर, आदि मुल्कों में घर - घर पहुंच गई.... इतनी ख्याति के बाद भी मुकेश जी की आवाज़ में एक दर्द था.. एक दुःख था. जो हमेशा निकलकर आता था. दर्द भरे नगमों के बेताज बादशाह मुकेश जी के गाए गीतों में जहां संवेदनशीलता दिखाई देती है.. वहीँ उनकी आवाज़ दर्द को व्यक्त करती है, तो एक मरहम का काम भी करती है. मुकेश जी कहते थे - "एक तरफ़ मुझे दस लाइट गीत गाने का मौका मिले, दूसरी तरफ मुझे एक सैड गीत का मौका मिले मैं दस गीत छोड़ दूँगा.."

दिल्ली में पैदा होने वाले मुकेश जी अपने आप को राज कपूर का सुदामा कहते थे.. वहीँ राजकपूर साहब को एक कृष्ण जैसा महान कहते थे, "जिन्होंने मुझे जैसे व्यक्ति को अपनी दोस्ती से नवाजा. मुकेश जी राज कपूर साहब की आवाज़ कहे जाते थे. मुकेश जी के अन्दर वह प्रतिभा थी, कि वह एक महान गायक बनकर उभरें.. उनके अंदर जो काबलियत थी, वह लोगों के सामने आई और मुकेश की आवाज़ का जादू पूरी दुनिया के सिर चढ़ कर बोला.. दिल्ली में छोटी सी नौकरी करने वाले मुकेश अपने सहपाठियों के बीच महान केएल. सहगल के गीत सुना कर उन्हें अपनी आवाज़ से बहलाते थे. अभिनेता बनने की चाहत में नियति ने मुकेशजी को दिल्ली से मुम्बई पहुँचा दिया. 

मुकेश जी की आवाज़ की कशिश को ऐक्टर मोतीलाल ने तब पहचाना, जब उन्होंने उन्हें अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना. मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये. अपने घर में रहने दिया यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिये रियाज़ का पूरा इन्तज़ाम किया. मुकेश जी को एक बार मोतीलाल जी ने सहगल साहब से मिलाया.. तब मुकेश जी ने सहगल साहब को एक गीत सहगल साहब की नकल करते हुए सुनाया... सहगल साहब ने कहा "मुकेश तुम बहुत महान गायक बनोगे, लेकिन तुम्हें सुधार करना होगा, तुम मेरी नकल मत करो, अपनी तरह गाओ". सहगल साहब ने खुश होकर मुकेश जी को अपना हार्मोनियम दे दिया.. वहीँ मुकेश जी बड़े गायक बन जाने के बाद भी सहगल साहब की तरह ही गाते थे....मुकेश जी के अरमान अदाकार बनने के थे, और यही वजह है कि गायकी में कामयाब होने के बावजूद भी वह अदाकारी करने के इच्छुक थे. उन्होंने यह किया भी, मगर एक के बाद एक तीन फ़्लॉप फ़िल्मों ने उनके ख्वाब को तोड़ दिया. उन्होंने 'माशूका', 'आह', 'अनुराग' और 'दुल्हन' में भी बतौर अभिनेता काम किया.

सुरों के बादशाह मुकेश ने अपना सफ़र 1941 में शुरू किया. 'निर्दोष' फ़िल्म में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ-साथ गाने भी खुद गाए. लेकिन प्रमुखता से उनकी गायक के रूप में यात्रा बाद में शुरू हुई.. मुकेश जी की प्रतिभा को पहिचान चुके मोतीलाल जी ने सन 1940 में अपने मित्र अनिल विश्वास से उनकी सिफारिश की..बात आई गई हो गई, लेकिन अनिल विश्वास ने मुकेश का नाम अपने जेहन में लिख रखा था. फिर आया साल 1944 अनिल विश्वास को अपनी फिल्म के लिए मुकेश जी से गाना रिकॉड करवाना था, मुकेश जी को अनिल विश्वास ने दो तीन दिनों तक ट्रेनिंग भी दिया, लेकिन मुकेश जी रिकॉर्डिंग के दिन थोड़ा नर्वस थे.. वैसे मुकेश जी थोड़ा एल्कोहल के भी शौकीन थे, उन्होंने लगभग - लगभग पूरी तरह से खुद को सहगल साहब के जैसा बना रखा था.. अतः उन्होंने उस दिन शराब का सेवन कर लिया, और समय भूल गए. अनिल विश्वास गुरु समान इंसान उनके घर पहुंच गए, और मुकेश जी को एक ज़ोरदार तमाचा रसीद कर दिया. जिससे मुकेश जी का नशा गायब हो गया.. अनिल विश्वास ने उन्हें नसीहत देते हुए हाथ पकड़कर स्टुडियो ले गए.. एक गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला गाना 1945 में फ़िल्म 'पहली नजर' में गाया. उस वक्त के सुपर स्टार माने जाने वाले 'मोतीलाल' पर फ़िल्माया जाने वाला गाना 'दिल जलता है तो जलने दे' हिट हुआ था... अनिल विश्वास जी ने ही मुकेश की गायन शैली को निखारा था. दरअसल मुकेश की गायन शैली केएल सहगल से इतनी मिलती-जुलती थी, कि कई बार तो संगीत प्रेमियों में वाद-विवाद छिड़ जाता था, कि इस गाने का असली गायक कौन है.. मुकेश जी की आवाज़ में छिपा दर्द, उस समय के दर्द भरे फिल्मी गीतों के लिए पूर्ण रूप से सटीक होता था. साल 1948 में महान चोटी के संगीतकार नौशाद साहब, मुकेश जी से मिले और उनके कई गीत गाए. 1949 में फ़िल्म 'अंदाज़' में मुकेश जी ने अपनी आवाज़ को अपना अंदाज़ दिया. 'प्यार छुपा है इतना इस दिल में, जितने सागर में मोती' और 'ड़म ड़म ड़िगा ड़िगा' जैसे गाने हर संगीत प्रेमी गुनगुनाने लगा था.. यहीं से नौशाद साहब ने कहा "आप केवल मेरे लिए ही गाना.." मुकेश जी ने कहा "मैं सभी के लिए गाऊँगा.." कुपित होकर नौशाद साहब ने मुकेश जी से ढाई दशक तक कोई गीत ही नहीं गवाया.. 

