हिन्दी सिनेमा का अनसुलझा राजकुमार

हिन्दी सिनेमा का अनसुलझा राजकुमार

राजकुमार तो एकदम जुदा किस्म की शख़्सियत थे. उनका ताब बाकियों से मेल नहीं खाता था. एक ठसक हमेशा उनके लहजे में रही. राजकुमार के लिए कहा जाता था, कि जितना दूर रहो उतना ही अच्छा है. राजकुमार लोगों को कम ही समझ आये हैं. मुझे उनको याद करते ही पाकिजा का उनका प्रसिद्ध डॉयलॉग याद आता है  ट्रेन में सोती हुई मीना कुमारी के पांव देखकर कहते हैं, "मैंने आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगे... यह डायलॉग हिन्दी सिनेमा के लिए नायाब मानक बना हुआ है. पाकीजा की सफ़लता मीना कुमारी की अदायगी, कमाल अमरोही के ख्वाबों का ताजमहल होते हुए भी पाकीजा का नाम आते ही याद आते हैं राजकुमार.... वक़्त फिल्म का सिग्नेचर संवाद भारत की जीवन शैली का हिसा बन गया है. लोगों को पता भी नहीं है, कि फिल्मी डायलॉग है. उसको कौन भूल सकता है, जब राजकुमार कहते हैं, जिसके घर शीशे के हों वो दूसरों के घर पत्थर नहीं फेंकते चिनॉय सेठ... यह डायलॉग भारत में हर उस व्यक्ति ने अपनी - अपनी भाषा में जरूर बोला होगा जिसके मुँह में जुबान है. वक़्त फिल्म में ग्रेट अभिनय उस्ताद बलराज साहनी के होते हुए राजकुमार की मौजूदगी देखने लायक होती है. वहीँ सुनील दत्त, शशि कपूर, आदि कहाँ दिखेंगे. बलराज साहनी के सामने अपने बेमिसाल अभिनय से राजकुमार वक़्त फिल्म में जान डाल देते हैं.. 

राजकुमार का अभिनय तो औसत किस्म का था, कोई बहुत गहराई नहीं थी. वो न देव साहब की तरह रोमांस कर सकते थे. न ही दिलीप साहब की तरह संजीदा अभिनय कर सकते थे, न ही राजकपूर साहब की तरह सादगी, मासूमियत दिखा सकते थे. वो कुछ दिखा सकते थे, तो अपना संवाद करने का अंदाज़ जो उनको अपनी शैली का अभिनेता बनाती थी. राजकुमार के पास अपनी प्रतिभा केवल शब्दों से खेलना रहा, लेकिन अपनी अलग अंदाज की डॉयलॉग डिलिवरी और खालिस ऊर्दू के लहजे का ऊम्दा इस्तेमाल उन्हें अलग पहचान दिलाने में कामयाब रहा. खासकर ऐसे दौर में जब देव-राज-दिलीप  जैसे चोटी के अभिनेता काम कर रहे थे. वहीं राजेंद्र कुमार की लगभग हर फिल्म हिट हो रही थी. धर्मेद्र, सुनील दत्त, जैसे स्टार भी हिट हो रहे थे. वहीँ राजकुमार अहंकारी, अक्खड़ और दूसरे लोगों को हमेशा नीचा दिखाने के लिए जाने जाते थे . मिलन सार नहीं थे. अपनी ही एक दुनिया में खोए रहते थे. 

नब्बे के शुरूआती दशक में राजकुमार के गले में असहनीय दर्द होने लगा था. राजकुमार अपनी आवाज के कारण पसंद किए जाते थे. राजकुमार डॉक्टर के पास पहुंचे तो राजकुमार ने कारण पूछा! डॉ. ने कहा कि आपको गले के कैंसर ने जकड़ लिया है. अब स्थिति बहुत नाजुक है. इस पर राजकुमार ने वही अपने बेफिक्री भरे अंदाज में जवाब दिया डॉक्टर! राजकुमार को छोटी मोटी बीमारियां हो भी नहीं सकती. डॉ. छोटी बीमारी हमें अफोर्ड भी नहीं कर सकती. इस वक़्त भी वो अपने ताब में रहे, एक होता है दिखावा एक होता है नेचुरल यह अंदाज उनका अपना नेचुरल था. कोई दिखावा नहीं था... 