यूँ तो मुकेश जी को राजकपूर को अपनी आवाज़ देने का मौका केदार शर्मा की फिल्म 'नीलकमल' से मिला. फिल्म आग के बाद मुकेश, राज कपूर साहब की आवाज़ बन गए थे. वैसे भी राज कपूर साहब एवं मुकेश जी का दो जिस्म एक जान वाला मामला था, क्योंकि मुकेश जी के बिना राज कपूर साहब खुद को अधूरा मानते थे.. मुकेश जी अपनी ज़िंदगी का आखिरी गीत- चंचल, शीलत, निर्मल कोमल... भी राजकपूर साहब की फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुदंरम' फ़िल्म में गाया... यह गीत उन्होंने अमेरिका के लिए रवाना होने से कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड करवाया था. दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए थे. दोनों ने मिलकर संगीत की एक अनोखी दुनिया ही रच डाली. 1949 से लेकर अंतिम दौर तक शंकर - जय किशनजी, कविराज शैलेन्द्र जी, मुकेश जी एवं राज कपूर साहब ने मिलकर एक संगीत की दुनिया ही रच डाली.. जाने कितने अनगिनत गीत यादगार हैं. मुकेश जी को दर्द भरे नगमो का जादूगर माना जाता था. मुकेश जी ने लगभग सभी महान संगीतकारों के लिए गाया, लेकिन वो शंकर - जय किशनजी के संगीत के पर्याय ही बन चुके थे.. 

मधुर रेशमी आवाज़ के साथ भावों का गहराई से प्रवाह उन्हें अद्वितीय गायक बना देता था. जिससे उनके गीत सदाबहार एवं अविस्मरणीय हैं.. सामान्यतया हाई पिच के गाने पर गायक-गायिकाओं के स्वर पतले और कुछ कर्कश हो जाते हैं. मुकेश जी की आवाज़ हाई पिच पर भी चेंज नहीं रहती थी, बल्कि कुछ और मधुर हो जाती थी. यह विशेषता सिर्फ़ उन्ही के पास थी. संगीतकार सरदार ने मुकेश जी पर कहा – "जब मुकेश गाते हैं, तो ऐसा लगता है, जैसे सात बाँसुरी के मीठे स्वर एक साथ निकल रहे हों... .संगीतकार अनिल विश्वास भी मुकेश की मीठी आवाज के दीवाने थे. वे कहते थे – मुकेश के स्वर में जो विशेष माधुर्य और संप्रेषण था, वह किसी अन्य गायक में नहीं पाया गया. 

हिन्दी सिनेमा में शुरुआत से लेकर अब तक मुकेश के गाये जितने गीत लोकप्रिय हुए उतने गीत किसी अन्य कलाकार के नहीं. वे जो भी गाते थे हिट हो जाता था....यह कोई इत्तेफ़ाक नहीं था. उन्होंने धन कमाने के लिये अपने गायन का उपयोग नहीं किया. उन्हें जिन गानों को स्वर देने का प्रस्ताव मिलता था, पहले उनकी गुणवत्ता की परीक्षा कर लेते थे. बाद में अपनी सहमति देते थे. दस में से दो या तीन प्रस्ताव ही उनकी कसौटी पर खरे उतरते थे... वे उन्हीं गानों को अपना स्वर देते थे. यही कारण रहा कि उनके समकालीन गायको की तुलना में उनके द्वारा गाए गीतों की संख्या बहुत कम है, लेकिन लोकप्रिय गानों की संख्या बहुत अधिक है. संगीतकार कल्याणजी ने भी कहा - "मुकेश जी के द्वारा गाया कोई भी गीत गुमनामी के अंधेरे में कभी गुम नहीं हुआ. वे जो भी गाते थे, जनता की जुबान पर चढ़ जाता था. मन्ना दा कहते थे -" मैं भी स्वयं और अन्य गायक भी मुकेशजी की तरह हिट गाने गाना चाहते थे, लेकिन हिट गीत गाने का सौभाग्य तो सिर्फ़ मुकेशजी के ही पास था. उनकी आवाज़ में एक जादू था जिसका स्पर्श पाते ही कोई भी गीत आम जनमानस को प्रिय हो जाता था... मुकेश जी ने अपने समकालीन रफी साहब, किशोर दा, दोनों से कम ही गीत लगभग 35 साल के कॅरियर में उन्होंने 900 गीत गाए हैं, लेकिन सभी यादगार हैं... 