राजकुमार ने नज़म नक़वी की फिल्म रंगीली (1952) से फिल्मों में काम करना शुरू किया. फिल्म नहीं चली फ्लॉप हो गई. फिल्म फ्लॉप हो जाने के बाद भी राजकुमार ने अपनी फीस बढ़ा दी. उनसे पूछा गया कि आपकी पहली फिल्म फ्लॉप हो गई. फिर भी आप अपनी फीस बढ़ा रहे हैं. राजकुमार जवाब देते हुए कहते हैं, फिल्म फ्लॉप हो गई तो क्या हुआ!मैं तो हिट हो गया हूं. मुझे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि फिल्म चलती है या नहीं अभिनय करना मेरा काम है, उससे मुझे संतुष्टि है!अतः मेरी फीस मुझे बढ़ानी चाहिए, इसलिए बढ़ा दिया. बाद में उन्हें पहचान मिली सोहराब मोदी की फिल्म नौशेरवां-ए-आदिल से, इसी साल आई फिल्म मदर इंडिया में नरगिस के पति के छोटे से किरदार में भी राजकुमार खूब सराहे गए. सोहराब मोदी की सरपरस्ती में फिल्मी जीवन शुरू करने के कारण यह लाजिमी था, कि राजकुमार संवादों पर विशेष ध्यान होने से बुलंद आवाज और त्रुटिहीन उर्दू के मालिक राजकुमार की पहचान एक संवाद प्रिय अभिनेता के रूप में बनी. सोहराब मोदी संवाद अदायगी में बेजोड़ अभिनेता थे, राजकुमार के लिए सोहराब मोदी आदर्श रूप में थे, खास बात यह रही कि शुरुआती दौर में ही सोहराब मोदी की सोहबत का असर देखा जा सकता है. राजकुमार भी संवाद अदायगी  में अद्वितीय उस्ताद कहे जाते थे. पूर्णतः तो नहीं फिर भी सोहराब मोदी से उन्हें प्रतिभा निखारने में कुछ मदद तो मिली ही होगी. 

साठ के दशक में राजकुमार की जोड़ी मीना कुमारी के साथ खूब सराही गई और दोनों ने ‘अर्द्धांगिनी’, ‘दिल अपना और प्रीत पराई’, ‘दिल एक मंदिर’, ‘काजल’ जैसी फिल्मों में साथ काम किया. यहां तक कि लंबे अरसे से लंबित फिल्म ‘पाकीजा' में काम करने को कोई नायक तैयार न हुआ तब भी राजकुमार ने ही हामी भरी. मीना कुमारी के अलावा वे किसी नायिका को अदाकारा मानते भी नहीं थे. राजकुमार मीना कुमारी के लिए कहते थे, कि मीना कुमारी के अभिनय को देखने के बाद कोई किसी को कैसे देख सकता है. मीना कुमारी को एक बार देख लो तो किसी को देखने का मन ही नहीं होता. मूलतः अभिनय में दिलीप कुमार मीना कुमारी के अलावा राजकुमार को कोई पसंद ही नहीं आया. राजकुमार बहुत ही टफ इंसान थे. 

राजकुमार को ध्यान में रख कर फिल्में बनाई गईं ख़ासकर उनकी दूसरी पारी में फिल्में ही नहीं बल्कि संवाद भी राजकुमार के कद को ध्यान में रख कर लिखे जाने लगे थे. ‘बुलंदी’ ‘सौदागर’, ‘तिरंगा’, ‘मरते दम तक’ जैसी फिल्में इस बात का उदाहरण हैं कि फिल्में उनके लिए ही लिखी जाती रहीं. सौदागर में अपने समय के दो दिग्गज अभिनेताओं दिलीप कुमार व राजकुमार का मुकाबला देखने लायक था. इसी तरह तिरंगा में राजकुमार का सामना उन्हीं की तरह के मिज़ाज और तेवर वाले अभिनेता नाना पाटेकर से हुआ था, लेकिन अपने अभिनय की सीमाओं के बावजूद वो अपनी संवाद अदायगी और स्टाइल की वजह से सभी अभिनेताओं को कड़ी टक्कर देते थे.

राजकुमार अनुशासनप्रिय इंसान ही नहीं अपनी ही शर्तों पर काम करने के हठी भी थे. उनके कई किस्से फिल्मी गलियारों में मौजूद हैं,ऐसा ही एक किस्सा फिल्म पाकीजा का है.फिल्म के एक दृश्य में राजकुमार, मीना कुमारी से निकाह करने के लिए तांगे पर लिए जाते है. तभी एक बदमाश उनका पीछा करता हुआ आता है. स्क्रिप्ट के अनुसार राजकुमार उतर कर बदमाश के घोड़े की लगाम पकड़ लेते हैं, उसे नीचे उतरने को कहते हैं, वो उनके हाथ पर दो-तीन कोड़े मारता है. फिर राजकुमार लगाम छोड़ देते हैं.इस दृश्य पर राजकुमार अड़ गए. उनका कहना था, कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक मामूली गली का गुंडा राजकुमार को मारे! होना तो यह चाहिए कि मैं उसे घोड़े से खींच कर गिरा दूं, और दमभर मारूं! निर्देशक कमाल अमरोही ने समझाया कि आप राजकुमार नहीं आपका किरदार सलीम खान का है. राजकुमार नहीं माने. निर्देशक ने भी शोहदे को तब तक कोड़े चलाने का आदेश किया जब तक राजकुमार लगाम न छोड़ दें. अंततः बात राजकुमार की समझ में आ गई. कमाल अमरोही कहते थे, कि राजकुमार को निर्देशन करना टेढ़ी खीर है, हालांकि उनको अगर समझ आ गया कि क्या करना है, तो फिर वो जो कर सकते हैं, कोई भी नहीं कर सकता. चूंकि कमाल अमरोही मीना कुमारी के पति थे, वहीँ राजकुमार शूटिंग के वक़्त उनको कुछ कहते तो कमाल अमरोही उनको कहते, कि मंजू सिर्फ मेरी है. राजकुमार हंसते हुए कहते कमाल साहब मज़ाक सीरियस मत ही लीजिए, राजकुमार का सेंस ऑफ ह्यूमर भी था. सोचकर यकीन नहीं होता, यही कमाल अमरोही को भी लगता था, राजकुमार सचमुच समझ नहीं आए. 

कालजयी फिल्म 'नीलकमल' का मूर्तिकार प्रेमी चित्रसेन उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण रोल है. राजकुमार प्रेम को भी अपनी ज़िद जुनून से पर्दे पर उकेरते थे. फिल्म की कहानी में महान मूर्तिकार चित्रसेन(राजकुमार) के काम से खुश होकर  महाराजा उससे मनोवांछित वर मांगने के लिए कहता है, वर में चित्रसेन राजकुमारी नील कमल (वहीदा रहमान) को मांग लेता है. उसके दुसाहस से क्रोधित होकर राजा उसे जिंदा दीवार में चिनवा देता है. अगले जन्म में जब नील कमल सीता के रूप मे जन्म लेती है, तो चित्रसेन की आत्मा उसे रातों में पुकारती है, और वह अपना होश खोकर आवाज़ की ओर चल देती है. चित्रसेन किरदार को निभाना राजकुमार के लिए सहज था, वहीँ किसी दूसरे के लिए इतना सहज नहीं था, व्यक्तिगत रूप से वहीदा रहमान सबसे ज्यादा फिल्म 'नीलकमल' में पसंद आईं, वहीँ राजकुमार के जीवन का सबसे प्रमुख रोल यही रहा. बगावती चित्रकार जिसका ताब किसी बादशाह से कम नहीं है. राजकुमार सिल्वर स्क्रीन पर प्रेम करते हैं, तो वो सिर्फ अपनी ज़िद पर करते हैं, त्याग की भावना से ज्यादा उनके तेवर दिखते हैं, सिल्वर स्क्रीन आपको केवल प्रसिद्धि देती है, व्यक्तिगत शख्सियत आपको परिभाषित करती है, यही अंदाज़ उनको राजकुमार बनाता है. 

देव साहब राजकुमार को लेकर अपनी आत्मकथा 'रोमांसिंग विथ लाइफ' में लिखते हैं, " यूँ तो राजकुमार में लोग नकारात्मकता, घमंड देखते हैं, लेकिन उस व्यक्ति के दिल में सादगी का एक स्थान था. देव साहब कहते हैं, कि यही दृष्टिकोण ज़िन्दगी में मेरा भी रहा है, लेकिन मैंने कभी भी यह सोचा नहीं है, कि मैं भी ऐसा करूंगा. देव साहब लिखते हैं कि राजकुमार का निधन हो जाने के बाद कुछ दिनों बाद उनकी बेटी वास्तविकता मेरे पास काम मांगने के लिए आईं, तो मैंने सहसा पूछा कि राजकुमार कैसा है? स्वास्थ्य ठीक है? वास्तविकता अपने पिता राजकुमार को याद करते हुए रो पड़ी. मैंने पूछा क्या हुआ, कहती है कि मेरे पिता राजकुमार इस दुनिया में नहीं रहे. मुझे भी दुःख हुआ, कि राजकुमार के देहांत की खबर भी नहीं लगी. वास्तविकता ने बताया, राजकुमार का दृष्टिकोण उन्हें एक दार्शनिक सिद्ध करता है, वहीँ आश्चर्य हुआ कि आज की दुनिया में कोई ऐसा सादगी से भरा कैसे हो सकता है. राजकुमार ने अपने देहांत से पहले ही तय कर दिया था, कि मेरे देहांत के बाद मेरे घर के लोग ही मुझे पंचतत्व को सौंप देना. किसी प्रकार की कोई शवयात्रा ड्रामा मेरी मौत का मत बनाना. मौत व्यक्ति की अपनी पर्सनल होती है, शरीर प्रकृति का है, उसको ही सौंप देना चाहिए. वो नहीं चाहते थे, कि राजकुमार को कोई असहाय रूप में नाक में रुई लगी अर्थी में लेटा हुआ देखे. मैं अपनी तस्वीर लोगों के जेहन में ऐसी ही जिन्दा रखना चाहता हूं. बेटी वास्तविकता से सुनने के बाद राजकुमार के लिए आदर का भाव बढ़ गया. देव साहब कहते हैं सचमुच राजकुमार बहुत कम समझ आता था. तब देव साहब ने भी प्रेरणा लिया कि मरने के बाद इवेंट बाज़ी नहीं होना चाहिए. शरीर प्रकृति को सौंप देना चाहिए. चाहे, जिस मुल्क में चाहे जिस गांव में चाहे जिस शहर में जहां देहांत हो मुझे प्रकृति को सुपुर्द कर देना. यही देव साहब की इच्छा के मुताबिक यूके में उनके कुछ रिश्तेदारों की मौजूदगी में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. राजकुमार का यह दृष्टिकोण उनको दार्शनिक सिद्ध करता है. 