मुकेश जी बेहतरीन इंसान थे.. प्रतिदिन 5 बजे सोकर उठते थे. एक-दो घंटे रियाज़ करने के बाद बगीचे में टहलते थे. बगीचे में हर एक फूल को बड़े प्यार से देखते थे, मानो अपने किसी साथी से बातें कर रहे हैं. मुकेश यह नहीं चाहते थे, उनका बेटा गायक बने. वे हमेशा कहते थे कि गायन एक बेहतरीन कला मगर बड़ा कष्टदायक व्यवसाय है... मुकेश जी ने बहुतेरे गीत गाए, लेकिन उन्हें अपने दो गीत बेहद पसंद थे- "जाने कहां गए वो दिन...." और "दोस्त-दोस्त ना रहा.... हमेशा गुनगुनाते थे.. मुकेश जी निजी ज़िंदगी में भी वह बेहद संवेदनशील इंसान थे. दर्द के नग्मे गाते ज़रूर थे, लेकिन रहे हैं एकदम जिंदादिल इंसान... एक बार कोई एक लड़की बीमार हो गई, उसने अपनी माँ से कहा कि अगर मुकेश जी उन्हें कोई गाना गाकर सुनाएं तो वह ठीक हो सकती है.. माँ ने जवाब दिया कि मुकेश जी बहुत बड़े गायक हैं.. हम उनसे कैसे मिल पाएंगे. अगर वह आते भी हैं तो इसके लिए काफ़ी पैसे लेंगे.. तब डॉक्टर ने मुकेश जी को उस लड़की की बीमारी के बारे में बताया.. मुकेश जी तुरंत लड़की से मिलने अस्पताल गए और उसे गाना गाकर सुनाया. लड़की को खुश देखकर मुकेश ने कहा “यह लड़की जितनी खुश है उससे ज्यादा खुशी मुझे मिली है"...इस तरह उच्च मानवीय मूल्यों की जिम्मेदारी उठाते हुए, बेहतरीन उदहारण सेट करते थे.. 

वैसे संवेदनशील, महान कलाकार इतने बेपरवाह क्यों होते हैं? इन्हें जीवन से मोह क्यों नहीं होता? लता जी बताती थीं -"मुकेश जी को मौत से पहले ही चार बार हृदयाघात हो चुका था, मना होने के बाद भी शराब पीते थे. उन्हें लंबी प्लेन यात्रा की मनाही थी.. फिर भी वो शो करने से मानते नहीं थे. एक बार मैं भी अमेरिका उनके साथ शो करने गई थी.. शो शुरू होने से पहले अचानक उनके सीने में दर्द हुआ, उनके बेटे नितिन मेरे पास आए उन्होंने हाल बताया... हमने देखा होटेल के रूम में मुकेश जी की सांसें चल रहीं थीं.. हमने व्हील चेयर में बिठाकर ऑक्सीजन लगाया.. लेकिन होटेल प्रबंधन ने सुरक्षा कारणों से लिफ्ट में ऑक्सीजन लगाने नहीं दिया.. हमने मनुष्यता का हवाला दिया, लेकिन वो नहीं माने. फिर भी हम जैसे ही हस्पताल पहुंचे डॉ. ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था". काश उस दिन हमें ऑक्सीजन लगाने से रोका न गया होता तो शायद मुकेश जी उस दिन दुनिया छोड़ कर नहीं जाते .

राजकपूर साहब की लगभग सभी फिल्मों की आवाज़ थे. कभी कभार आभास होता है. जैसे भगवान ने ने मुकेश जी को राजकपूर साहब के लिए ही बनाया था.. या फिर राजकपूर साहब मुकेश जी के लिए बने थे . अनायास मुकेश जी के निधन की खबर सुनकर राज साहब स्तब्ध रह गए. उनके मुंह से निकल पड़ा- मैंने अपनी आवाज़ खो दी... राजकपूर साहब शव लेने एयरपोर्ट गए. राजकपूर साहब ने कहा - 'मेरा दोस्त यात्री की तरह गया था, लगेज की तरह लौटा." मुकेश जी की अंत्येष्टि में उन्होंने सभी धर्म के प्रार्थनाकार बुलाए थे.... मुकेश जी जैसे महान कलाकार कभी मरते नहीं हैं.. वो हमेशा अपने कर्णप्रिय गीतों के जरिए अमर रहेंगे.. महान गायक, मुकेश जी को मेरा सलाम...... 

दिलीप कुमार

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