'सौदागर' फिल्म के लिए सुभाष घई ने स्टार कास्टिंग में फौज खड़ी कर दी,सुभाष घई ने फ़िल्म दिलीप कुमार & राजकुमार को ध्यान में रखते हुए बनाने का सोचा था. सुभाष घई के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी,दोनों दिग्गजों को सिल्वर स्क्रीन पर एक साथ लाने की, सुभाष घई इस बात से अनभिज्ञ नहीं थे, बता दें! 1959 में आई फिल्म 'पैगाम' में दिलीप कुमार & राजकुमार दोनों ने एक साथ काम किया था. लीड रोल में दिलीप कुमार थे, तो जाहिर है, कि प्रमुख सीन उनको ही मिलेगे, लेकिन बाद में राजकुमार ने आरोपित किया, कि दिलीप कुमार ने मेरे प्रमुख रोल कटवा दिया. अतः राजकुमार ने कसम खाई की कभी दिलीप कुमार के साथ काम नहीं करूंगा. सुभाष घई जानते थे, कि दोनों दिग्गजों को साथ लाना कोई आसान काम नहीं है, सुभाष घई स्क्रिप्ट लेकर दिलीप साहब के पास पहुंचे. दिलीप साहब ने दमदार स्क्रिप्ट देखकर फिल्म साइन कर लिया. दिलीप साहब ने पूछा कि दूसरा कौन है, चूंकि दिलीप कुमार सुलझे, ठंडे दिमाग के आदमी थे, तो सुभाष ने बताया राजकुमार, दिलीप साहब ने कहा अच्छा है. दूसरे दिन स्क्रिप्ट लेकर सुभाष, राजकुमार के पास पहुंचे, राजकुमार ने स्क्रिप्ट पढ़ते हुए पूछा मेरे अलावा कौन है? सुभाष घई तब तक गाड़ी स्टार्ट करते हुए जाने ही वाले थे. उन्होंने कहा कि दिलीप कुमार, तब तो अवश्य काम करूंगा. राजकुमार कहते हैं,क्योंकि मेरे अलावा कोई दमदार हीरो है, तो दिलीप कुमार ,आख़िरकार सौदागर बनकर तैयार हुई, जबरदस्त हिट हुई. हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म मानी जाती है. वहीँ सुभाष घई सौदागर बनाने के लिए उससे ज्यादा दोनों को सिल्वर स्क्रीन पर फिर से लाए. यह सौगात हर सिने प्रेमी के लिए न भूलने वाली स्मृति है. 

राजकुमार साहब अपने अंतिम दिनों तक उसी ठसक में रहे फिल्में अपनी शर्तों पर करते रहे. फिल्में चलें न चलें वह बेपरवाह रहते थे.  राजकुमार फेल नहीं होता, फिल्में फेल होती हैं. आखिरी वर्षों मे वह शारीरिक कष्ट में रहे फिर भी अपनी तकलीफ लोगों और परिवार पर जाहिर नहीं होने दी. उनकी आखिरी प्रदर्शित फिल्म गॉड एण्ड गन रही. आख़िरकार 3 जुलाई 1996 को राजकुमार दुनिया से रुख़सत हो गए. राजकुमार के लिए यही कहा जा सकता है, कि आज भी एक सितारा चमकता रहता है, लेकिन समझ कम आता है.

और रहा सवाल समझने का तो दुनिया में किसको कौन समझ सका है, हम खुद को ही नहीं समझ सके दुनिया को समझ क्या खाक आएंगे. आज अगर जिवित होते तो ऐसा ही कुछ बोलते. राजकुमार अपनी पुण्यतिथि पर बहुत याद आए. 

#Rajkumar

                               दिलीप कुमार

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